नई
दिल्ली। हिंदुस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश। एक ही धरती के टुकड़ों से बन
गए तीन देश। अंग्रेजों ने हिंदुस्तान को तोड़ा, हिंदुस्तान ने पाकिस्तान को
और पाकिस्तान तोड़ने पर लगा हुआ है हिंदुस्तान को। कश्मीर से लेकर पंजाब तक।
इन कोशिशों में हिंदुस्तान ने लाख जख्म सहे। खासकर, खालिस्तान को लेकर देश
ने बहुत कुछ खोया। ऑपरेशन ब्लू स्टार की धमक ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी
की बलि ली, फिर लाखों लोगों को पंजाब छोड़कर भागना पड़ा तो दिल्ली में सिखों
का नरसंहार हुआ। पर 21वीं सदी के आते आते सबकुछ शांत हो गया। आग सिमटकर
धधकती ज्वाला बन गई, जिसकी छटपटाहट मौजूदा समय में भी दिखती है। इतना सबकुछ
इसलिए लिखा, ताकि उस समय के माहौल को समझ सकें। क्योंकि, आईबीएनखबर.कॉम आज
उस योद्धा की कहानी बताने चल रहा है, जिसके बारे में हर कोई जानता है, पर
स्मृतियां धुंधली पड़ चुकी हैं।
ये कहानी उस योद्धा की है, जिसने खालिस्तान
मूवमेंट में रहकर आतंक की कमर तोड़ दी। ये कहानी उस शेर की है, जिसने 350 से
भी ज्यादा आतंकियों का शिकार किया। पर मौजूदा समय में अपनी ही जान बचाने
और बचे खुचे परिवार की सुरक्षा की गुहार लगा है। जिसकी गुहार हाईकोर्ट ने
सुन ली, सुप्रीम कोर्ट ने सुन ली। पर तथाकथित देशभक्त सरकारों ने नहीं
सुनी। सरकार चाहे केंद्र की हो या पंजाब राज्य की। जिस हीरो की कहानी है,
उसपर सरकार ने नहीं, बल्कि खालिस्तानी आतंकियों ने करोड़ से ज्यादा का नकद
इनाम तो रखा ही है, साथ ही 2 किलो सोने का इनाम भी है। यही नहीं, विदेश में
बसने की जिम्मेदारी के साथ ही भिंडरेवाला सम्मान भी मिलेगा। जिस शेर के
शिकार पर इतना इनाम रखा है, उसका नाम है सुखबिंदर सिंह उर्फ़ दयाल सिंह।
इंडियन लायंस का मुखिया, खालिस्तानी आतंकियों के लिए मौत का दूसरा नाम।
इस
कहानी के नायक का नाम तो कई लोगो ने सुना होगा पर नायक की कहानी को कोई
नहीं जानता। पर आईबीएनखबर की टीम ने न सिर्फ दयाल सिंह को खोज निकाला,
बल्कि उनसे विस्तार से बातचीत भी की। दयाल सिंह की कहानी बॉलीवुडिया
फिल्मों की कहानी से थोडा मिलती तो है पर यह कहानी कोई पर्दे की नहीं बल्कि
किसी की जिंदगी का सच है। किसी पर्दे की कहानी की तरह इस कहानी एक्शन,
इमोशन, प्यार सब कुछ है । बस यहाँ थोडा सा फर्क है, फ़िल्मी हीरो को अंत में
सबकुछ मिल जाता है और असल जिंदगी में इस हीरो को आजतक इंसाफ न मिला।
इस
कहानी की शुरुआत होती है तब से, जब पंजाब में आतंकवाद कदम रख रहा था।
निरंकारी और अखंड कीर्तनी जत्थे के बीच झडपे शुरू हो चुकी थीं। शुरुआत में
ही 13 अप्रैल 1978 को क़रीबन 13 सिखों की मौत हुई। जिसके बाद हालात बिगड़ते
