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सिगरेट की दास्तां है अजीब!
डिब्बी से निकली
माचिस की तिल्ली के साथ होंठों पर
फिर खत्म होते ही पैरों तले!
क्या अजीब है
दास्तां-ए-सिगरेट!
जलते हुए फेफड़ों में
फिर दिल तक पहुंचता है
वही जो शरीर का कर्ता-धर्ता है
फिर आगे का तो है ही पता..!!
दिल से हवा में.
फिर होंठे से फेफड़े
और फिर दिल तक!
कई दफे
यह दुष्चक्र
फिर दूसरी या चौथी बार में
फेफड़ों से दिल और फिर मष्तिष्क!
है न अलग?
और फिर दिशा-दशा,
सब बदल देती है
दिल की धडकनें तेज
पहुंचाके आसमां
पटकती है जमीं पर!
और जब ख़त्म..
तो आखिरी कश के साथ ही
खुद सिगरेट भी जमीन पर!
रौंद दी जाती है
जमीं पर.. पैरों तले!
कुचलना भी है
रगड़ना भी है
पैरों से
धूल में.. और आसमां तक!
बिखरना है, टूटना है
फिर मिल जाना है
उसी मिटटी में.. हवा में!
जिसमें हम जीते हैं
चलते हैं.. मिलते हैं
हंसते हैं .. खेलते हैं
खाते हैं..लेकिन...
सिगरेट की हालत?
वह जो जमीं पर फेंका हुआ!
धूल-धूसरित होता हुआ
पड़ा रहता है
अपने आखिरी अंजाम तक पहुंचने को..
ठीक ऐसे ही
तभी शुरू होती है
दूसरे सिगरेट का
जीवन-मरण चक्र
है न अजीब?
दास्तां-ए-सिगरेट?
होंठो से पैरों तले.. रौंदे जाने तक!
ऐसा ही है मानव
जो सिगरेट
और दूसरी चीजों में
फर्क नहीं समझता, उपयोग करने तक!
बाद में फिर वही..
मिट्टी
होंठ-फेफड़े-दिल- मस्तिष्क
और जमीं!
है न अजीब?
दास्तां-ए-सिगरेट?
5 comments:
bahut khoob.... yun hi likhte raho :)
bahut achchhi kavita hai
tum kavi bante ja rahe ho
vaise jo bhi likhate ho bahut achchha likhate ho
bahut achchhi kavita hai
tum kavi bante ja rahe ho
vaise jo bhi likhate ho bahut achchha likhate ho
Bahoot khoob..isi tarah dhuaa udate raho or bahavo ko sabdh dete raho bahi ,,,umda
लगता तो बेखबर सा हूँ , लेकिन खबर में हूँ ,
तेरी नजर में हूँ तो मैं सबकी नजर में हूँ ।
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