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Saturday, December 19, 2015

निर्भया के दोषी की रिहाई पर सोमवार को होगा फैसला, सुप्रीम कोर्ट ने रिलीज पर नहीं लगाई रोक!


नई दिल्ली। दिल्ली में 14 दिसंबर 2012 को निर्भया के साथ 3 साल पहले जब दरिंदगी हुई थी, तो पूरे देश में कोहराम मच गया था। लोग सड़कों पर उतरे। निर्भया ने काफी संघर्ष के बाद दम तोड़ दिया था। मामले में कुल 6 दरिंदों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से राम नाम के आरोपी ने तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर ली थी, तो 4 आरोपियों को फांसी की सजा दिल्ली हाईकोर्ट ने सुनाई। पर इनके अलावा जिस दरिंदे ने सबसे ज्यादा हैवानियत दिखाई थी, वो आज रिहा हो रहा है। क्योंकि उसे नाबालिग होने का फायदा मिला था और महज 3 सालों तक ही उसे सुधार गृह में रखा गया था। पर उसकी रिहाई का जमकर विरोध हो रहा है। दिल्ली महिला आयोग आधी रात में उसकी रिहाई रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंची, पर रात 2 बजे तक चली हलचल के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने उसकी रिहाई पर रोक नहीं लगाई है, हालांकि दिल्ली महिला आयोग की अर्जी मंजूर कर ली गई है और इसकी सुनवाई सोमवार को होगी। 

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाती मालिवाल ने कहा कि पहले पूरे मामले को वैकेशन बेंच ने सुना और आगे पूरे मामले की सुनवाई सोमवार को होगी। इस मामले को केस नंबर 3 के तौर पर सुप्रीम कोर्ट में सुना जाएगा। अब ये देखना होगा कि बाल सुधार आयोग निर्भया के दोषी को रिहा करेगा या नहीं, क्योंकि साफ तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया के दोषी की रिहाई को लेकर कोई बात नहीं कही है। जिसके बाद दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाती मालिवाल ने कहा कि हम बाल सुधार आयोग से अपील करते हैं कि दोषी नाबालिग को रिहा न किया जाए।

आधी रात में अपील करने के बाद सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने मामले को फाइल जस्टिस गोयल और जस्टिस ललित उदय के वैकेशन बेंच के पास भेज दिया था। जिसे स्वीकार कर लिया गया है। पर आधी रात में पूरे मामले की सुनवाई न करते हुए वैकेशन बेंच ने कहा कि वो मामले की सुनवाई सोमवार को करेगी। आधी रात में सुप्रीम कोर्ट पहुंचने के सवाल पर स्वाती मालिवाल ने कहा कि कुछ कानूनी दिक्कतों के चलते देरी हो रही थी। पालीवार की अपील पर रजिस्ट्रार पूरे मामले को लेकर सीजेआई के गए थे।

इससे पहले, दिल्ली महिला आयोग के वकील राजेश इनामदार ने बताया था कि अभी फाइल जस्टिस आदर्श कुमार गोयल और जस्टिस ललित उदय  के वैकेशन बेंच के पास गई है। रात में 2.05 बजे तक स्वाती मालीवाल ने पूरे मामले की जानकारी देते हुए बताया कि सोमवार को कोर्ट इस मामले पर सुनवाई करेगी।

गौरतलब है कि निर्भया के दोषी नाबालिग आरोपी को आज रिहा किया जाना था। पर उसकी रिहाई का जोरदार विरोध हो रहा है। एक तरफ दिल्ली में निर्भया के परिजनों ने विरोध प्रदर्शन किया, तो दूसरी ओर उसकी रिहाई रोकने के लिए दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष आधी रात में ही सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी, जिसपर अब सोमवार को सुनवाई होगी।
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Wednesday, November 18, 2015

प्रेम कहानियां: प्यार तूने क्या किया...

वो कोयल की तरह कूहकती थी, पर मैना की तरह प्यारी थी। वो सरसों के खेतों में उड़ती तितली सरीखी थी। वो बरगद के पेड़ों तले मिलने वाले सुकून थी। वो एक लड़की थी। जो 11th में पढ़ती थी। वो छोटे से शहर के छोटे से गांव में रहती थी, पर मुंबई जैसे सपनों की नगरी देख चुकी थी। उसे जब पहली दफे देखा था, तो सुर्ख गुलाब की मानिंद होठों की लाली ने मुझे आकर्षित किया था। वो लाल रंग की रेशमी फ्रॉकनुमा कपड़े पहनी थी। होठों पर प्यारी सी मुस्कान थी। बालों में मेंहदी का रंग उसके सुर्ख गुलाबी गालों पर पड़कर इंद्रधनुषी छटा बिखेर रही थी। वो अपनी सहेलियों के संग हंसती-खिलखिलाती बातें कर रही थी और बीच में उसके होठों पर जोर से उन्मुक्त हंसी आ जाती थी। तब उसकी आंखें शर्म से इधर उधर देखती थी, कि कहीं किसी ने देख तो नहीं लिया।

वो सना थी। सुल्तानपुर शहर के दियरा की रहने वाली। वहीं, रानी महेंद्र कुमारी इंटर कॉलेज में पढ़ती थी। पढ़ाई में अव्वल तो नहीं कहेंगे, पर औसत से थोड़े ज्यादा थी। वो फुंहफट तो थी, पर बेहद प्यारी थी। जो एक बार देख ले, वो शायद ही उसे कभी भुला सके। कुछ ऐसा ही हुआ मेरे साथ भी। उसे देखा, तो देखता रह गया। इंटर कॉलेज में दो ब्लॉक्स थे, नॉर्थ और सॉउथ। नॉर्थ ब्लॉक लड़कियों के लिए था, सॉउथ ब्लॉक लड़कों के लिए। वो नॉर्थ ब्लॉक की होकर भी सॉउथ ब्लॉक में घूमती रहती थी। हर लड़की की जुबान पर, हर लड़के के दिलों पर वो राज करती थी। पर किसी को घास नहीं डालती थी।

हां, वो सना मिश्रा ही थी, जिसे देखा तो बस देखता रह गया। इससे पहले तमाम जिंदगियां जी चुका था मैं। फिर भी उसकी तरफ आकर्षित हुआ। मेरी जिंदगी थोड़ी अव्यवस्थित थी, पर इतनी भी नहीं, कि वो संवर नहीं सकती थी। पर सना से मिलने के बाद मेरी जिंदगी वाकई बदल गई।

मैं 11th में था। बस कभी कभी इंटर कॉलेज जाता था। पढ़ाई के मामले में फ्रंट वेंचर था, पर था तो औसत ही। हां, सना से मिलने के बाद साइड वेंचर हो गया था। उसे रोज देखना शगल बन गई थी। सुबह कॉलेज में उसे न देखूं तो बेचैनी होती थी। इसी फिराक में, कि उसकी एक झलक मिल जाए। कई बार उसके घर के सामने से रॉउंड भी मार दिया करता था। सिर्फ उससे बात करने के लिए मैंने अपने गांव की कई लड़कियों से दोस्ती की। ताकि उनके बहानें मैं उसे भी देख सकूं और बात कर सकूं।

कई लड़कियों की दोस्ती रंग लाई। उससे बात करने का मौका मिला। एक दिन यूं ही कॉलेज के गेट पर दिख गई। मैंने कहा-हाय!

वो रुकी, स्माइल दी और नॉर्थ ब्लॉक की तरफ चली गई। कुछ नहीं कहा। पर पहली बार उसकी आंखों से आंखे मिलाने का अजब ही नशा चढ़ गया था। वो अब मुझे परेशान करने लगी थी। सच कहूं, तो पहला अहसास था। जो सबसे अलग था। जो सबसे जुदा था। अब वो मेरे लिए बेहद खास थी। पर दूसरी तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं था। मैं बस उसे देखता था। उसकी बातों को सुनता था। उसकी शरारतों में जीता था। उसे घर जाते हुए तबतक देखता था, जबतक वो आंखों से ओझल नहीं हो जाती थी।



एक दिन यूं ही कोई बात चली। ये वो दौर शुरू हो चुका था, जब मैं शायरी और गजलों की तरफ जा रहा था। प्रेमगीत प्यारे लगने लगे थे। प्रेम कहानियां अच्छी लगने लगी थीं। जबकि इससे पहले मैं प्यार के नाम से ही भिनक उठता था। पर वो ऐसा दौर था, जिसमें मैं बदलने लगा था। मैं लिखूंगा, तो बहुत लंबा हो जाएगा। सिर्फ इतना कहना चाहूंगा। वो जो उस दौर में हुआ था, वो आज भी कायम है। सच कहूं, तो पहले जैसा। समय बदल चुका है, फिर भी वो खास है। खास ही रहेगी। पर सुना है कि अब वो पहले जैसी नहीं रही। अब वो शर्माती नहीं। अब वो किसी को देखकर बचने की कोशिश नहीं करती। सुना है, वो अब पहले से कहीं ज्यादा खूबसूरत हो चली है। लोग अबतक हम दोनों के बारे में तमाम कहानियां किस्से सुनाते रहे हैं। सच कहूं, तो मुझे उसका नाम अपने साथ जुड़े देखकर हैरानी नहीं होती, बल्कि अच्छा लगता था। नाम आज भी जुड़ता है। पर सच कहूं, तो उससे मिले जमाने हो गए। शायद दशक भर का समय। वो आज भी वैसे ही मुस्कराती होगी। वो आज भी वैसे ही ठिठोली करती होगी। वो आज भी वैसे ही खुश होगी। जैसा मैं उसे देखा करता था। जैसा मैं चाहता था। वो हमेशा खुश रहे। अब तो दशक भर का समय हो गया है। सुना है, अब वो पहले से भी ज्यादा चंचल हो गई है। गुदगुदी होती है। पर... अब मैं बदल चुका हूं। अहसास ही बाकी बचे हैं मुझमें। अब मैं पहले से भी ज्यादा गुस्से वाला हो गया हूं। अब मैं किसी की परवाह नहीं करता। अब मैं...
चलिए, ये गाना डेडीकेटेड है उसी को। आपके भी पहले प्यार के अहसास को... जो अब मीठी यादें भर हैं।

Friday, November 6, 2015

Top 5 News Headlines of 7 November 2015

 
                     कश्मीर का दौरा करेंगे पीएम मोदी 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज जम्मू कश्मीर की यात्रा करेंगे. वह दो जन सभाओं को संबोधित भी करेंगे और बगलिहार जलविद्युत परियोजना के दूसरे चरण का उद्घाटन करेंगे.

अनुपम खेर अन्य फिल्मी हस्तियों के साथ करेंगे 'मार्च फॉर इंडिया'
दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक असहिष्णुता पर उठती आवाजों के खिलाफ आज अभिनेता अनुपम खेर अन्य फिल्मी हस्तियों के साथ करेंगे 'मार्च फॉर इंडिया'.

आज खत्म हो रही है इंद्राणी मुखर्जी की न्यायिक हिरासत
शीना बोरा मर्डर केस की मुख्य आरोपी इंद्राणी मुखर्जी और अन्य दो की न्यायिक हिरासत आज खत्म हो रही है

तेल कीमतों पर सरकार ने बढ़ाया उत्पाद शुल्क
सरकार ने पेट्रोल की कीमतों में 1.6 रुपये प्रति लीटर और डीजल में 40 पैसा प्रति लीटर उत्पाद शुल्क बढ़ाया है. 

लंदन में पीएम मोदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन की तैयारी

Tuesday, October 27, 2015

If police refuses to register your FIR then what to do ?

If police refuses to register your FIR
then what to do ? By Abhishek Ranjan
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Recently i have visited any police station in Bihar first time, because some goons of a political party beaten me just for raising issue of Navruna infront of CM. Initially Police refused to accept petition. When concerned official were informed by others about my identity, he's ready to accept my application but again refused to give FIR no. After 2 days struggle, police registered my case finally.
Its a very common phenomenon
that people are saying that police
is not lodging their FIR. Even sometimes people are ill-treated by the police. Sharing here some information compiled by one of my lawyer friend....
If Police officer concerned (SHO), refuses to Register complaint/FIR, than by virtue of section 154(3), a written Complaint may be send by Post to the Superintendent of Police or the Commissioner of Police (in Metropolitan areas); If Superintendent of Police or the
Commissioner of Police (in Metropolitan areas) is satisfied that the Complaint discloses
cognizable offence, he may himself investigate the case or cause the investigation of the case by any Police officer subordinate to him.
Even after that if no any action has been taken then an application can be made under
section 156(3) read with section 190 of Code of Criminal Procedure to a judicial Magistrate/
Metropolitan Magistrate thereby praying that police to register the FIR., investigate the case, file charge-sheet or report.
A Writ Petition in the respective High Court may be filed for the issuance of Writ of Mandamus
against the defaulting Police officers, inter alia, to Register the FIR and directing him to show
cause (a) why he has not registered the FIR; (b) why disciplinary proceedings for "Misconduct"
should not be initiated against him for dereliction of duty; (c) why he should not be suspended from Police service for interfering in
the administration of justice and shielding the accused person.
You can file an online complaint, find relevant information and also get the contact details of each State's own Human Rights Commission office on the website of the National Human Rights Commission ( http://nhrc.nic.in )
Refusing to register an FIR on jurisdictional ground could now cost a policeman a year in jail.
Taking strong view of increasing instances of such acts by police in various states, the Union home ministry has issued strict instructions to all states to not only initiate departmental inquiry against such cops but also prosecute them under Indian Penal Code.
The home ministry told the states and Union Territories to clearly instruct all police stations that failure to register FIR on receipt of
information about any cognizable offence will invite prosecution of the duty police officer under I.P.C.
Section 166A (government official disobeying law) which will invite imprisonment up to one year.
In its latest directive, the MHA told the states and UTs that policemen should be sensitized to respond to complaints with alacrity, whether
it is from man or woman, and must apprehend the accused immediately after the complaint,
as it adversely impacts the victim and there is tendency of persons committing crimes to slip away when there is delay on extraneous
grounds like jurisdiction.

Friday, October 23, 2015

बिहार के सीएम नीतीश कुमार से रैली में सवाल पूछने पर युवक पर हमला!