चले गए और निरंकारियो के कत्ल शुरू हुए। इन कत्लों से पंजाब के आम लोगों का
कोई लेना देना नहीं था वो अपने परिवार की सुरक्षा करना चाहता था। इसी बीच
एक युवक 20 अप्रैल 1978 को दुबई रवाना हुआ जिसके पिता खुद पुलिस में थे।
पिता ने पंजाब में शांति स्थापित हो तक के लिए सुखबिंदर को दुबई भेज दिया,
जहां से वो 2 साल बाद वापस लौटा। पर तबतक पंजाब में आतंकवाद शांत होने की
जगह और भी पैर पसार चुका था।
सुखबिंदर सिंह के दोस्त उसे काका
कहकर बुलाते थे। जो अक्सर दोस्तों के साथ कपूरथला के एक होटल 'डिप्लोमेंट
बियर बार' अक्सर जाया करता था। जहां उसकी दोस्ती बार के मालिक के भाई मंजीत
सिंह से हो गई। पर बार का मालिक एक बदमाश था, हालांकि इसके बारे में
सुखबिंदर को कुछ भी पता नहीं था। मंजीत के भाई अजित सिंह को 1983 में पुलिस
ने मार दिया। साथ ही मंजीत को भी जमकर पीटा, जिसमें उसके दोनों हाथ हमेशा
के लिए बर्बाद हो गए। उसी मंजीत की देखरेख अस्पताल में काका किया करते थे,
पर ये उसके लिए घातक सिद्ध हुआ।
सुखबिंदर सिंह
ने आग्रह करने पर कहानी को विस्तार दिया और आगे बोलना शुरू किया। उन्होंने
कहा कि मंजीत की देखरेख के बारे में पुलिस को भनक लग चुकी थी, जिसके बाद
उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पुलिस ने मंजीत सिंह के दो भाइयों जसवीर सिंह और
बलवंत सिंह के बारे में जानना चाहा। उस समय हरमंदिर साहिब में आतंकी अपना
डेरा डाल रहे थे। मंजीत के बचे हुए दो भाई जसवीर और बलवंत सिंह भी यहीं
छुपे हुए थे। काका को पुलिस में इतना ज्यादा जलील किया था कि उनके मन में
उग्रवाद पनप रहा था पर उन्होंने खुद को शांत रखा। काका भी पुलिस से बचने के
लिए हरमंदिर साहिब में छुप जाया करते थे। पुलिस लम्बे समय से काका के पीछे
थी । आपरेशन ब्लू स्टार से एक दिन पहले हरमंदिर साहिब से निकल गए और
दिल्ली पहुंचे, जहां वो गिरफ्तार हो गए। यहां से उन्हें पंजाब की जेल भेज
दिया गया। पर जिस अधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार किया उन्होंने सुखविंदर को
कहा, कि तुम कभी अपराध की राह पर जाओ तो मेरे पास आ जाना । सुखविंदर को जेल
हुई करीबन दो साल जेल में रहने के बाद जब वो बाहर आये तो पुलिस ने उन्हें
अपना मुखविर बनाना चाहा पर उन्होंने मना कर दिया। सुखविंदर पर नेशनल
सिक्यूरिटी एक्ट लगाकर एक बार फिर करीबन एक साल के लिए जेल में डाल दिया
गया।
सुखविंदर जेल से बाहर आये और अपनी नयी
जिन्दगी शुरू की। फरवरी 1987 में सुखविंदर की शादी हुई, सुखविंदर की
जिन्दगी में खुशियाँ का आगमन हुआ पर ये खुशियाँ पल भर की थी। करीबन दो
महीने बाद ही उन पर टाडा एक्ट लगा दिया गया और कुछ महीने जेल में रहने के
बाद सुखविंदर फिर से बाहर आ गए, जेल में रहकर सुखविंदर ने धर्म को जाना, कई
