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Tuesday, October 22, 2013

मस्तराम संग जीवन के रंग: एक शायकसुअल पोस्ट

एक शायकसुअल पोस्ट 
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अलोक शायक
(पत्रकार, कवि)
वर्ष 1999-2000 का था जब पहली बार मस्तराम को पढ़ा .. ग्यारहवीं बारहवीं में पढ़ता था और रांची के रातू रोड में आकाशवाणी होस्टल में रहता था .. फिर तो गज्जब जिज्ञासा होती थी कि और किस किसने किस किस के साथ क्या किया .. 'इकसठ बासठ' करने की कल्पनाओं में मस्तराम की कहानियों ने बड़ा साथ दिया .. ऐसा भी दौर चला कि जब भी हम बिरसा चौक से गुजरते तो वहां के फुटकर पोस्टर दूकान से मस्तराम जरुर खरीदते .. हालांकि मैं शर्मीला था तब तो खुद मैंने खरीदने में रूचि नहीं रखी बस मूल्य चूका देता था .. तब पीली पन्नी में पैक रहता था यह डाइजेस्ट .. इस डाइजेस्ट को पढने से देशी हिंदी समृद्ध हुई मेरी और तमाम प्रतिबंधित शब्दों की व्याख्या समझने में मदद मिली .. 

वह भी दौर आया जब मस्तराम पुराने लगने लगे और लगता कि अब कुछ नया नहीं बचा है मस्तराम के पास कहने को .. तभी मैंने अपने होस्टल में मेरा वह ऐतिहासिक वक्तव्य भी दिया था कि ' मस्तराम ने सामाजिक रिश्तों के बंधनों को तोड़कर सेक्स को जिस प्रकार आनंद परमानंद की श्रेणी में पहुंचा दिया है और कल्पनाओं पर जैसा प्रभाव मस्तराम डाइजेस्ट का है वैसा प्रभाव ओशो भी नहीं छोड़ पाए हैं ' .. एक बार तो मैंने यहाँ तक विचार किया कि ओशो को 'सम्भोग से समाधि की ओर' लिखने की प्रेरणा मस्तराम डाइजेस्ट पढने से प्राप्त ज्ञान से ही मिली होगी ..

खैर .. मस्तराम का दौर ख़त्म हुआ तो टी वी सी डी का दौर आया .. बाकायदा चंदा होता था हमारे होस्टल में .. सबसे ज्यादा आर्थिक योगदान करने वाले से उसकी पसंद भी पूछी जाती थी .. जन्मदिन पार्टियों में सी डी प्रदर्शन अनिवार्य कर दिया गया .. कुछ उत्साही मित्र तो बाकायदा बोल कर जाते थे कि पॉज पर रखो अभी पांच मिनट में बाथरूम से आता हूँ .. एक चिन्हित सी गंध होस्टल के दो तीन चिन्हित लड़को के कमरों से आने लगी .. और फिर धीरे धीरे वह दौर भी ख़त्म हो गया ..

इंटरनेट पहली बार मैंने 2005 में इस्तेमाल किया .. याहू याहू सुनता रहता था और मेरे रूम पार्टनर की प्रेयसी ने मेरा याहू अकाउंट बना दिया .. वह ज्यादा उत्सुक इसलिए थी कि जितनी देर मैं कैफे जाकर नेट करता उतनी देर वह मेरे कमरे का उपयोग अपने प्रेम प्रयोग के लिए कर सकती .. यह एक छोटा सा कैफे था कठवरियासराय दिल्ली में और फिर याहू देखते देखते दो एक रोज में गूगल सर्च करना भी सीख गया मैं ..

सचमुच का सेक्स मैंने पहली बार वर्ष 2006 में किया सचमुच कि प्रेयसी के साथ .. तभी पहली बार जाना कि इकसठ बासठ और सेक्स में उतना ही अंतर है जितना मैंगो बाईट लेमनचूस चूसने और सचमुच के आम खाने में .. हालांकि सेक्स को तब तक मैं एक बेशर्म शब्द मानता था और वह और मैं सेक्स को मेकिंग लव कहना पसंद करते थे ..

और फिर ज़िन्दगी ने और कई रंग और स्वाद दिए ..
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शायक

1 comment:

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