मुजफ्फरपुर। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से उन्हीं की रैली में सवाल पूछना एक युवक को महंगा पड़ गया। नीतीश से सवाल पूछने पर जेडीयू कार्यकर्ताओं ने युवक पर हमला बोल दिया और जमकर गुंडागर्दी करते हुए पिटाई की। जेडीयू कार्यकर्ताओं के हमले में युवक घायल हो गया। दरअसल, अभिषेक रंजन नाम के युवक ने सीएम नीतीश कुमार से बहुचर्चित नवरुणा किडनैपिंग कांड की जांच को लेकर सवाल किए थे और शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तभी जेडीयू कार्यकर्ताओं ने उनपर हमला बोल दिया।

अभिषेक रंजन एक्टिविस्ट हैं और नवरुणा को न्याय दिलाने के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं। उनकी लगातार कोशिशों का नतीजा है कि नवरुणा किडनैपिंग केस अब सीबीआई के हवाले है। अभिषेक रंजन ने अपने फेसबुक स्टेटस पर लिखा है, 'मुजफ्फरपुर के पत्रकारों का धन्यवाद, जो उन्होंने मेरी जान बचा ली। वरना नीतीश समर्थक जदयू कार्यकर्त्ता थप्पड़ चलाने, गला दबाने के साथ भीड़ में मेरी जान ले लेते और आपका अभिषेक आज नही बचता। दोष इतना ही था कि सिर्फ खड़े होकर सवाल पूछा और वह भी किसी समूह में नही अकेले । मैं पूछता रहा कि नवरुणा का क्या हुआ? उसे न्याय कब मिलेगा मुख्यमंत्री जी, मुख्यमंत्री महिला सुरक्षा के दावे करते रहे। मैं लोकतान्त्रिक तरीकें से पोस्टर लिए खड़ा रहा। एसपी ने मेरा परिचय पूछा, मैंने बस अभिषेक कहा। जान मार देने तक की धमकी भी मिली है। यह सबकुछ एक स्थानीय जदयू नेता के नेतृत्व में हुआ।'

इसके आगे अभिषेक ने लिखा है, 'मुझे खूब चोट लगी है लेकिन मैं बिल्कुल सुरक्षित हूँ। चिंता करने की कोई बात नही है। अब मुझे डर अपनी जान का है। वैसे भी मुजफ्फरपुर मेरे लिए खतरों से खाली नही था, अब तो यहाँ खुलकर चल भी नही सकता। खैर बहरों को सुनाने और उसके डबल स्टैण्डर्ड को एक्सपोज़ करने के लिए कुछ तो करना ही चाहिए था।'

अभिषेक ने नीतीश कुमार के आगे प्रदर्शन करने के बारे में फेसबुक पर ही सभी लोगों से अपील की थी, कि वो नीतीश कुमार के सामने प्रदर्शन करने चल रहे हैं और इसमें उन्हें साथियों से सहयोग चाहिए। अभिषेक एक तख्ती पर नवरुणा को न्याय दिलाने की अपील कर रहे थे। अभिषेक पर हमले की सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। आशुतोष कुमार सिंह ने लिखा है कि अभिषेक रंजन से अभी-अभी बात हुई है। पीठ में ज्यादा चोट है। फिलहाल सुरक्षित हैं, लेकिन जान से मारने की धमकी मिली है। यह गंभीर मामला है, बिहार के नीतीश सरकार के लिए यह शुभ संकेत नहीं है।

Monday, October 12, 2015

Be Alert to Protect Yourself Against World

जिंदगी एक जंग है। ऊपर वाले ने हमें एक वॉर जोन में फेंक दिया है। बी एलर्ट! प्रोटेक्ट योरसेल्फ....।

जिंदगी में एक मंजिल चुनना जरुरी है। जुनून के साथ दौड़ो। पढ़ना है तो जुनून के साथ पढ़ो, गाना है, तो जुनून के साथ गाओ। बिना मकसद के जिंदगी, मुर्दों से बदतर है। उसके मरने-जीने से दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता।

याद रख लो, खुद से बढ़कर यहां कोई तुर्रम खान नहीं। जो अच्छा लगे वो करो। किसी की बात मत सुनो। इंसानियत की बात तो बिल्कुल नहीं।

अगर तुम्हारा टारगेट है 10 मील जाने की, तो 11 मील दौड़ो। ऐसा हाथ मारो कि दिमाग घूम जाए। समझा? अब से किसी से कुछ नहीं बोलना। न समाजवाद, न साम्यवाद, न पूंजीवाद। सिर्फ अपन का वाद... बाकी सब भाग साले....

Tuesday, September 22, 2015

...वो लड़का और विमल!

वो तेज कदमों से चले जा रहा था। बिना रुके। सांसे तेजी से चल रही थी। माथे पर पसीना था। लंबे डग भरते हुए वो गली से निकलकर सड़क पर आ गया और अचानक भागकर रोड के उसपर चला गया। उसका पीछा करने में परेशानी हो रही थी। वो तेजी से शमशाम घाट की ओर बढ़ा और पलक झपकते ही गायब हो गया। 

विमल की समझ में कुछ नहीं आया, कि वो था कौन? बस, उसे लग रहा था कि वो चाल उसने कहीं देखी है। वो शमशाम घाट के गेट पर आकर सुन्न पड़ गया था। लड़का एक बार फिर से सामने आ चुका था। अबकी बार उसका चेहरा थोड़-थोड़ा विमल को दिख रहा था। पर अब भी विमल को पहचानने में दिक्कत हो रही थी, वजह थी दूरी।

तभी बिजली चमकी, और उस लड़के का चेहरा चमक उठा। विमल को मानो सांप सूंघ गया हो। वो वहीं, ढेर हो गया। तभी रात 2 बजे शहर से लौट रहे उसके चाचा वहां से गुजरे। विमल को यूं ही बेसुध सा शमशान घाट के आगे गिरा देख वो सहम गए। फिर, बच्चा अपने घर का था। उसे वो चुपचाप उठा कर घर ले गए। और बिस्तर में डाल खुद जमीन पर चटाई बिछा बैठ गए। वो कुछ सोच रहे थे, पर पूरी तरह से शांत लग रहे थे।


यूं ही 3 घंटे गुजर गए। घनी अंधेरी रात के छंटने का समय हो चला था। चिड़ियों की चहचहाहट आज थोड़ी अलग लग रही थी। विमल के चाचा अशोक को समझते देर न लगी। उन्होंने भी सालों पहले ठीक इसी तरह की चिड़ियों की चहचहाहट को महसूस की थी। तब वो खुद विमल की उम्र के थे। जब उन्होंने किसी का पीछा किया था। सुबह होने के बाद घर के लोग उठने लगे थे। पर शहर से आने के बावजूद अशोक चुपचाप अपने कमरे में ही बैठे हुए थे। वो बाहर आकर लोगों से मिले। पर सुबह 7 बजते ही घर में कोहराम मच चुका था...!

Monday, September 7, 2015

आरक्षण: सिख और पारसी समाज से सीख लेने की जरुरत

हम आज कुछ और सुनें न सुने "आरक्षण" शब्द खूब सुन रहे है। देश में जहां देखो वहीँ आरक्षण को लेकर बात-चीत,चर्चा विवाद चरम स्तर पर शुरू है। अखबारों से लेकर मैगजीनों तक,इंटरनेट से लेकर टेलीविज़न चैनलों तक..हर जगह। इसमें भी कोई पटेल जाति को लेकर आरक्षण चाह रहा है तो कोई जाट समुदाय को लेकर,कोई मुस्लिम समुदाय को लेकर आरक्षण चाह रहा है तो कोई बैंसला समुदाय को लेकर! आंदोलन तक हो रहें है आज तो बड़े स्तर पर! ऐसा लगता है जैसे आरक्षण एक अधिकार न होकर एक अध्याय ही बन गया है।लगता है जैसे एक इतिहास लौट कर आ रहा है।
ज्ञानरंजन झा, युवा पत्रकार


इसकी सबसे पहली वजह ये है कि इसका इतिहास पुराना है। आरक्षण के इतिहास पर नज़र डालें तो ये बात सामने आती है कि इसे एक छोटे स्तर पर प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया था। इसे लेकर आज़ादी तक बहुत आंदोलन भी हुए। अम्बेडकर जी को इस शब्द को प्रचलित करने का श्रेय भी जाता है। दूसरी वजह ये है कि ये बात एक समुदाय विशेष यानी कम्युनिटी के हित से जुडी है इसलिए भी इस पर ज्यादा दवाब से बात होती है। अगर किसी विशेष समुदाय को अधिकार ज्यादा मिले तो समझिये आरक्षण का फेर है। लाभ हर स्थान पर प्राप्त होता है इसलिए यह अधिकार कारगर माना जाता है निजी हितों के लिए।

पर जब आरक्षण पर ज्यादा बात होती ही है तब हम उस समय हर बार ये सोचना क्यों भूल जाते है कि जो 'समुदाय' आज सच मायनों में आरक्षण के हकदार है जब वो इसकी मांग नहीं कर रहे तो आखिर दूसरे क्यों इस पर जबरन अड़े है?

हम ये इतिहास जरूर जानना चाहिए कि जब अंग्रेज देश छोड़ कर जा रहे थे तब उन्होंने पार्लियामेंट के सामने ये प्रस्ताव दिया था कि पारसी समाज को अल्पसंख्यक होने के नाते इस दायरे में रखा जाये मगर पारसियों ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि अपने ही मुल्क ईरान से अलग होने के बाद जिस देश ने हमें हज़ारों वर्षों तक संभाला वहाँ हम अपने लिए आरक्षण की मांग कैसे कर सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजों से इतना ही कहा था कि आप बस ये मुल्क छोड़ कर चले जाइए हमें आरक्षण की कोई जरुरत नहीं है।

ठीक यही हाल सिख समुदाय का भी है,वो भी देश में कभी आरक्षण को लेकर शोर मचाते नहीं दिखाई पड़ते। ये लोग चाहते तो आज तक बहुत कुछ मांग सकते थे देश से।

होता ये है कि आरक्षण को लेकर सबसे ज्यादा तेज़ी उन्हें ही होती है जिनके पास आज अपने ऊपर कोई उम्मीद नहीं है। वो बस इसी के सहारे टिके हैं। मेहनत आज उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम है।

सबसे रोचक पहलु ये है कि क्या हम इन पारसियों और सिख समुदायों से सीख नहीं ले सकते! क्या हम ये नहीं सोच सकते कि जब ये इतनी कम तादाद में होकर भी आरक्षण नहीं मांग रहे तो दूसरे क्यों इसकी चाह में हैं?  ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आरक्षण के लिए चीख-पुकार करने वालों को ये दिखाई नहीं देते, देते तो जरूर होंगे मगर फिर भी ये नहीं सीखते और ख़ास बात ये कि इस आरक्षण के खत्म होने से जब बहुत सारे मुद्दे सुलझ सकते है फिर आखिर ये क्यों बंद नहीं होता ?

हम आज काबिलियत पर भरोसा करना क्यों भूलते जा रहे हैं। हर एक इंसान के अंदर काबिलियत होती है बस उसका मापन उसी से होना चाहिए। जाति और धर्म के नाम पर बटवारा आखिर कितनी देर तक चलेगा?  माना परिस्थितियां उस वक़्त इसके माकूल थी मगर अब तो बदलाव आ गया है ना ! हमें इस पहलु को समझना चाहिए। हम देश को विकासशील होते नहीं देख सकते हमें इसे विकसित बनाना है। ऐसे में जरुरी है ये पूर्ण रूप से खत्म हो। जब मुद्दा अस्तित्व में ही नहीं रहेगा तो लोग मांग ही नहीं करेंगे।ये तुरंत नहीं हो सकता मगर इसके लिए एक मजबूत एवं बड़ा प्रयास तो हो ही सकता है न!

इसके लिए इस मुद्दे का गैर-राजनीतिकरण होना सबसे आवश्यक है।इसकी ही वजह से आज तक ये मुद्दा बड़ा फुला-फला है।अपने फायदे के लिए इस शब्द का खूब इस्तेमाल हुआ है।ये जहाँ खत्म हुआ समझिये आरक्षण खत्म।

एक बात ये कि माना हम आज की परिस्थितयों से सीख नहीं ले सकते मगर इतिहास से तो ले सकते है न ! इसलिए हमें सीख लेनी चाहिए।आरक्षण जैसे मुद्दे का हल होना बहुत जरुरी है आज देश में ! इसे खात्मे के बाद देश जरूर एक नए उजाले का सवेरा देखेगा।

युवा ज्ञानरंजन झा जुझारू पत्रकार हैं। पढ़ाई के साथ ही समसामयिक मुद्दों पर की-बोर्ड घिसते ही रहते हैं। ज्ञानरंजन से फेसबुक(क्लिक करें) पर भी संपर्क किया जा सकता है।

Tuesday, August 25, 2015

'ताज' का एक दीदार: मेरी आगरा यात्रा by Gyan Ranjan Jha

आगरा यात्रा: ताज डायरी 
एक संयोग कैसे एक यात्रा में तब्दील हो जाती है,इसी का एक जीता-जागता उदाहरण है मेरी आगरा यात्रा....
ज्ञान रंजन झा मूलत: पत्रकार हैं।
पढ़ाई के साथ फ्रीलांसिग में व्यस्त हैं।
बात 21 अगस्त 2015  की है। शाम के करीबन 6 या 7 बज रहे होंगे। मै हमेशा की तरह अपने फेसबुकिया कार्यक्रम में व्यस्त था। स्टेटस देखना,न्यूज़ पढ़ना,तस्वीरें देखने का काम शुरू था। तभी एकदम अचानक से श्रवण सर का एक फेसबुक स्टेटस मेरी आखों के सामने अा गया। उसमे लिखा था - मूड ख़राब है,कहीं घूमने का मन है ,कोई हो तो साथ आ सकता है।आगरा या हरिद्वार का प्रोग्राम है।