धर्मग्रंथो को पढ़ा, गुरुवाणी पढ़ी। सुखविंदर सिंह पर सभी मामले खत्म हुए।
उनके परिवार में एक छोटी बच्ची का आगमन भी हो चुका था। इस बीच सुखविंदर को
याद आया कि उन्हें एक अधिकारी ने एक सलाह दी थी कि कभी अपराध के रास्ते पर
जाने का मन हो तो मेरे पास आ जाना। सुखविंदर अपनी पत्नी और बेटी के साथ
दिल्ली आ गए उन्होंने फिर कभी पंजाब न जाने का मन बना लिया। सुखबिंदर के मन
में सपने थे कि 100 रूपये कमाऊंगा तो 5 रूपये की दाल, 10 रूपये का आटा आदि
तो मै कम से कम 50 रूपये तो हर रोज़ बचा ही लिया करूँगा पर शायद किस्मत को
क्या मंजूर था ये तो भविष्य के गर्भ में छुपा था।
पंजाब
से एक पुराने मित्र मुकेश की शादी का निमन्त्रण सुखविंदर के पास पहुंचा।
सुखविंदर पंजाब वापस नहीं जाना चाहता था पर दोस्तों की जिद के आगे झुकना
पड़ा।मुकेश की शादी बड़े धूमधाम से हुई। सुखविंदर शादी के समारोह खत्म होने
के बाद अपने घर कपूरथला आ गए थे, सुखविंदर की बहिन मुकेश की ही घर रुक गयी
थी। Feb 8, 1988 शादी के समारोह के तुरंत बाद भिंडरावाल टाईगर फ़ोर्स के
आतंकियों ने हमला किया, उस काण्ड में 7 लोगों की मौत हुई, सुखविंदर की बहिन
जब दरवाजा बंद कर रही थी तभी सामने से एक आतंकी ने उन पर फायरिंग की उसे 8
गोलियां लगी पर हिम्मत न हारते हुए उसने दरवाज़ा बंद कर दिया। सुखविंदर जब
मुकेश के घर पहुंचे तो आँखों के सामने लाशो का ढेर पाया।आंगन खून से लथपथ
था। आँखों के सामने दोस्त की लाश थी जिसकी शादी की शहनाई कुछ पल पहले ही
थमी थी। यहीं से सुखविंदर सिंफ उर्फ काका आतंकियों से लड़ने निकल पड़ा।
हालांकि उसके पास न तो हथियार खरीदने के पैसे थे, न ही जीवन चलाने के लिए।
ऐसे में सुखबिंदर ने दिल्ली के एक ट्रैवल एजेंट से मदद लेने की कोशिश की,
पर उसने सुखबिंदर को गिरफ्तार करवा दिया। उसके साथ 2 और दोस्त भी थे। तीनों
को दिल्ली के तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। जहां विरोध स्वरूप सुखबिंदर ने
खाना-पीना छोड़ दिया। पर फल खाते रहे। जिसकी वजह से तिहाड़ के अन्य बंदी
उसे फलहारी बाबा कहने लगे। खैर, 6 महीने बाद 1989 में जेल से बाहर आये,
माता पिता ने उनकी जमानत करवाई ।
तिहाड़ से
रिहाई के बाद सुखविंदर पंजाब आ चुके थे और उनका एकमात्र उद्देश्य
खालिस्तानी आतंकियों का सफाया रह गया था। यहाँ वो अपने पुराने दोस्तों से
मिले और कुछ दिन बाद ही सुखविंदर की मुलाकात हरमिंदर सिंह संधू से हुई और
फिर सुखविंदर सिंह 'खालिस्तान कमांडों फ़ोर्स' के लेफ्टिनेंट जनरल बने।
All-India Sikh Students Federation (AISSF) के जनरल सेकेट्री हरमिंदर सिंह
संधू उन 21 लोगो में से थे जिन्हें ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद स्वर्ण मंदिर
से जीवित पकड़ा गया था। 5 साल जोधपुर जेल में सज़ा काट चुके हरमिंदर ने
सुखविंदर को एक अहम् जिम्मेदारी दी । सुखविंदर को लता मंगेशकर का अपहरण
करना था ताकि जेल में बन्द सभी खालिस्तानी समर्थको को छुड़वाया जा सके।
दरअसल इस अपहरण की स्टोरी के असली सूत्रधार पूना की जेल में बन्द हरजिंदर
सिंह और सुखदेव सिंह सुक्खा थे जो श्रीधर बेद्धय की हत्या के आरोप फांसी की
सज़ा पा चुके थे। सुखविंदर सिंह ने इस बड़े प्लान की सूचना CRPF के डीईआईजी
को दे दी जिसके बाद आतंकियो का बड़ा प्लान नाकाम हुआ।
इस बीच
हरमिंदर साहिब में रहने की वजह से उनकी पहचान कई लोगो से हो चुकी थी जिस
कारण उन्हें खालिस्तानी कमांडो फ़ोर्स में आसानी से जगह मिल गयी। अब
सुखविंदर ने 1990 में आतंकियों को मारने का अलग ढंग अपनाया, जहां वो पहले
को आतंकियों को समझाते, पर जो न समझते वो उन्हें पकड़वाया। कई आतंकी तो
मुख्य धारा में आ गये और पुलिस मे मुखविर बन गए । पर जो नहीं समझते उन्हें
धीरे धीरे सुखबिंदर मौत के घाट उतारने लगे। धीरे धीरे यह चलता रहा ।
खालिस्तानियो को लगा यह पुलिस क़ी साजिश है और पुलिस से उनका टकराव बढ़ गया।
सुखविंदर सिंह नहीं चाहते थे कि यह टकराव और ज्यादा बढ़े। पर तभी अचानक से
एक संगठन सामने आ गया जिसने इन लोगो को मारने का ज़िम्मा अपने सर ले लिया।
एक सफेद काग़ज़ पर स्केच से तिरंगा झण्डा बना था जिसके ऊपर संगठन का नाम था
'इंडियन लॉइन्स'। कागज़ पर खालिस्तानी आतंकियो को मारने की ज़िम्मेदारी लेते
हुऐ नीचे एक नाम था 'दयालसिंह'।
खालिस्तानी
समर्थकों और पुलिस में इस नाम को लेकर अफरा तफ़री मच चुकी थी । इस बीच
आतंकवादियों को एहसास हुआ कि परगट सिंह ही दयाल सिंह है और उन्हें परगट को
गोली मार दी । परगट सिंह भी सुखविंदर सिंह के दोस्तों में एक थे । सुखविंदर
सिंह खुलकर सामने आये और एलान किया कि मैं ही दयाल सिंह हूँ। इस खुले
ऐलान के बाद सुखविंदर के पीछे सभी खालिस्तान समर्थक संगठन मारने के पड़
गए।1992 में सुखविंदर के घर पर हमला हुआ पर वो घर पर नहीं थे, उस हमले की
सुखविंदर की माँ और बहिन की मौत हो गयी। आज सुखविंदर पर 2 करोड़ रूपये का
इनाम है और आपको आश्चर्य होगा कि यह इनाम किसी सरकार ने नहीं आतंकवादियो ने
रखा हुआ है।
पंजाब में आतंक खत्म होने के बाद 1994 में सुखविंदर
ने सरेंडर कर दिया, कुछ समय के लिए उन्हें जेल हुई और सभी मामले निपटाकर
जेल से बाहर आये। सुखविंदर को आज भी खालिस्तानी आतंकी संगठन तलाश रहे हैं,
आज भी खालिस्तानी समर्थक संगठन द्वारा सुखविंदर का जिक्र होता है। सुखबिंदर
की मानें, तो उन्होंने अपने जीवन में 350 से ज्यादा आतंकियों को या तो मौत
के घाट उतारा, या पुलिस के हवाले किया। हालांकि ये सभी रिकॉर्ड में मरे