वैसे मैं अगले दिन यानी 22 तारीख को मांझी फिल्म देखने की सोच रहा था मगर इस स्टेटस के बाद मेरे मन में दूसरे ख्यालों ने भी उमड़ना शुरू कर दिया | फिल्म देखनी थी,बहुत मन था नवाज़ को इस किरदार में देखने का मगर आगरा घूमने के विकल्प ने मन में एक और विचार को जन्म दे दिया |ये सचमुच एक संयोग से कम नहीं था।मुझे करना कुछ और था मगर अब मैं कर कुछ और रहा था।मैंने यही सोचा कि मै कभी आगरा गया नहीं हूँ आजतक,अगर इसी बार सर के साथ चल लूँ तो फिर इसमें खामी ही क्या है ? ताज का दीदार भी हो जाएगा और साथ में सर के साथ खूब सारी बातें करने का मौका भी मिल जाएगा।

अब इस मामले में मैंने सर से पूछने की ठान ली |सर को सन्देश दे दिया मैंने कि मै तैयार हूँ आपके साथ चलने को, अगर आपको कोई परेशानी नहीं  हो तो ! सर ने भी मेरी उम्मीदों के मुताबिक हामी भर दी |उन्होंने मुझे सन्देश में कहा -तैयारी करो, चलते है | ताज का दीदार करके ही आते हैं |

अब बस थोड़े बहुत जरुरत के सामान और पैसों की जरुरत थी और हमारी यात्रा पक्की होने वाली थी। अब मैंने और सर ने यात्रा के मुताबिक पैसो का इंतज़ाम करना शुरू किया। थोड़ी देर बाद ये काम भी पक्का हो गया। अब हमारी मुलाक़ात सीधा नॉएडा सेक्टर 16 मेट्रो स्टेशन पर हुई। सर बाइक पर बैठे सेक्टर 16 पर मेरा इंटरज़ार कर रहे थे। सर ने मेरे आते के साथ कहा-बैठो गाड़ी में, चलते हैं बस थोड़ा ऑफिस का काम खत्म कर लूँ।मैं सर के साथ ऑफिस चल पड़ा। ऑफिस का काम खत्म करने के बाद ठीक रात के बारह बजे हम लोगों ने एक -एक कप चाय पी।चाय पीने से हमारी थोड़ी बहुत थकान जो थी वो भी रफ्फु-चक्कर हो गयी।

अब हम दोनों ने यात्रा की अंतिम तैयारी शुरू कर दी। थोड़े बहुत खाने-पिने के सामान हम लोगों ने लेकर रख लिए |  ठीक 1 घंटे के बाद हम लोगों को आखिरकार अब सफर पर निकलना था। सर ने कहा चलो अब रफ़्तार का असली मज़ा लेने के लिए तैयार हो जाओ | अपने आप को अच्छी तरह तैय्यार कर लो ताज़ा हवा के आनद के लिए ,यात्रा करनी है पूरी रात लगभग।

एक तो रात ऊपर से रफ़्तार का मज़ा, मन में बहुत उत्सुकता थी। बहुत कुछ सोच रहा था कि आगरा पहुंचकर क्या-क्या करूँगा क्या-क्या देखुँगा ? किस-किस से मिलने का मौका मिलेगा आदि। ताज के दीदार के साथ- साथ अब रफ़्तार का आनंद भी मिलने वाला था मुझे |मै बहुत खुश था सही मायनों में।

यात्रा की शुरुवात हुई। हम लोग अब सेक्टर 16 से सीधा नॉएडा एक्सप्रेसवे पर थे। ठीक-ठाक स्पीड थी बाइक की ! बातें करते करते हम लोगों चल रहे थे। थोड़ी ही देर बाद शुरूआती टोल आ गया|अब हम लोगों को टोल लेकर आगे जाना था। टोल की औपचारिकता हमने पूरी की और हम लोग आगे के लिए निकल गए | 200 किलोमीटर की यात्रा थी तो बातें तो बहुत होने वाली थी मगर सर ने बीच में ही गाने का प्रोग्राम भी जोड़ दिया |कहा गाने गाते है अब ! अब अच्छे -अच्छे गाने भी चल रहे थे और हम लोग एक्सप्रेस वे पर ठंडी हवा का आनद भी ले रहे थे |कभी सर गाने की शुरुवात करते तो कभी मैं ! नए-पुराने दोनों तरह के गाने हम लोग गा रहे थे |अब हल्का आराम करने के लिए हम बीच सड़क में ही बाइक किनारे कर थोड़ी देर रुके | हम लोग रुकर यही बातें कर रहे थे कि कितना आनंद आने वाला है पूरी यात्रा के दौरान ! सर ने कहा -यात्रा है भी तो 200 किलोमीटर की ,मज़ा तो आएगा ही ! अब हम लोगों ने दोबारा बाइक को थामा और निकल लिए | लगभग पौन घंटे की यात्रा के बाद हम लोग टप्पल टोल प्लाज़ा के पास पहुंचे। हम वहाँ थोड़ी देर रुकना था। रुक-कर हम लोगों ने एक बार फिर चाय का आंनद लिया। चाय का साथ दे रही थी महारानी आलू-पेटीज। हम लोग साथ ही चेहरे पर पानी के थपेड़े भी दिया इसी दौरान ताकि आगे रात भर जाग सके।पानी -पीने के साथ-साथ आज चेहरे को भी पानी से भिगोया जा रहा था।

वहां से फिर हम लोगों ने रफ़्तार से मस्ती करने की ठानी।एक बस वाले को कभी हम पीछे करते तो कभी वो हमारे बहुत नज़दीक आता मगर अंत तक हमलोग उसके आगे ही रहे।हमने कभी ये नहीं सोचा कि हमें किसी को पीछे करना है हम तो बस मज़े लेने के मुड़ में थे।सर वैसे बार-बार ये भी पूछते की कहीं नींद तो नहीं आ रही है,अगर नींद आ रही हो तो मैं गाडी रोकूँ मगर मुझे नींद कहाँ आती मैं तो खुश ही इतना था कि मेरी सारी नींद उस ख़ुशी में ही समा गयी थी। खैर, हम पूरी यात्रा के दौरान अब तक दो-तीन बार थोड़े-थोड़े समय के लिए रुके थे।

एक यात्रा कैसे हमें अनहोनी लगने लगी इसकी शुरुवात अब होने वाली थी।इसे कहना तो नहीं चाहता था मगर कह रहा हूँ।हम आगरा पहुँचने से थोडा ही दूर थे।सर के साथ गाने का आनंद हो रहा था तभी अचानक से हमें दिखा कि दो गाड़ियां बिखरी हुई अवस्था में हैं।बोरियां और ईंटें नीचे पड़ी है।इतना देखा ही था कि सर ने गाडी रोकी और हम वहाँ गए उतरकर ! उतरकर जो हमने देखा उसे देखकर तो किसी का कलेजा ही हिल जाए।खून ही खून उस सड़क पर बिखरा हुआ था।हम एक गाडी के पास गए तो देखा कि उस गाडी के अंदर एक आदमी बुरी हालत में पड़ा है।हम लोगों से एक बार तो उस आदमी का चेहरा ही देखा नहीं गया क्योंकि उसके चेहरे पर खून ही खून लगा था।वो बेहोशी की हालत में था दरअसल ! साथ ही गाड़ी से एक और चीखने की आवाज़ आ रही थी।हमें अब पक्का हो गया कि इस गाडी के अंदर दो लोग फंसे है।एक गाडी के अलावा वहाँ एक ट्रक भी सामने की तरफ ही खड़ी थी।इसी ट्रक की इस दूसरी गाडी से भिड़न्त हुई थी।ट्रक पर सवार लोगों के पैरों में चोट थी।अब हम ये सब कुछ देखकर थोडा डर गए थे।पसीनों से हल्का ही सही मगर हमारा शरीर भी भीगने लगा था।मगर खैर अपनी बात छोड़ते हुए हम लोगों ने फिर वहाँ जल्दी से जल्दी मदद बुलाने की शुरुआत कर दी।बात दो लोगों के जान से जुडी थी इसीलिए हम थोडा ज्यादा सक्रिय थे उस वक़्त ! हालाँकि वहाँ पर ट्रक पर बैठे लोगों में जो अभी ठीक अवस्था में थे वो भी मदद की बुलाहट कर रहे थे।

मदद के तौर पर सबसे पहले हम लोगों ने 100 नंबर पर कॉल किया। वहाँ से वही घिसी-पिटी सी आवाज़ आई कि फ़ोन व्यस्त है।हम थोडा झल्लये फिर हम लोगों में एम्बुलेंस सेवा को भी कॉल किया।वहाँ से भी वही व्यवहार देखने को मिला।अब हमारा भरोसा सरकारी चीजों से बिल्कुल उठ चूका था।उठे भी क्यों न जब हमें पता चल ही गया था कि यहां जब किसी को जरुरत हो तभी सरकारी चीजें अक्सर धोखा दे जाती है।यहाँ दो लोगों की जान खतरे में हैं और वहाँ उनका फोन व्यस्त है।क्या इसी लिए बनी है सरकारी व्यस्था।इसका जवाब सरकारी तंत्रो को जरूर ढूँढना चाहिए।खैर फिर जब हमें यमुना एक्सप्रेसवे की सर्विस का नंबर मिला तब हमने वहाँ संपर्क किया।सबके विपरीत हमें वहाँ से उचित जवाब की प्राप्ति हुई।वो लोग मदद के लिए अब आ रहे थे।वो 10 मिनट के अंदर वहाँ पहुँच भी गए।उनके आने के बाद धीरे-धीरे स्थिति काबू में आती गयी।हम लोगों से जितना भर सक हो सका हमें किया।इधर श्रवण सर ने इस एक्सीडेंट की सुचना अपने चैनल तक भी दे दी ताकि इस घटना की जानकारी सभी को हो सके और मदद आगे चलकर इन्हें और अधिक मिल सके।उन घायल लोगों को तुरंत एम्बुलेंस से अस्पताल ले जाया गया।वहाँ जो गाड़ियां बिखरी थी उन्हें किनारे किया गया।ये सब काम एक्सप्रेसवे सर्विस वालों ने ही किया।वहां बस हुआ ये गलत कि घटना के 1 घंटे बाद तक पुलिस का कोई नामो-निसान नहीं था।इसी बात की शर्म हम दोनों को थी कि आखिर ये क्यों होता है ? हम आज ऐसे देश में रहते है जहां कोई अगर मर भी रहा हो तो वहाँ कोई पुलिस नहीं आती।वो आखिर देर से क्यों आना चाहती है ? आखिर उन्हें किस बात के लिए इतने पैसें और इतनी इज़्ज़त दी जाती है ? ये सवाल हमारे मन में जरूर तैर रहे थे उस वक़्त मगर हमें ताज का दीदार भी करना था इसलिए हमें उस घटना वाले स्थान से आगे जाना पड़ा।वहाँ हालांकि अब स्थिति पूरी काबू में हो चुकी थी।हम वहाँ से करीबन साढ़े पांच बजे सुबह निकले।

आधे घंटे बाद सुबह 6 बज रहे होंगे कि हम ताजमहल के करीब पहुँच गए।हमने सोचा कि ताज का दीदार तो होगा ही उससे पहले चाय की एक-एक चुस्की से अपने आप को तरोताज़ा किया जाए।हमने ताज़ के पास ही एक टी स्टॉल पर चाय का आनंद लिया।ताज़ आते वक़्त तक हमने खूब सुध हवा ली थी इसकी ख़ुशी हम दोनों को थी।रात भर खुले में ठंडी हवा सोचकर ही खुश हो रहे थे हम दोनों।हम लोग फिर ताज का दीदार करने निकल ही गए।ताज के प्रवेश के पहले गाडी की पार्किंग और समान की सुरक्षा पक्की की हमने और तो और ताज़ का टिकट था 20 रुपये मात्र वो भी हमने लिया प्रवेश से पहले ! ये सब कुछ करने के बाद ठीक 8 बजे ताज़ के पहले गेट पर हम लोग खड़े थे।हमारी पहली तस्वीर खिंचाई वहीँ पर हुई।ताज़ के पहले गेट के ठीक आगे।

उस कार्यक्रम के बाद एक अद्भुत नज़ारा हमारे सामने थे।खूबसूरत ताजमहल।प्यार की एक बेशकीमती मिसाल।दुनिया के सात अजूबों में से सबसे पहला अजूबा।उसे देखते ही सबसे पहले हम दोनों के अलफ़ाज़ यही थे-वाह ताज़ ! क्या खूब है आपका रंग ! खूबसूरती का एक उत्कृष्ठ उदाहरण ! 