हुए दिखाए जा चुके हैं।
पंजाब पुलिस के डीजीपी रह चुके एसएस
विर्क भी फोन पर सुखबिंदर सिंह उर्फ दयाल सिंह के दावों की पुष्टि करते
हैं। हालांकि उन्होंने फोन पर ज्यादा बातचीत से इनकार कर दिया, क्योंकि
खालिस्तानी आतंकियों से संबंधित ये मुद्दा बेहद संवेदनशील है।
इन
बीच के सालों में सुखबिंदर सिंह उर्फ काका उर्फ दयाल सिंह छिपकर रहे। पर
उन्हें लगा कि अब बाहर आना चाहिए, तो वे आए। ऐसे में उनके जीवन पर
खालिस्तानी आतंकी हमेशा खतरा बनकर रहे। सुखबिंदर ने इस बीच हाईकोर्ट में
अपनी सुरक्षा को लेकर केस दाखिल किया, जिसमें कोर्ट ने उन्हें सुरक्षा देने
का आदेश दिया। पर ये सरकारी ढुलमुल रवैया ही है कि यहां आतंकियों को
सुरक्षा मिलती है, पर आतंकियों का सफाया करने वाले को दुत्कार। इसके बाद,
सुरक्षा को लेकर सुखविंदर ने एक लम्बी अदालती लडाई लड़ी जो काफी दिलचस्प है
और 2013 में उन्हें सुप्रीमकोर्ट के ऑर्डर हुआ कि सुखविंदर को सुरक्षा
प्रदान की जाए पर इन सरकारों ने इस पर गौर नहीं किया। इस राजनीति और धर्म
ने ने मिलकर पंजाब को बर्बाद किया जिसकी सज़ा आज भी सुखविंदर भुगत रहे हैं।
सुखविंदर को आज भी सुरक्षा सुरक्षा के नाम पर एक गार्ड दे दिया गया है,
सोचिये जिस व्यक्ति के सर पर 2 करोड़ का इनाम हो क्या उसके दुश्मन मामूली
होंगे? क्या उसकी सुरक्षा एक गार्ड कर पाएगा ? दरअसल पंजाब अकाली-बीजेपी को
उन लोगो को खुश रखना है जिनके मन में आज खालिस्तान के प्रति लगाव है और
खालिस्तान के दुश्मन सुखविंदर सिंह दयाल सिंह काका को सुरक्षा देकर वो अपना
वोट नही खोना चाहतें। हालांकि सुखविंदर ने बातचीत में बताया कि उन्हें
अपनी सुरक्षा नहीं चाहिए बल्कि वो अपने परिवार के लिए सुरक्षा चाहतें हैं,
जो आतंक के साये पर जी रहे हैं।
सुखविंदर को
मोदी सरकार से उम्मीदें हैं कि वो उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाएगी ताकि जों
परिवार गुमनाम बना हुआ है वो अपनी जिन्दगी ख़ुशी से जिए उसकी बेटियां पढ़
सकें। अपने माता पिता का नाम रोशन कर सकें।
सुखबिंदर से और भी
बातचीत हुई, कुछ भविष्य को लेकर भी।
बातचीत के इन अंशों छापने का मकसद सिर्फ
इतना ही है कि हम सुखबिंदर सिंह उर्फ़ दयाल सिंह की अनकही कहानी को दुनिया
के सामने ला सकें। वैसे, मौजूदा समय में सुखबिंदर की सुरक्षा को लेकर जो
मांग है, जिसे सुप्रीम कोर्ट तक मान चुका है, उससे सरकारें दूरी बनाकर
क्यों चल रही हैं ये समझ से परे है।
ये पूरी कहानी संपादित होकर आईबीएनखबर.कॉम पर प्रकाशित हो चुकी है। असंपादित कहानी को प्रकाशित किया गया है। संपादित अंश पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें...
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