आज एक अलग ही ख़ुशी का एहसास मन में हो रहा था ताज़ को देखकर।जिस चीज़ या कहूँ जिस खूबसूरती को देखने की इक्षा बचपन से थी वो आज आखिरकार पूरी हो गयी थी।ताजमहल का पहला दृश्य जिंदगी भर के लिए मेरे मन में कैद हो गया था।मानो ऐसा लग रहा था जैसे दिन रात बस उस ताज़ को निहारता रहूं।ताज़ के आगे -पीछे सब कुछ बेमिसाल था।अब हमारे पास वक़्त की कमी नहीं थी तो इसलिए हमने तय किया कि हम ताज़ को बड़ी शिद्दत से देखेंगे।हम लोग वहाँ धीरे-धीरे घूम रहे थे।एक-एक चीज़ जो वहाँ हो रही थी उसे महसूस करने की कोशिश हम कर रहे थे।ताज़ का जर्रा-जर्रा हम निहार रहे थे।ताज़ के आगे लगा पानी का झरना भी वाकई शानदार था।ताज़ की खूबसूरती उस झरने के होने से और बढ़ी हुई मालूम पड़ती थी।लगभग बीस मिनट तक वहाँ घूमने के बाद अब हमने ताज़ के ही एक कोने पर बैठने का निश्चय किया।वहां तो हर जगह संगमरमर ही थी इसलिए सब लोग बैठे ही थे उस जगह पर ।वहां बैठने के थोड़ी ही देर बाद हुआ ये कि हमारी मुलाकात एक साधू से हुई या कहूँ एक साधू जैसे से हुई।हम लोगों ने उसे अपना परिचय दिया और उसने अपना।अब बातें शुरू हुई हमारे बीच।वो किस्मत और रेखाओं के बारे में ज्यादा जानता था इसलिए बार-बार बात को वहीँ मोड़े जा रहा था।वो अंक ज्योतिष का ज्ञान हमें बतलाना चाहता था।उसने इसके लिए पहले बहुत सी महाभारत और रामायण की कहानियां सुनाई हम लोगों को।उसने अपने बारे में बताया कि मैं सन्यासी हूँ,मैं अभी तक 11तीर्थ कर चूका हूँ और अभी ब्रम्हा कुमारी संस्थान से जुड़ा हूँ।उसने यही बताया था कि मैं बिहार के दरभंगा जिले का निवासी हूँ।मैं बिहार और नेपाल की सीमा में रहता हूँ।

बहरहाल मुझे तो ज्योतिष और महाभारत का ज्ञान नहीं था मगर सर ने उसकी हर बात का जवाब दिया और उसने डर नाम की चिड़िया से अवगत कराया।सर ने उससे यही कहा कि आज इंसान अगर ईश्वर की पूजा करता है तो उसके पीछे भी एक डर ही है।आज इंसान अपने बुरे कामों से बचने के लिए एक विश्वास को खड़ा करता है वो है ईश्वर।ईश्वर को इंसान डर के ठीक सामने खड़ा करता है।इसलिए भी जब इंसान डरता है तो वो सबसे पहले ईश्वर को ही याद करता है।सर के इस ज्ञान से वो भी आश्चर्यचकित था।उसने कहा आप भी बहुत बड़े विद्वानी मालुम होते थे।सर ने उलटकर यही कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है बस सब कुछ अनुभव है।वो इतना कहने सुनने के बाद भी हमें अंक ज्योतिष बताने लगा।उसने कहा कि अंक ज्ञान के मुताबिक मेरे भाग्य में सिर्फ लक्ष्मी ही लक्ष्मी है,मुझे कभी जिंदगी में पैसों का अभाव नहीं होगा।सर के बारे में उसकी भविष्यवाणी ये थी कि सर और कुछ नहीं बल्कि नरसिंह के एक अवतार है इस कलयुग में।सर के अंदर तर्क की शक्ति अत्यधिक है।हम दोनों उसकी इस बात से शुरू में आश्चर्यचकित थे।उसने बाकायदा अपनी गणितीय शक्ति के बाद ये सबकुछ हमने बताया था।वो रामायण के कुछ अनकहे किस्से भी हमें सुना रहा था।उससे हमारी बातचीत लगभग 2 घंटो तक होती रही।अंत में सर ने उससे यही पूछा कि आपकी शादी हुई है ? उसने कहा -हाँ हुई है और 2 बच्चे भी है।हम लोग ये सोचकर हैरान थे कि वो 2 बच्चों और अपनी पत्नी की भविष्य की चिंता किये बिना साधुगिरि कर रहा है।आखिर उसके 2 बच्चों का पेट अभी कौन पालता होगा ? सर ने जाते-जाते उससे यही कहा कि आप एक बार अपनी पत्नी और बच्चों के बारे में जरूर सोचियेगा।वो आपकी वजह से आज अकेलापन महसूस करते होंगे।

हम उस साधू से मिलने के बाद ताज का एक और अंतिम चक्कर लगा रहे थे।वहाँ हमें एक स्वदेसी नज़ारा भी दिखा।वहाँ कचडों को उठाने के लिए बैलगाड़ी का इस्तेमाल होता है अभी भी ! हम यह नज़ारा देख कर बहुत खुश हुए।ताज़ से अलविदा लेते-लेते हमारे पास बहुत सी अच्छी यादें थी।वो पहला ताज़ का नज़ारा,वो प्यारा झरना,वो भाग्य और भविष्य की बातें और भी बहुत कुछ।

अब जब हम ताज़ से निकले तब सामने ही एक ताज़ नेचर पार्क भी मौजूद था हमने सोचा कि ताज़ को देखने आये ही हैं तो यहां का नज़ारा भी ले ही लिया जाए।हम फिर उस पार्क की ओर ही मुड़ गए।वहां जाकर भी जो नज़ारा हमने देखा वो दंग करने वाला था।वहाँ ज्यादातर या कहूँ हमारे अलावा सब प्रेमी युगल ही थे।यहां का नज़ारा बहुत अच्छा था मगर ये पार्क युगलों के लिए ही था।यहाँ से ताज़ का नज़ारा वाकई दिल को छु लेने वाला होता है।ताज़ की गोद में इस जगह पर अपनी तस्वीर खिंचवाने के लिए यहाँ पर कई पॉइंट बनाये गए है।हमने भी इन पॉइंटों पर बैठकर खूब फोटोबाज़ी की।इसके अलावा हमने वहां दो-तीन तरह के पंछी देखे।वो पूरा पार्क जंगलों से भरपूर घिरा था।उस पार्क का कुल छेत्रफल 11 एकड़ था जो वाकई एक लंबी -चौड़ी जगह होती है।उस पार्क में हम सुस्ताने और अपनी प्यास बुझाने के लिए जब एक अंदर की ही दूकान पर गए तो वहाँ भी मनमानी का एक उदाहरण हमारे सामने था।हमने दुकानदार से एक जूस की बोतल मांगी।दरअसल हमें प्यास लगी थी और वहां पानी थोड़ी दुरी पर उपलब्ध तज तो हमने सोचा कि जूस से ही काम निकाल लिया जाए।बहरहाल उस जूस की कीमत जो उस बोतल पर लिखी थी वो थी 15 रुपये।मगर दुकानदार हमें कीमत बता रहा था 20 रुपये।हम ये सुनकर हैरान थे मगर हमने भी ठानी की हम उसे 15 रुपये ही देंगे।वो हमसे बहस किये जा रहा  था मगर हमारा साफ कहना यही था कि जब बोतल पर 15 रुपये लिख रखा है तो आखिर किस गणितीय फॉर्मूले से इसकी कीमत 20 रुपये होगी ? वो झूठे टैक्स का गणित हमें समझाना चाह रहा था पर वो हमारे सामने असफल ही हुआ।मैंने अंततः उसे 15 रुपये ही दिए।इसके अलावा आइसक्रीम खाने के वक़्त भी हमें ये मनमानी देखने को मिली।हम यही सोच रहे थे कि ये तो ट्रेन का सफ़र भी नहीं है जो कि थोड़ी बहुत मनमानी मजबूरी को देखते हुए सह ली जाए।यहाँ तो साफ़-साफ़ लुटने की व्यवस्था है।यहाँ तो न जाने कौन हमारे अलावा इन्हें टोकता भी होगा पैसों के लिए ? हमें दरअसल उसे 5 रुपये अधिक देने में कोई हर्ज़ नहीं महसूस होता मसलन वो मनमानी न कर रहा होता तो।

खैर हमने वहां पहुंचे और लोगों से इस पार्क के अनुभव भी लिए।सबको यह पार्क बहुत पसंद था।हमने वहाँ पर झूले का भी आनंद लिया।वो आनंद बचपन की याद तरोताज़ा कर रहा था।वो भी एक अविस्मरणीय छण ही था हमारे लिए! ताज़ के आस-पास हालाँकि बहुत ज्यादा विदेशी भी हमें नज़र आये।पार्क में भी वो मौजूद थे।खबर हमें ये भी मिली की कुछ देर बाद भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी भी यहाँ आने वाले है मगर ये सब करते -करते अब घडी में 2 बज रहे थे और हमें कड़ाके की भूख लग रही थी तो हमने सोचा कि अब तो पेटपूजा पहले बनती है बाकी सबकुछ बाद में ! हम वहाँ से फिर एक छोटे होटल में पहुंचे।वहाँ का खाना भी लाजवाब था।उस्ताद जी के हाथ की रोटियों का स्वाद तो कोई भूल ही नहीं और वो आलू-पालक की सब्जी आहआहआह ! सोचकर अभी मुँह में पानी आ रहा सोचिये उस वक़्त खाते हुए क्या महसूस किया होगा हमने ! अब वहाँ से खाना-खाने के बाद आगरा के लाल किले के बाहरी शैर पर निकले।लाल किले का नज़ारा भी भूल सकने वाला नहीं था।वो लाल सुर्ख रंग वाकई मन में बस गया था।

अब हमें आखिरकार लौट कर वापस नॉएडा की तरफ आना था।हमने खुद को उसके लिए भी तैयार किया।हमें फिर 200 किलोमीटर का एक हवादार सफ़र तय करना था।हम अब तैयार थे वापस जाने के लिए।हम आखिरकार वहां से चल पड़े।

खैर हम जा तो रहे थे वापस मगर हमारे साथ अब एक याद जुड़ चुकी थी,वो याद थी ताज़ की एक प्यारी सी याद।ताज़ के सफ़र में हमने कई खट्टी-मीठी यादों को समेत लिया था।कई लोगों से हमने इस दौरान बातचीत की थी।एक अनुभव एक सिख हम अपने साथ लेकर जा रहे थे। हमने ये तय किया था कि अगर कभी दोबारा मौका मिले तो हम ताज़ का दीदार जरूर करेंगे।वैसे मुझे मांझी फ़िल्म नहीं देख पाने का अफ़सोस जरूर रहा मगर ये यात्रा मेरे लिए मांझी फ़िल्म की तरह ही थी। " शानदार  जबरदस्त  जिंदाबाद  

Tuesday, August 18, 2015

दिल्ली में बिजली के दाम बढ़ाने के पीछे है बड़ा झोल! CAG indicts Delhi power DISSCOMS

नई दिल्ली। दिल्ली में बिजली के दाम बढ़ाने की तैयारी चल रही है। सरकार चाहती है, बिजली के दाम न बढ़ें। लेकिन बिजली कंपनियां अपने घाटे का रोना रोते हुए दाम बढ़ाना चाहती हैं। इसके पीछे क्या बिजली कंपनियां बड़ा झोल कर रही हैं? इसी झोल की पड़ताल के दौरान कई ऐसे तथ्य सामने आएं, तो चौंकाने वाले हैं। 

दिल्ली में मुख्य रूप से रिलायंस कंपनी की बीएसईएस यमुना, बीएसईएस राजधानी और टाटा की टीपीडीडीएल (एनडीपीएल) बिजली आपूर्ति कर रहे हैं। ये प्राइवेट कंपनियां बिजली की कीमतों में औसतन 19 फीसदी की वृद्धि चाहती हैं। ऐसा करने के पीछे बिजली कंपनियां तर्क देती हैं कि उनका खर्च काफी ज्यादा हो रहा है। जो वसूली की तुलना में कम है। बिजली कंपनियां वर्तमान बिजली दर में लगभग 19 फीसदी की बढ़ोत्तरी की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में पहुंच गई हैं। हालांकि दिल्ली विद्युत नियामक आयोग (डीईआरसी) ने निजी कंपनियों की घाटे की बात को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट में दिए हलफनामे में कहा है कि निजी कंपनियों ने अपने घाटे को जानबूझ कर बढ़ाया है। 

दरअसल, दिल्ली के बिजली उपभोक्ताओं को सस्ती बिजली और बेहतर सेवाएं देने के उद्देश्य से 2002 में दिल्ली विद्युत बोर्ड का विघटन करके बिजली आपूर्ति का काम निजी कंपनियों को दे दिया गया था। बिजली आपूर्ति करने वाली ये कंपनियां आज तक न तो दिल्ली से बिजली कटने को रोक पाईं और न ही बिजली की दरों में कोई कमी आई। यह कंपनियां उपभोक्ता हित के बजाए निजी हित में काम कर रही हैं। निजी बिजली कंपनियां लगातार घाटे का रोना रोकर बिजली दर में बढ़ोत्तरी कराती रही हैं। अब एक नजर इन बिजली कंपनियों के लगातार रोने की वजह रखरखाव और परिवहन में बिजली की बर्बादी के आंकड़ों पर डालेंगे, तो काफी कुछ सामने आ जाएगा। 

आंकड़े के मुताबिक साल 2002-03 में जब सरकारी कंपनियों के जिम्मे दिल्ली की बिजली थी, तो टोटल बिजली की बर्बादी की तुलना में अब कम बर्बाद हो रहा है। देखिए ये आंकड़ा..

बिजली बर्बादी की स्थिति

वर्ष            BSES यमुना      BSES राजधानी            टीपीडीडीएल
2002-03          61.9%            57                      51%
2013-14          21.04%          77o/o                   10.35%


ये आंकड़े साफ जाहिर करते हैं कि बिजली कंपनियां जिस बिजली बर्बादी(विपणन में अधिक लागत) का रोना रो रही हैं, वो 2002-03 के मुकाबले काफी कम हैं। ये वो आंकड़ा है, जो बिजली कंपनियों के घाटे की पोल खोलती हैं। हालांकि बिजली कंपनियों के इन आंकड़ों में 2013-14 के बाद जो सुधार आना चाहिए था, उसकी गति भले ही धीमी हो गई हो, लेकिन लगाम नहीं लग पाई। 2013-14 में BSES यमुना के बिजली की जो बर्बादी 21.4 फीसदी(15.66% स्वीकृत, टैरिफ ऑर्डर 31 जुलाई 2013 को स्वीकृत) थी, उसके 2015-16 में 17% रहने की उम्मीद है। वहीं, BSES राजधानी की बिजली बर्बादी का जो आंकड़ा 15.60 0/o(13.33% स्वीकृत, टैरिफ ऑर्डर 31 जुलाई 2013 को स्वीकृत)  था, उसके 2015-16 में 14.12% रहने की उम्मीद है। जबकि टीपीडीडीएल की बिजली बर्बादी का जो आंकड़ा 10.35 0/o था, उसके 2015-16 में 13.32% रहने की उम्मीद है। यहां गौर करने वाली बात है कि बीएसईएस की दोनों कंपनियों की बिजली बर्बादी जहां घटी है, वहीं टीपीडीडीएल की ज्यादा बिजली बर्बाद हो रही है। इसके पीछे विपणन में गड़बड़ियों को जिम्मेदार माना जा रहा है।

इस बर्बादी का हिसाब लगाते हुए डिस्कॉम ने बिजली कंपनियों के ऑपरेशन और मेंटिनेंस का जो हिसाब किताब तैयार किया है। उसमें टैरिफ कमीशन ने BSES यमुना के 363.33 करोड़ के खर्च को स्वीकृत किया था। जबकि BSES यमुना ने दावा किया कि उसने ऑपरेशन और मेंटिनेंस में 384.19 करोड़ रुपए खर्च किए। वहीं, 2015-16 के लिए ये आंकड़ा 456 करोड़ तक पहुंचने की बात कही जा रही है। इसी तरह से टैरिफ कमीशन ने BSES राजधानी के 500.11 करोड़ के खर्च को स्वीकृत किया है। जबकि BSES राजधानी का दावा है कि उसने ऑपरेशन और मेंटिनेंस में 611.04 करोड़ रुपए खर्च किए। वहीं, 2015-16 के लिए ये आंकड़ा 763.73 करोड़ तक पहुंचने की बात कही जा रही है। 

इसी तरह से तीसरी कंपनी टीपीडीडीएल के लिए टैरिफ कमीशन ने 413.51 करोड़ के खर्च को स्वीकृत किया है। जबकि टीपीडीडीएल का दावा है कि उसने ऑपरेशन और मेंटिनेंस में 541.75 करोड़ रुपए खर्च किए। वहीं, 2015-16 के लिए ये आंकड़ा 707.93 करोड़ तक पहुंचने की बात कही जा रही है। बिजली कंपनियां अपने इसी घाटे को पूरा करने के लिए सरकार से बिजली की दरों में 19-25फीसदी की बढ़ोतरी की मांग कर रही हैं। ऐसा न होने पर बिजली कंपनियां पिछले साल की तरह फिर से बिजली सप्लाई से हाथ खड़ी कर सकती हैं। 

इन कंपनियों पर काफी समय से निगाह रख रहे वरिष्ट रिटायर्ड नौकरशाह ने ऑफ द रिकॉर्ड जानकारी दी है कि बिजली कंपनियां अपने घाटे को बढ़ाने के लिए कई बड़े उपभोक्ताओं से मिले राजस्व का कोई लेखा-जोखा नहीं दिखा रही हैं। पश्चिमी दिल्ली में बने इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा को बीएसईएस राजधानी बिजली आपूर्ति करता है। लेकिन उससे मिले धन को वो खाते में नहीं दिखाती। इसी तरह दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन और दिल्ली जल बोर्ड से मिलने वाला बिजली राजस्व को भी बिजली वितरण कंपनियां अपने बहीखाते में दर्ज नहीं करती हैं।
बिजली कंपनियों के कुल खर्च की जानकारी इसीलिए दी गई, ताकि आपकी समझ में आ सके कि बिजली कंपनियों का क्या खर्च है। उनका दावा कितने का है, और जो खर्च वो दर्शा रहे हैं, वो कितना सही है। आपको बता दें कि डायरेक्ट्रोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस (डीआरआई) की जांच में ये बात सामने आई है कि बिजली बनाने वाली प्राईवेट कंपनियां लागत को जानबूझकर बढ़ाकर दिखा रही हैं। ऐसी कंपनियां बिजली उत्पादन में ज्यादा कोयले की खपत तक दिखा रही हैं। और ज्यादा दामों पर बिजली बेच रही हैं। 

बिजली के दामों को देखें, तो सरकारी और प्राइवेट कंपनियों के दामों में जमीन आसमान का अंतर है। यहां 1.2 रुपए प्रति यूनिट से 12.21 रुपए प्रति यूनिट तक की बिजली अलग अलग दामों में खरीदी जा रही है। एक तरफ जहां नेशनल थर्मल पावर कार्पोरेशन1.75 रुपए प्रति यूनिट से 6.15 रुपए प्रति यूनिट की दर पर बिजली दे रही है, तो एनएचपीसी 1.77 रुपए प्रति यूनिट से 12.21 रुपए प्रति यूनिट के बीच बिजली बेचती है। वहीं, सासन अल्ट्रा मेगा बिजली संयंत्र से बनी बिजली कहीं ज्यादा मंहगी है, जिसकी कीमत 1.96 रुपए से लेकर 11.96 रुपए तक है।
दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन बिजली बिल बढ़ोतरी के खिलाफ हैं। वो कहते हैं कि जो कंपनियां आंकड़ों में खेल कर लगातार बिजली के दाम बढ़ा रही हैं, उनकी बात को कतई नहीं माना जाना चाहिए। उन्होंने कहा, होना तो यह चाहिए था कि बिजली कंपनियों के नुकसान में जबरदस्त कमी आने पर बिजली कम्पनियों को जबरदस्त फायदा हुआ। जिसका फायदा आम जनता तक नही पहुंच रहा और बिजली कम्पनियां मालामाल हो रही है। इसलिए बिजली कंपनियों की बिजली के रेट में बढ़ोतरी की मांग को डीईआरसी को तुरंत खारिज कर देना चाहिए और बिजली की दरों में कमी की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि बिजली कंपनियों का यह कहना कि आपरेशन व मेन्टेनेन्स के खर्चे बढ़ रहे हैं इसलिए बिजली के रेट बढ़ाएं जाएं, सरासर झूठ हैं।

अगर सभी तथ्यों को मिलाकर देखें तो बिजली के दामों को बढ़ाने के पीछे बड़ा खेल साफ तौर पर दिखता है। दिल्ली सरकार सभी तथ्यों को देखते हुए बिजली के दामों को न बढ़ाने पर अड़ी है, लेकिन वो पूरी तरह से ऑडिट रिपोर्ट पर आश्रित है। ऐसे में अगर दिल्ली सरकार इस झोल को न पकड़ पाई, तो मार सिर्फ उपभोक्ताओं को पड़ेगी, जबकि बिजली कंपनियों की बल्ले-बल्ले होना तय है।


ये रिपोर्ट April 21, 2015 को लिखी गई थी। इससे पहले आईबीएनखबर.कॉम पर इसी से संबंधित एक खबर प्रकाशित हुई थी। उस खबर के बाद लंबा समय लग गया था इस रिपोर्ट को तैयार करने में। और डिस्कॉम का वर्जन न मिल पाने की वजह से अधूरी गई, तो ये रिपोर्ट पब्लिस नहीं कर पाया और आखिरकार रद्दी की टोकरी में डाल कर दूसरे प्रोजेक्ट्स में व्यस्त हो गया। दूसरी रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Tuesday, July 28, 2015

भारत मां के अमर बेटे हैं डॉ एपीजे अब्दुल कलाम

कई बेवकूफों के पोस्ट देख रहा हूं जो कलाम साहब के मुस्लिम होने को लेकर है। अरे मूर्खों, कलाम जैसे धर्मात्मा अरबों सालों में होते हैं। कलाम वर्तमान भारत देश के कृष्ण हैं। जिन्होंने हनुमान जैसा ब्रह्मचर्य निभाया। कृष्ण जैसी दूरदृष्टि। राम जैसा पुरुषत्व, भोले बाबा जैसा सेवक... तुम क्या समझोगे बेवकूफो।

वो समय याद करो, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने डीआरडीओ के बजट को बंद कर दिया था, तो इंदिरा ने कलाम साहब के हाथों सीक्रेट बजट सौंपकर देश के सुरक्षा मिशन का जिम्मा ही सौंप दिया... और अब हमारे पास पृथ्वी, जल, आकाश की सुरक्षा का चक्र है। स्माइल बुद्धा की स्माइल है। अपना जीपीएस(केवल सैन्य) सिस्टम है। हम आत्मनिर्भर हैं। वो अलग बात है कि देश के नेताओं की कभी हिम्मत ही नहीं हुई, खुलकर सामने आने की। सिवाय अटल बिहारी वाजपेयी के। जिनके एक फोन पर डॉ साहब ने राष्ट्रपति की कुर्सी संभाल 5 साल अपने छात्रों से दूर रहे। हालांकि बीच बीच में वो सबसे संपर्क करते रहे, यहां तक कि तिरुवनंतपुरम के जिस होटल में वो वैज्ञानिक के तौर पर रुकते रहे, उसके मालिक से भी फोन पर बात करते रहे।

तुम क्या जानों, हिंदू मुस्लिम। एक पाकिस्तानी अब्दुल कादिर हुआ, जिसने परमाणु बम को इस्लामिक बम बना दिया, तो दूसरे हमारे अपने अबुल पाकिर जैनुलआबदीन अब्दुल कमाल साहब रहे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया। हमें सर उठाकर जीने और हमारी संपूर्ण सुरक्षा का बंदोबस्त कर गए। कलाम साहब ने अक्षरधाम मंदिर का उद्घाटन किया, उन्होंने तमाम हिंदु साधु-संतों का आशिर्वाद भी लिया। वो कहां से मात्र मुस्लिम दिखे? न ... वो हमारी मां के सच्चे सपूत थे। डॉ साहब हमारी मां के सबसे महान बेटे थे। मेरे जैसे लाखों-करोड़ों की प्रेरणा हैं। हमारे जैसे लोगों के दिलों में हैं। वो कहीं नहीं गए, हमारे बीच फैल गए हैं।

महान आत्मा को विनम्र श्रद्धांजलि... अभी उनके अंतिम दर्शन करके लौटा हूं। पत्रकार होने के नाते नहीं, एकलव्य होने के नाते। उन्होंने हमेशा कहा कि पहली सफलता पर खुश मत हो जाओ, क्योंकि बाकी तुम्हारी असफलता पर हंसी उड़ाने को तैयार हैं।

Saturday, July 25, 2015

'आतंक के साए से निकले एक हीरो की कहानी', सुखविंदर सिंह उर्फ़ दयाल सिंह

नई दिल्ली। हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश। एक ही धरती के टुकड़ों से बन गए तीन देश। अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को तोड़ा, हिंदुस्तान ने पाकिस्तान को और पाकिस्तान तोड़ने पर लगा हुआ है हिंदुस्तान को। कश्मीर से लेकर पंजाब तक। इन कोशिशों में हिंदुस्तान ने लाख जख्म सहे। खासकर, खालिस्तान को लेकर देश ने बहुत कुछ खोया। ऑपरेशन ब्लू स्टार की धमक ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बलि ली, फिर लाखों लोगों को पंजाब छोड़कर भागना पड़ा तो दिल्ली में सिखों का नरसंहार हुआ। पर 21वीं सदी के आते आते सबकुछ शांत हो गया। आग सिमटकर धधकती ज्वाला बन गई, जिसकी छटपटाहट मौजूदा समय में भी दिखती है। इतना सबकुछ इसलिए लिखा, ताकि उस समय के माहौल को समझ सकें। क्योंकि, आईबीएनखबर.कॉम आज उस योद्धा की कहानी बताने चल रहा है, जिसके बारे में हर कोई जानता है, पर स्मृतियां धुंधली पड़ चुकी हैं।
ये कहानी उस योद्धा की है, जिसने खालिस्तान मूवमेंट में रहकर आतंक की कमर तोड़ दी। ये कहानी उस शेर की है, जिसने 350 से भी ज्यादा आतंकियों का शिकार किया। पर मौजूदा समय में अपनी ही जान बचाने और बचे खुचे परिवार की सुरक्षा की गुहार लगा है। जिसकी गुहार हाईकोर्ट ने सुन ली, सुप्रीम कोर्ट ने सुन ली। पर तथाकथित देशभक्त सरकारों ने नहीं सुनी। सरकार चाहे केंद्र की हो या पंजाब राज्य की। जिस हीरो की कहानी है, उसपर सरकार ने नहीं, बल्कि खालिस्तानी आतंकियों ने करोड़ से ज्यादा का नकद इनाम तो रखा ही है, साथ ही 2 किलो सोने का इनाम भी है। यही नहीं, विदेश में बसने की जिम्मेदारी के साथ ही भिंडरेवाला सम्मान भी मिलेगा। जिस शेर के शिकार पर इतना इनाम रखा है, उसका नाम है सुखबिंदर सिंह उर्फ़ दयाल सिंह। इंडियन लायंस का मुखिया, खालिस्तानी आतंकियों के लिए मौत का दूसरा नाम।

इस कहानी के नायक का नाम तो कई लोगो ने सुना होगा पर नायक की कहानी को कोई नहीं जानता। पर आईबीएनखबर की टीम ने न सिर्फ दयाल सिंह को खोज निकाला, बल्कि उनसे विस्तार से बातचीत भी की। दयाल सिंह की कहानी बॉलीवुडिया फिल्मों की कहानी से थोडा मिलती तो है पर यह कहानी कोई पर्दे की नहीं बल्कि किसी की जिंदगी का सच है। किसी पर्दे की कहानी की तरह इस कहानी एक्शन, इमोशन, प्यार सब कुछ है । बस यहाँ थोडा सा फर्क है, फ़िल्मी हीरो को अंत में सबकुछ मिल जाता है और असल जिंदगी में इस हीरो को आजतक इंसाफ न मिला। 
इस कहानी की शुरुआत होती है तब से, जब पंजाब में आतंकवाद कदम रख रहा था। निरंकारी और अखंड कीर्तनी जत्थे के बीच झडपे शुरू हो चुकी थीं। शुरुआत में ही 13 अप्रैल 1978 को क़रीबन 13 सिखों की मौत हुई। जिसके बाद हालात बिगड़ते चले गए और निरंकारियो के कत्ल शुरू हुए। इन कत्लों से पंजाब के आम लोगों का कोई लेना देना नहीं था वो अपने परिवार की सुरक्षा करना चाहता था। इसी बीच एक युवक 20 अप्रैल 1978 को दुबई रवाना हुआ जिसके पिता खुद पुलिस में थे। पिता ने पंजाब में शांति स्थापित हो तक के लिए सुखबिंदर को दुबई भेज दिया, जहां से वो 2 साल बाद वापस लौटा। पर तबतक पंजाब में आतंकवाद शांत होने की जगह और भी पैर पसार चुका था। 
सुखबिंदर सिंह के दोस्त उसे काका कहकर बुलाते थे। जो अक्सर दोस्तों के साथ कपूरथला के एक होटल 'डिप्लोमेंट बियर बार' अक्सर जाया करता था। जहां उसकी दोस्ती बार के मालिक के भाई मंजीत सिंह से हो गई। पर बार का मालिक एक बदमाश था, हालांकि इसके बारे में सुखबिंदर को कुछ भी पता नहीं था। मंजीत के भाई अजित सिंह को 1983 में पुलिस ने मार दिया। साथ ही मंजीत को भी जमकर पीटा, जिसमें उसके दोनों हाथ हमेशा के लिए बर्बाद हो गए। उसी मंजीत की देखरेख अस्पताल में काका किया करते थे, पर ये उसके लिए घातक सिद्ध हुआ। 

सुखबिंदर सिंह ने आग्रह करने पर कहानी को  विस्तार दिया और आगे बोलना शुरू किया। उन्होंने कहा कि मंजीत की देखरेख के बारे में पुलिस को भनक लग चुकी थी, जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने मंजीत सिंह के दो भाइयों जसवीर सिंह और बलवंत सिंह के बारे में जानना चाहा। उस समय हरमंदिर साहिब में आतंकी अपना डेरा डाल रहे थे। मंजीत के बचे हुए दो भाई जसवीर और बलवंत सिंह भी यहीं छुपे हुए थे। काका को पुलिस में इतना ज्यादा जलील किया था कि उनके मन में उग्रवाद पनप रहा था पर उन्होंने खुद को शांत रखा। काका भी पुलिस से बचने के लिए हरमंदिर साहिब में छुप जाया करते थे। पुलिस लम्बे समय से काका के पीछे थी । आपरेशन ब्लू स्टार से एक दिन पहले हरमंदिर साहिब से निकल गए और दिल्ली पहुंचे, जहां वो गिरफ्तार हो गए। यहां से उन्हें पंजाब की जेल भेज दिया गया। पर जिस अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार किया उन्होंने सुखविंदर को कहा, कि तुम कभी अपराध की राह पर जाओ तो मेरे पास आ जाना । सुखविंदर को जेल हुई करीबन दो साल जेल में रहने के बाद जब वो बाहर आये तो पुलिस ने उन्हें अपना मुखविर बनाना चाहा पर उन्होंने मना कर दिया। सुखविंदर पर नेशनल सिक्यूरिटी एक्ट लगाकर एक बार फिर करीबन एक साल के लिए जेल में डाल दिया गया।

सुखविंदर जेल से बाहर आये और अपनी नयी जिन्दगी शुरू की। फरवरी 1987 में सुखविंदर की शादी हुई, सुखविंदर की जिन्दगी में खुशियाँ का आगमन हुआ पर ये खुशियाँ पल भर की थी। करीबन दो महीने बाद ही उन पर टाडा एक्ट लगा दिया गया और कुछ महीने जेल में रहने के बाद सुखविंदर फिर से बाहर आ गए, जेल में रहकर सुखविंदर ने धर्म को जाना, कई धर्मग्रंथो को पढ़ा, गुरुवाणी पढ़ी।  सुखविंदर सिंह पर सभी मामले खत्म हुए।  उनके परिवार में एक छोटी बच्ची का आगमन भी हो चुका था। इस बीच सुखविंदर को याद आया कि उन्हें एक अधिकारी ने एक सलाह दी थी कि कभी अपराध के रास्ते पर जाने का मन हो तो मेरे पास आ जाना। सुखविंदर अपनी पत्नी और बेटी के साथ दिल्ली आ गए उन्होंने फिर कभी पंजाब न जाने का मन बना लिया। सुखबिंदर के मन में सपने थे कि 100 रूपये कमाऊंगा तो 5 रूपये की दाल, 10 रूपये का आटा आदि तो मै कम से कम 50 रूपये तो हर रोज़ बचा ही लिया करूँगा पर शायद किस्मत को क्या मंजूर था ये तो भविष्य के गर्भ में छुपा था।

पंजाब से एक पुराने मित्र मुकेश की शादी का निमन्त्रण सुखविंदर के पास पहुंचा। सुखविंदर पंजाब वापस नहीं जाना चाहता था पर दोस्तों की जिद के आगे झुकना पड़ा।मुकेश की शादी बड़े धूमधाम से हुई। सुखविंदर शादी के समारोह खत्म होने के बाद अपने घर कपूरथला आ गए थे, सुखविंदर की बहिन मुकेश की ही घर रुक गयी थी। Feb 8, 1988 शादी के समारोह के तुरंत बाद भिंडरावाल टाईगर फ़ोर्स के आतंकियों ने हमला किया, उस काण्ड में 7 लोगों की मौत हुई, सुखविंदर की बहिन जब दरवाजा बंद कर रही थी तभी सामने से एक आतंकी ने उन पर फायरिंग की उसे 8 गोलियां लगी पर हिम्मत न हारते हुए उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। सुखविंदर जब मुकेश के घर पहुंचे तो आँखों के सामने लाशो का ढेर पाया।आंगन खून से लथपथ था।  आँखों के सामने दोस्त की लाश थी जिसकी शादी की शहनाई कुछ पल पहले ही थमी थी। यहीं से सुखविंदर सिंफ उर्फ काका आतंकियों से लड़ने निकल पड़ा। हालांकि उसके पास न तो हथियार खरीदने के पैसे थे, न ही जीवन चलाने के लिए। ऐसे में सुखबिंदर ने दिल्ली के एक ट्रैवल एजेंट से मदद लेने की कोशिश की, पर उसने सुखबिंदर को गिरफ्तार करवा दिया। उसके साथ 2 और दोस्त भी थे। तीनों को दिल्ली के तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। जहां विरोध स्वरूप सुखबिंदर ने खाना-पीना छोड़ दिया। पर फल खाते रहे। जिसकी वजह से तिहाड़ के अन्य बंदी उसे फलहारी बाबा कहने लगे। खैर, 6 महीने बाद 1989 में जेल से बाहर आये, माता पिता ने उनकी जमानत करवाई । 

तिहाड़ से रिहाई के बाद सुखविंदर पंजाब आ चुके थे और उनका एकमात्र उद्देश्य खालिस्तानी आतंकियों का सफाया रह गया था।  यहाँ वो अपने पुराने दोस्तों से मिले और कुछ दिन बाद ही सुखविंदर की मुलाकात हरमिंदर सिंह संधू से हुई और फिर सुखविंदर सिंह 'खालिस्तान कमांडों फ़ोर्स' के लेफ्टिनेंट जनरल बने। All-India Sikh Students Federation (AISSF) के जनरल सेकेट्री हरमिंदर सिंह संधू उन 21 लोगो में से थे जिन्हें ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर से जीवित पकड़ा गया था। 5 साल जोधपुर जेल में सज़ा काट चुके हरमिंदर ने सुखविंदर को एक अहम् जिम्मेदारी दी । सुखविंदर को लता मंगेशकर का अपहरण करना था ताकि जेल में बन्द सभी खालिस्तानी समर्थको को छुड़वाया जा सके। दरअसल इस अपहरण की स्टोरी के असली सूत्रधार पूना की जेल में बन्द हरजिंदर सिंह और सुखदेव सिंह सुक्खा थे जो श्रीधर बेद्धय की हत्या के आरोप फांसी की सज़ा पा चुके थे। सुखविंदर सिंह ने इस बड़े प्लान की सूचना CRPF के डीईआईजी को दे दी जिसके बाद आतंकियो का बड़ा प्लान नाकाम हुआ। 
इस बीच हरमिंदर साहिब में रहने की वजह से उनकी पहचान कई लोगो से हो चुकी थी जिस कारण उन्हें खालिस्तानी कमांडो फ़ोर्स में आसानी से जगह मिल गयी। अब सुखविंदर ने 1990 में आतंकियों को मारने का अलग ढंग अपनाया, जहां वो पहले को आतंकियों को समझाते, पर जो न समझते वो उन्हें पकड़वाया। कई आतंकी तो मुख्य धारा में आ गये और पुलिस मे मुखविर बन गए । पर जो नहीं समझते उन्हें धीरे धीरे सुखबिंदर मौत के घाट उतारने लगे। धीरे धीरे यह चलता रहा । खालिस्तानियो को लगा यह पुलिस क़ी साजिश है और पुलिस से उनका टकराव बढ़ गया। सुखविंदर सिंह नहीं चाहते थे कि यह टकराव और ज्यादा बढ़े। पर तभी अचानक से एक संगठन सामने आ गया जिसने इन लोगो को मारने का ज़िम्मा अपने सर ले लिया। एक सफेद काग़ज़ पर स्केच से तिरंगा झण्डा बना था जिसके ऊपर संगठन का नाम था 'इंडियन लॉइन्स'। कागज़ पर खालिस्तानी आतंकियो को मारने की ज़िम्मेदारी लेते हुऐ नीचे एक नाम था 'दयालसिंह'।

खालिस्तानी समर्थकों और पुलिस में इस नाम को लेकर अफरा तफ़री मच चुकी थी । इस बीच आतंकवादियों को एहसास हुआ कि परगट सिंह ही दयाल सिंह है और उन्हें परगट को गोली मार दी । परगट सिंह भी सुखविंदर सिंह के दोस्तों में एक थे । सुखविंदर सिंह खुलकर सामने आये और एलान किया कि मैं ही दयाल सिंह हूँ।  इस खुले ऐलान के बाद सुखविंदर के पीछे सभी खालिस्तान समर्थक संगठन मारने के पड़ गए।1992 में सुखविंदर के घर पर हमला हुआ पर वो घर पर नहीं थे, उस हमले की सुखविंदर की माँ और बहिन की मौत हो गयी। आज सुखविंदर पर 2 करोड़ रूपये का इनाम है और आपको आश्चर्य होगा कि यह इनाम किसी सरकार ने नहीं आतंकवादियो ने रखा हुआ है।
पंजाब में आतंक खत्म होने के बाद 1994 में सुखविंदर ने सरेंडर कर दिया, कुछ समय के लिए उन्हें जेल हुई और सभी मामले निपटाकर जेल से बाहर आये। सुखविंदर को आज भी खालिस्तानी आतंकी संगठन तलाश रहे हैं, आज भी खालिस्तानी समर्थक संगठन द्वारा सुखविंदर का जिक्र होता है। सुखबिंदर की मानें, तो उन्होंने अपने जीवन में 350 से ज्यादा आतंकियों को या तो मौत के घाट उतारा, या पुलिस के हवाले किया। हालांकि ये सभी रिकॉर्ड में मरे हुए दिखाए जा चुके हैं।
पंजाब पुलिस के डीजीपी रह चुके एसएस विर्क भी फोन पर सुखबिंदर सिंह उर्फ दयाल सिंह के दावों की पुष्टि करते हैं। हालांकि उन्होंने फोन पर ज्यादा बातचीत से इनकार कर दिया, क्योंकि खालिस्तानी आतंकियों से संबंधित ये मुद्दा बेहद संवेदनशील है। 

इन बीच के सालों में सुखबिंदर सिंह उर्फ काका उर्फ दयाल सिंह छिपकर रहे। पर उन्हें लगा कि अब बाहर आना चाहिए, तो वे आए। ऐसे में उनके जीवन पर खालिस्तानी आतंकी हमेशा खतरा बनकर रहे। सुखबिंदर ने इस बीच हाईकोर्ट में अपनी सुरक्षा को लेकर केस दाखिल किया, जिसमें कोर्ट ने उन्हें सुरक्षा देने का आदेश दिया। पर ये सरकारी ढुलमुल रवैया ही है कि यहां आतंकियों को सुरक्षा मिलती है, पर आतंकियों का सफाया करने वाले को दुत्कार। इसके बाद, सुरक्षा को लेकर सुखविंदर ने एक लम्बी अदालती लडाई लड़ी जो काफी दिलचस्प है और 2013 में उन्हें सुप्रीमकोर्ट के ऑर्डर हुआ कि सुखविंदर को सुरक्षा प्रदान की जाए पर इन सरकारों ने इस पर गौर नहीं किया। इस राजनीति और धर्म ने ने मिलकर पंजाब को बर्बाद किया जिसकी सज़ा आज भी सुखविंदर भुगत रहे हैं। सुखविंदर को आज भी सुरक्षा सुरक्षा के नाम पर एक गार्ड दे दिया गया है, सोचिये जिस व्यक्ति के सर पर 2 करोड़ का इनाम हो क्या उसके दुश्मन मामूली होंगे? क्या उसकी सुरक्षा एक गार्ड कर पाएगा ? दरअसल पंजाब अकाली-बीजेपी को उन लोगो को खुश रखना है जिनके मन में आज खालिस्तान के प्रति लगाव है और खालिस्तान के दुश्मन सुखविंदर सिंह दयाल सिंह काका को सुरक्षा देकर वो अपना वोट नही खोना चाहतें। हालांकि सुखविंदर ने बातचीत में बताया कि उन्हें अपनी सुरक्षा नहीं चाहिए बल्कि वो अपने परिवार के लिए सुरक्षा चाहतें हैं, जो आतंक के साये पर जी रहे हैं। 

सुखविंदर को मोदी सरकार से उम्मीदें हैं कि वो उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाएगी ताकि जों परिवार गुमनाम बना हुआ है वो अपनी जिन्दगी ख़ुशी से जिए उसकी बेटियां पढ़ सकें। अपने माता पिता का नाम रोशन कर सकें। 
सुखबिंदर से और भी बातचीत हुई, कुछ भविष्य को लेकर भी।
बातचीत के इन अंशों छापने का मकसद सिर्फ इतना ही है कि हम सुखबिंदर सिंह उर्फ़ दयाल सिंह की अनकही कहानी को दुनिया के सामने ला सकें। वैसे, मौजूदा समय में सुखबिंदर की सुरक्षा को लेकर जो मांग है, जिसे सुप्रीम कोर्ट तक मान चुका है, उससे सरकारें दूरी बनाकर क्यों चल रही हैं ये समझ से परे है।
ये पूरी कहानी संपादित होकर आईबीएनखबर.कॉम पर प्रकाशित हो चुकी है। असंपादित कहानी को प्रकाशित किया गया है। संपादित अंश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...

Sunday, July 12, 2015

बारिश और लड़का: राणा यशवंत

नौवीं में जब था तभी दिल्ली आ गया था सर. पिताजी से खूब झगड़ा हुआ था, बहुत पीटा था उन्होंने. १४ साल की उम्र में ही बागी हो गया. घर छोड़ा और दिल्ली की जो पहली ट्रेन मिली उससे निकल लिया. पिछले चार साल से उसको जानता हूं लेकिन यह पहली बार था कि उसने अपनी जिंदगी का इतनी दूर का हिस्सा खोल रहा था. मुझे तनिक भी अंदाजा नहीं था कि इतनी बारिश में भी वो आ जाएगा. सुबह दस बज रहे थे और बारिश इतनी तेज की घर की बालकनी से सामने का ब्लॉक धुंधला दिख रहा था. फोन बजा तो मैंने अपने अंदाज में कहा – हां हीरो बोलो. सर घर के बाहर खड़ा हूं. अभीतक बस मेरा अनुमान ही था लेकिन आज सचमुच लगा कि वो जुनूनी है. दो रोज पहले फोन आया था- सर कुछ प्लान है, साझा करना चाहता हूं. देखो समय की तंगी रहती है, तुम रविवार को सुबह दस बजे आ जाना बात कर लेंगे – कहकर मैंने फोन काट दिया था.

उसकी बातों में मेरी दिलचस्पी बढने लगी थी. तुम दिल्ली में आकर कहां रहे और किया क्या- मैंने अपनी बात जोड़ी. सर मौसी के लड़के यहीं दिल्ली में रहते थे उनके पास रहने लगा. थोड़े ही दिनों बाद किराने की एक दुकान पर नौकरी लग गयी. सेठ आठ सौ रुपए देता था. तब घर के किराए के पांच सौ रुपए देने होते थे. साझेदारी में मेरे हिस्से सौ रुपए आते थे. कुछ महीनों बाद दूसरे सेठ ने बुला लिया. चौदह सौ रुपए देता था. अब कुछ पैसे मां को घर भेजने लगा था. दुकान से लौटकर कंप्यूटर सीखने लगा. कुछ समय बाद एक मददगार मिल गया. उसकी मदद से धीरे धीरे मेरे पास दस सिस्टम हो गए और मैंने साइबर कैफे खोल दिया. बड़े भाई को बुला लिया था. उनको कैफे संभालने को दे दिया. इस दौरान गांव के स्कूल से दसवीं और ग्यारहवीं पास कर आया. पढने लिखने में बचपन से ही ठीक रहा इसलिए नंबर भी बहुत अच्छे आएं. कहां के हो- यह पूछते समय मुझे पहली बार लगा कि बताओ इतने सालों में यही नहीं जान पाया कि किस जिले का है. २०११ का शायद सितंबर का महीना था. एक मित्र का देर रात फोन आया. अरे सर प्रणाम प्रणाम. सुनिए ना. जरा ठीक से सुनिएगा. अपना एक बच्चा है. और वो भी ब्राम्हण बच्चा है. ठाकुर साहब लोगों को तो वैसे भी कुछ ना कुछ ब्राम्हणों के लिए करना ही चाहिए. बहुत जरुरतमंद है. आपको नौकरी देनी होगी. इसतरह से यही एक आदमी है जो मुझसे बात करता है. पूरे अधिकार के साथ. लोगों के लिये बेहद अनगढ, उद्दंड, मुंहफट और बदतमीज लेकिन मैंने उसमें अक्सर बनावटीपन, फरेब, खुदगर्जी और हवाहवाईपन से परे एक ठेंठ और टटका आदमी देखा. खैर, मैंने कहा – कल दोपहर बाद भेज देना. इस लड़के से पहली मुलाकात मेरे दफ्तर में चार साल पहले हुई. मैंने नौकरी दे दी लेकिन बात कभी कभार ही हुआ करती. हां काम देखकर मुझे इतना समझ आ गया था कि आगे अच्छा करेगा. आज कर भी रहा है. 

सर सुल्तानपुर का हूं. गांव का नाम डेरा राजा है. मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा. बाहर बारिश अब भी उतनी ही तेज थी. दिल्लीवाले ऐसे मौसम के लिये तरसरते रहते हैं. लेकिन खबरों की दुनिया के लोग दिल्ली में जाम और जलजमाव को लेकर एमसीडी और सरकार के पीछे तेल पानी लेकर पड़े रहते हैं. देरा या डेरा – बारिश की आवाज के चलते मुझे सुनने में थोड़ी दिक्कत हुई तो मैंने पूछा. नहीं सर डेरा- उसने जवाब दिया. दरअसल, हमारे यहां एक राजपरिवार है. उसने ही ब्राम्हणो को जमीन देकर गांव बसाया. राजा का डेरा यहीं था तो हो सकता है लोग राजा का डेरा या डेरा राजा कहने लगे हों और बाद में यही नाम हो गया हो- डेरा राजा. वैसे, अब जो राजा हैं उनकी कोई औलाद है नहीं. इसलिए, यह आखिरी पुश्त ही है. मैंने जब छानबीन की थी तो पता चला कि १२ सदी से यह राजपरिवार है. अब आठ सौ साल बाद यह अपने आखिरी पड़ाव पर है. धीरे धीरे अपनी बात वो मेरे सामने रखता रहा . बार बार गीले बालों में हाथ फेर रहा था, अपनी हथेलियां रगड़ रहा था और कॉफी का कप उठाकर चुस्कियां ले रहा था. एक बार धीरे से कहा- सर कॉफी मस्त है. मेरी नजर उसके गीले कपड़ों पर थीं जो धीऱे धीरे सूख रहे थे. हां तो फिर क्या हुआ. तुम ११ वीं १२ वीं कर गए तो क्या किया- मेरे भीतर शायद यह जानने की अकुलाहट बढ रही थी कि किस-किस तरह के हालात से होकर लड़के मीडिया में आते हैं. इन्हीं के चलते गांव देहात और आम आदमी की हालत को खबर में ठीक से पकड़ा-समझा जाता है. वर्ना एक जमात अब आ रही है जो पैडी और व्हीट से नीचे जानती नहीं और जेनिफर लोपेज-लेडी गागा से ऊपर कुछ समझती नहीं . यह जमात आनेवाले दिनों में पत्रकारिता के लिये एक खतरा होगी. मेरे जेहन में यह बात उमड़-घुमड़ रही थी कि उसने खुद को थोड़ा संभालते हुए कहा – सर बस इंटरनेट कैफे से कुछ आ जाता था और मैं कुछ टाइपिंग वाइपिंग का काम करके कमा लेता था. घर चल जाता था. २०११ में जब बीकॉम कर लिया तब आपके पास भेजा गया था. मां, भाई और बहन को साथ रखने लगा था. इसलिए महीने की आमदनी का फिक्स होना जरुरी था. आपने नौकरी दे दी तो जिंदगी पटरी पर आ गई. उसके बाद तो लोग खुद बुलाकर नौकरी देते रहे. उसने अपने आप को मेरे सामने धीरे धीरे ही सही लेकिन पूरा खोल दिया था. 

वैसे मुझे यही लगता रहा कि आजकर की नई पीढी की तरह – मस्तीखोर, बिंदास और बेलौस तबीयत का है . लेकिन इस घंटे भर की बातचीत में मेरी राय पूरी तरह से बदल चुकी थी. बीच बीच में मैंने उसके उस प्लान पर भी अपनी राय रखी जो वो लेकर आया था. लेकिन रह रहकर उसकी जिंदगी में घुसपैठ करने के लोभ से खुद को रोक नहीं पा रहा था. टुकड़ों में ही सही, उसने अपना सारा सच सामने रख दिया था. उसकी कमीज लगभग सूख चुकी थी लेकिन जींस अब भी गीली थी. सर नौकरी मजबूरी है. ना करुं तो परिवार नहीं चल सकता. मां, बहन, भाई साथ रहते हैं. पिताजी को भी यहीं रखा है लेकिन अलग. उनका खर्च भी मैं ही उठाता हूं. लेकिन सर अपनी मर्जी का कुछ करना चाहता हूं. यह वो नहीं है जिससे इस देश समाज का कुछ बनता है. जहां आप काम करते हैं वहां कुछ ऐसा वैसा करना चाहें तो ऊपरवालों को लगेगा कि इसके पर निकल आए हैं. दो चार दिन में चलता कर देंगे. उसने निकलने के लिये सोफे से उठते हुए कहा.

मुझे लगा शायद इसी भड़ास ने उसको आज मुझतक इस बारिश में आने को मजबूर किया है. हमारे पेशे में एक जमात है जो लीक से हटकर कुछ करना चाहती है. कुछ जिसका समय के पैमाने पर मतलब निकल सके. लेकिन रोटी दाल की मजबूरियों ने जोखिम उठाने की हिम्मत चाट रखी है. एक आग बार बार भड़कती है और फिर ठंडी पड़ जाती है , कुछ दिनों बाद फिर भड़कने के लिए. उसके भीतर भी मैंने आज वही आग देखी. उसको विदा करते समय कई सवाल दरवाजे खड़े रहे, जिनमें एक सवाल यह भी कि उसने अपने पिताजी को मां से अलग क्यों रखा है. वो अपनी बाइक पर फिर बारिश के बीच था. सामने के ब्लॉक अब भी धुंधले थे. बस वक्त डेढ घंटे आगे निकल चुका था, कभी नहीं लौटने के लिए.

(वरिष्ठ पत्रकार राणा यशवंत जी के फेसबुक वाल से। मूल पोस्ट यहां देखने के लिए यहां क्लिक करें)

Wednesday, July 1, 2015

हां! बोझिल है जिंदगी

(उसकी खींची किसी तस्वीर का हिस्सा।
शायद यही है जिंदगी)
बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मैं पढ़ रहा हूं। सबको पढ़ता रहूंगा। फिलवक्त, किस्सागोई में खोया हुआ हूं।

काश, कोई आए। अपनी मिठास भरी आवाज से मन में बस जाए। तब सारी किस्सागोई छोड़कर उसी में खो जाउंगा। तकतक, किस्सागोई में उलझा रहूंंगा। इंतजार ताउम्र करूंगा। उसके आने का, जिसने कभी ऐसा वादा किया ही नहीं।

कई बार जिंदगी में हलचल मचाने आई, रोमांच से सराबोर कर कहीं ओझल हो गई। सुना है वो सुदूर किसी शहर में जी रही है, वक्त बेवक्त याद कर। यही मेरे प्रेम की सफलता है। किसी और के प्रेस से प्रेरित नहीं हूं, बस आवाज जो आई, उन्हें शब्दों में ढाल दिया।

पता है, बोझिल है ऐसा लेखन भी। पर, उसके जैसा जादू मुझमें नहीं हैं। बोझिल करके भी किसी को कुछ नहीं कहने दूंगा। हां, इसीलिए इस पोस्ट को बोझिल बना दिया। पर मेरा प्रेंम बोझिल नहीं है। वो तब भी सहज था, सरल था, अब भी सहज है, सरल है। हां, वही नहीं समझ पाती।

वो समझे भी तो क्यों? गलती तो मेरी ही है। जो कभी कुछ कह नहीं पाया। कहा भी, तो काफी देर हो चुकी थी। वैसे गलती उसकी भी थी, उसने समझा भी, तो काफी देर हो चुकी थी। आस कुछ खास नहीं, बस इतनी सी है। वो खुश रहे, पर कोशिश करके भी न खुश रह पाए। तो लौट आए। उसके लिए कभी देर नहीं होगी। पर हां, मैं बोझिल न हो चुका होऊं।

Wednesday, April 22, 2015

जंतर-मंतर LIVE: महज गजेंद्र नहीं, ये तो समूचे परिवार की हत्या है!

नई दिल्ली। आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान एक गजेंद्र सिंह ने हजारो लोगों के सामने आत्महत्या कर ली। गजेंद्र ने दिल्ली के सीएम, डिप्टी सीएम, कैबिनेट मंत्रियों समेत हजारो लोगों के सामने अपनी जान दे दी, और मीडिया समेत(उसमें मैं खुद) सभी लोग तमाशा देखते रहे। गजेंद्र के लटकने के समय और बाद भी भाषणबाजी चलती रही, भीड़ के चलते कोई हिल भी नहीं पा रहा था, लेकिन गजेंद्र संभवत: उसी समय अपनी आखिरी यात्रा पर निकल चुके थे।

जब परिवार के मुखिया की मौत होती है, तो सिर्फ वही नहीं मरता। गजेंद्र के साथ मर गया उसका परिवार। गजेंद्र के साथ ही मर गया उसका बूढ़ा बाप। गजेंद्र के साथ ही मर गई उसकी पत्नी। गजेंद्र के साथ ही मर गए उसके 3 बच्चे। गजेंद्र के साथ ही मर गई, उन सभी की इंसानियत, तो उसकी मौत पर तमाशा देखते रहे। गजेंद्र के साथ ही मर गई, वो उम्मीद। जिस उम्मीद में वो और उसका परिवार जी रहा था। गजेंद्र के साथ ही मर गए उसके परिवार के वो सपने, जो उन्होंने फसल सही होने या खराब होने पर भी पाल रखे थे। गजेंद्र के साथ ही मर गया वो संघर्ष, जो गजेंद्र जीते जी अपने परिवार को पालने के लिए करता। क्योंकि अब कुछ बचा नहीं।

आम आदमी पार्टी की रैली में जो कुछ भी हुआ, वो दुख:द है। आप वाले इतनी मोटी चमड़ी के निकलेंगे, उम्मीद नहीं थी। गजेंद्र सबके सामने पेड़ पर बैठा रहा। लेकिन जब विश्वास ने कहा कि उसे पुलिस वाले उतारे। जल्दी उतारे, पेड़ पर कैसे चढ़ गया किसान, जैसे शब्दों के वाणों से दिल्ली पुलिस को वेधना शुरू किया, तो किसान ने घबराहट में आकर अपने ही गमछे को गले और पेड़ से बांधकर कूद गया। जिसकी वजह से लटकते ही उसकी गर्दन टूट गई, और जीभ निकल आई। जबतक 4-5 लोगों ने उसे उतारा, तभी शायद वो दम तोड़ चुका था।

किसान गजेंद्र को पेड़ से उतारने वाला व्यक्ति वहीं, पेड़ पर ही घबराकर होशो-हवास खो बैठा। हालांकि उसके साथियों ने उसे पकड़ा और बचाया। लेकिन इस दौरान आम आदमी पार्टी की रैली होती रही। विश्वास बोलते रहे, मनीष बोलते रहे, केजरीवाल बोलते रहे। दिल्ली पुलिस को ललकारते रहे, शिक्षकों को ललकारते रहे, केंद्र सरकार को ललकारते रहे। रैली के बाद उसकी मौत पर रोकर क्या होगा सरकार?

अब तमाम नेता घड़ियाली आंसू रोयेंगे। छाती पीटेंगे। हाय हाय करेंगे। राहुल गांधी गजेंद्र की मौत के बाद आरएमएल अस्पताल पहुंचे, तो कांग्रेसी नारे लगा रहे थे, राहुल तुम संघर्ष करो। हम तुम्हारे साथ हैं। ऐसे ही अन्य दलों के कार्यकर्ता अब नारे लगाएंगे। लेकिन जो अबतक संघर्ष कर रहा था, उसका संघर्ष तो दम तोड़ चुका है। वो तो दुनिया से ही कूच कर चुका है। क्या कागज के चंद टुकड़े उसकी जिंदगी वापस ला पाएगी? कमी जितनी राजस्थान के स्थानीय प्रशासन की है, उतनी ही शायद केंद्र सरकार की भी हो। लेकिन जो संवेदनहीनता जंतर मंतर पर हम सबने बरती, वो कभी फिर न बरती जाए। बस यही उम्मीद करता हूं। जिस तरह उसे पेड़ पर चढ़े घंटे भर बीत चुके थे, और उसकी धमकी को लोगों ने हल्के में ले लिया था, वैसे ही किसी परेशान की आवाज को हल्के में न लिया जाए। वर्ना लोग मरते रहेंगे। उनके साथ ही मरता रहेगा, उनका सपना। उनके परिवार का सपना। उनके यतीमों का सपना। और दागदार होती रहेगी जिंदगी।

Thursday, April 9, 2015

हिन्दयुग्म से मसाला चाय के साथ धूप के आईने में: सालभर पुरानी समीक्षा

03 मई 2014, स्थान: दिल्ली

पुस्तकें हमारी जीवन का अभिन्न हिस्सा है। बचपन से लेकर अबतक हमेशा इनमें खोए रहना ही पड़ता है, फिर जब हिंदी की किस्सा-कहानियों की बात हो तो ये चर्चा और भी जरूरी हो जाती है कि मार्केट में क्या नया है, जो पढ़ने लायक होने के साथ ही खुद को जगाए भी। हाल ही में प्रगति मैदान में लगे विश्व पुस्तक मेले की रौनक का ही हिस्सा मैं भी बना। हिस्सा क्या कहें, किताबी दुनिया में खोए रहने वाले व्यक्ति को अगर लाइब्रेरी में छोड़ दिया जाए तो फिर जीने के लिए किसी और चीज की जरुरत ही नहीं होती। ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी है।
यूं तो पुस्तक मेले से ढ़ेर सारी किताबें लाया, लेकिन सच कहूं तो कुछेक किताबें छोड़कर सब के सब उम्मीदों पर खरे उतरने से कोसों दूर रही। चलिए आपको बताता हूं अपनी पसंद की दो-तीन किताबों के बारे में।
हर जगह से किताबें लेने के बाद हिन्दयुग्म प्रकाशन की स्टाल पर पहुंचा। साहित्य प्रेमी होने की वजह से कई मित्र भी मिले, लेकिन सच कहूं तो बजट के लिहाज से और मेरे अपने टेस्ट के हिसाब से बेस्ट किताबें यहीं मिली। आगे दो किताबों की चर्चा करुंगा। हिन्दयुग्म प्रकाशन की किताबें पहले भी पढ़ चुका हूं और इत्तेफाक देखिए, कि जो दो किताबें मुझे पसंद आई, वो उन लेखकों की दूसरी ही किताब है। पहली है किशोर चौधरी की 'धूप के आईने में' और दूसरी डी.पी.दुबे की 'मसाला चाय'। इस लिस्ट में एक और नाम जोड़ना चाहूंगा, नए नवेले लेखक फ्रेंक हुजूर की 'सोहो-जिस्म से रूह का सफ़र को'।
'धूप के आईने में'
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पहली चर्चा किशोर से शुरू करें तो 'धूप के आईने में' राजस्थानी पृष्ठिभूमि पर आधारित है, जिसमें वर्तमान की हालत, बीते हुए कल का अक्स और आने वाले समय को लेकर एक अनकही सन्देश है। इसमें ऐतिहासिकता है तो संघर्ष भी। प्रेम है तो नफरत भी। गुस्सा है तो पुचकार भी।
इसे कहानी संग्रह से कही हटके, जीवन के आईने की तरह देख सकते हैं, जो इसकी पहली ही कहानी 'प्रेम से बढ़कर' से साबित कर देती है। इसके किसी एक दिलचस्प हिस्से पे ध्यान देंगे तो अजीब लगेगा। क्योंकि ये कहानी नहीं है, बल्कि रिश्तों के द्वन्द का आइना है। यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा।
वह खिड़की के पास की मेज पर पाँव रखे हुए बैठा था। तीसरी बार ग्लास को ठीक से रखने की कोशिश में बची हुई शराब कागज़ पर फ़ैल गई। उसने गीले कागज़ को बलखाई तलवार की तरह हाथ में उठाया, और कहा-"प्रेम-व्रेम कुछ नहीं होता।"
उसने कागज़ से उतर रही बूंदों के नीचे अपना मुंह किसी चातक की तरह खोल दिया। वे नाकाफ़ी बूंदे होंठो तक नहीं पहुंची, नाक और गालों पर ही दम तोड़ गई। ये तो महज कुछ लाईने हैं, जो 'प्रेम से बढ़कर' भी कुछ कह जाती हैं।
'धूप के आईने में' की दूसरी कहानी 'मार्च के महीने की एक सुबह में प्रेम' भी अलग टेस्ट की है। एक ऐसे टेस्ट की, जिसे अबतक किसी ने महसूस करने की कोशिश नहीं की और अगर कोशिश की भी! तो महसूस नहीं कर पाया। ये ऐसे युवक की कहानी है, जो प्रमोशन के लिए तरह तरह के हथकंडे अपनाता है। जो जिंदगी को भी ऐसे ही जीता है, जो तेज है। लेकिन अंत में उसे पता चलता है कि ये ही नहीं है जिंदगी।
तीसरी कहानी की बात करें तो राजस्थानी पृष्ठिभूमि पर लिखी गई 'छोटी कमली' गजब की कहानी है। ये महज कहानी नहीं, बल्कि हकीक़त और कहावत को न सिर्फ सामने लाती है, बल्कि प्रेम का एक अलग टेस्ट भी देती है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो 'धूप के आईने में' की आखिरी तीन कहानियां बेहतरीन हैं। एकदम नए कलेवर की। 'एक बचा हुआ शब्द, जो उन्होंने कहा नहीं' एक अजीब सी नयापन लिए हुए है। प्रेम त्रिकोण, धोखा और फिर प्रेम... यही चाशनी है।
'धूप के आईने में' किताब की पांचवी कहानी है। जो टाइटल होने की वजह से वैसे ही तरीके से रची गई है। एकदम अलग.. और नए तरीके से। एक हिस्सा देखें... इस लाजवाब कहानी का। 'उस दिन दो बज रहे थे, लड़के ने कहा-"सुनो।"
वह मुड़कर देखती, तब तक वह लड़का उसका हाथ पकड़े हुए खड़ा था। हाथ माने उसने उसकी हथेली को अपनी हथेली में लिया हुआ था। जैसे कोई दो प्रिय लोग एक साथ चलते हुए थामकर रखते हैं। उसने लड़के के चेहरे की ओर देखा। लड़का अभी भी उसके हाथ को थामे हुए था।
शायद कोई एक मिनट जितना वक्त लगा होगा। लड़की ने कहा- "जाने दो।"
वह वहां से चली आई।
और आखिरी कहानी की बात करें तो 'श्रुति सिंह चौधरी, ये तन्हाई कैसी है' शीर्षक से है। ये कहानी आज के अंधे प्यार और उसकी तकलीफों का आइना है। नौजवानों से ख़ास अपील है, कि इस कहानी को कम से कम दो बार पढ़ा जाए। ये कहानी पुलिसिया जुल्म और एक महिला पुलिस कर्मी को पुरुष पुलिस कर्मियों द्वारा उत्पीडन को भी बयां करती है। बेहद शानदार अंदाज़ में लिखी गई ये किताब औरों से अलग तो है ही, साथ ही आधुनिकता, किस्से-कहानियों को भी समेटे हुए है।
'मसाला चाय'
'मसाला चाय' नाम ही काफी है ये अहसास दिलाने के लिए, कि हम एकदम अलग दुनिया में चल रहे हैं। 11कहानियों की ये किताब कोई किताब नहीं है, बल्कि हमारे और आप जैसे इंसानों की आपबीती आत्मकथा की तरह है। 'मसाला चाय' को पढ़ते हुए आप कभी अपने बचपन में पहुंच जायेंगे तो पुराने मोहल्ले की यादें भी ताजा होंगी। फिर इंजीनियरिंग की पढ़ाई से लेकर होस्टल लाइफ़ और एमबीए की असली प्रिपरेशन से लेकर इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के घालमेल। हर तरह का मसाला मौजूद है 'मसाला चाय' में।
असल में कहें, तो मसाला चाय किसी डी पी दुबे ने नहीं लिखा। ये तो हमारे और आप जैसे उन सभी लोगों ने लिखा है, जो इससे खुद को जुड़ा पाते हैं। वैसे डी पी दुबे की सबसे बड़ी खासियत खुद को उस कहानी के पात्र जैसा सोचना भी है, जिसकी वजह से लोग कहानी से खुद को जोड़कर देखते हैं, क्योंकि कहीं न कहीं ये सबकी आपबीती ही है।
पता है? मसाला चाय आपको सबसे पहला झटका कहां देती है? मैं बताऊँ? तो 'विद्या कसम' हर किसी की जुबान पे रहता है, बचपन में पढ़ाई के समय। लेकिन 'विद्या कसम' शीर्षक लिए हुए पहली कहानी में न सिर्फ हम अपने बचपने को देख पाते हैं, बल्कि हरेक बात पर कसम खाकर टाल देने की अपनी ही बुरी आदत पर मुस्कराते हैं। दिलचस्प तरीके से लिखी ये कहानी उस बच्चे आर्यन की कहानी है, जो पहले सबसे कन्फर्म कर लेता है कि कसम-वसम कुछ चीज नहीं है। उसपर क्रिकेट गेंद की चोरी का आरोप होता है, फिर कसमों की दुनिया की थाह लेकर भी वो चोरी के आरोप से बच नहीं पाता तो उसे उसकी सबसे प्यारी चीज की कसम खानी पड़ती है। इस कहानी की शुरुआत इससे बेहतर हो ही नहीं सकती थी....
'नहीं ली मैंने बॉल।' आर्यन ने चिल्लाकर कहा।
'तुम ने ही ली है' पवन ने आर्यन की शर्ट खींचते हुआ कहा।
'अरे, नहीं ली मैंने बॉल।'
'नहीं ली, तो खाओ विद्या कसम।'
'विद्या कसम नहीं ली।' आर्यन ने कन्फर्म किया।
ये जो आरोप और सफाई का सिलसिला चला तो आर्यन की दादी की मौत के साथ ही ख़तम हुआ। और आर्यन अब घोषित चोर बन गया, क्योंकि उसने दादी की कसम खाई थी। जबकि उसने पूरी श्योरिटी के बाद ही कसम खाने की जुर्रत की थी।
खैर.. 'मसाला चाय' का अगला पड़ाव आपको 'jeewanshadi.com' ले चलता है। जहां आप आज होने वाली शादियों, पुराने प्यार, फ्रस्टेशन से निकलने के लिए सुयोग्य कन्या की तलाश करते हैं और आखिर में वो सबको गच्चा देकर निकल जाती है। बचते हैं आप, जो परिवार में न चाहते हुए भी खलनायक की भूमिका में दिखने लगते हैं। 'jeewanshadi.com' में हीरो की भूमिका ग्रे शेड में है, लेकिन वो वाकई सच्चा इन्सान होता है। अगर कोई महिला इस कहानी को पढ़े तो यकीनन उसे हीरो से प्यार हो जाएगा। यूं तो सारी कहानियों में 'मसाले' तो जबरदस्त तरीके से हैं ही, लेकिन आप एकांत में कहानी का मजा ले रहे हों तो आपकी लाइफ़ से जुड़े ऐसे ढेर सारे किस्से आपको याद आ सकते हैं।
चलिए, 'मसाला चाय' की चुस्कियों संग अब आपको लिए चलते हैं 'फलाना college of engineering'। जहां एक से बढ़कर एक आइआइटी जाने की योग्यता रखने वाले इंजीनियर लोग हैं। जो कोशिश तो करते हैं आइआइटी जाने की, लेकिन आ टपकते हैं 'फलाना कालेज ऑफ़ इंजीनियरिंग' में, और अंजाम क्या होता है, वो देश का हर छोटा बड़ा इंजीनियर जानता है। घर में बताया जाता है कि हमारा बेटा फलाने आइआइटी से पढ़ रहा है, लेकिन वो पढ़ रहा होता है ऐसे 'डम डम डिगा डिगा' टाइप कालेज से, कि उसका नाम भी नहीं ले सकते। यहां से आगे 8 और कहानियां हैं, जो हर किसी की लाइफ़ से जुड़ी हुई हैं।
मैं सबकुछ यहीं बताकर आपका मजा खराब करना नहीं चाहता। बस ये मान लीजिए कि अगर 'मसाला चाय' आपके हाथ में है तो आप दुनिया के उन पाठकों में से हैं, जो अपने अतीत का दर्शन यूं ही किताबों में कर ले रहा है। एक बात और... ये जो सारी कहानियां हैं, ये सुनाने के लिए हैं ही नहीं। समझ रहे हैं न? मैं क्या कहना चाहता हूं....
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