मनीष पाण्डेय (फीचर संपादक:इंडिया टुडे) |
मैं सोचने लगी।
जब पहली बार पीरियड्स हुए थे, तब?
नहीं।
लड़की होने की शुरूआत तो उसके बहुत पहले ही हो चुकी थी। बहुत बहुत पहले। तब मैं चौथी में पढ़ती थी। गर्मियों की छुट्टियां थीं। मैं और मेरे बड़े पापा के दोनों बेटे आम के पेड़ के नीचे सांप-सीढ़ी खेल रहे थे। एक भाई मुझसे दो साल बड़ा था और एक एक साल छोटा। तीनों लगभग हमउम्र थे। खेल बहुत क्रिटिकल मोड़ पर था। जीवन-मरण सब उस खेल में। किसे सांप काटेगा, किसको सीढ़ी मिलेगी। उस वक्त खेल के आगे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। तभी अंदर से आवाज आई,
मनीषा......................... .......
मैंने सुनकर अनसुना कर दिया। आधे मिनट में फिर
मनीषा......................... ....... इस बार आवाज ज्यादा तेज थी
मनीषा.........................
मैं डर के मारे भागकर अंदर गई।
बड़ी मां बर्तन धो रही थी। मुझे तुरंत आदेश मिला, "ये सारे कप ले जाकर किचन में रखो।" मैंने दौड़कर कप किचन में पहुंचाए। "अब ये प्लेट भी रखो, ये बर्तन भी रखो, वो बर्तन भी रखो।" मैं दौड़-दौड़कर बर्तन किचन में पहुंचाती रही, लेकिन मेरा पूरा ध्यान तो खेल में लगा हुआ था। कहीं उन लोगों ने बेईमानी कर दी तो। कहीं सांप के आगे वाले खाने में अपनी गोटी रख दी दो। कहीं झूठमूठ सीढ़ी चढ़ गए तो। कहीं पांच को छह बोलकर सांप के मुंह से बचकर निकल गए तो। कहीं मैं हार गई तो।
लेकिन किसी को मेरे दिल से क्या, मेरे खेल से क्या। उन्हें तो बर्तन रखवाने थे किचन में। मैं काम निपटाकर वापस भागी तो फिर पांच मिनट में आवाज लगी। "बड़े पापा को चाय देकर आओ।" उसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं।
सिर्फ दौड़-दौड़कर बर्तन किचन में पहुंचाने की याद है मुझे।
उस दिन बहुत तकलीफ हुई थी। ठीक-ठीक समझ में नहीं आया लेकिन फिर भी दुख तो हुआ था कि भाई को क्यों नहीं बुलाया। छोटे वाले को न सही, तो बड़े को ही आवाज दी होती। उन तीनों में बर्तन रखने के लिए, चाय देने के लिए मुझे ही क्यों आवाज लगाई गई। बड़ी मां के लिए उस वक्त वो काम करवाना उतना इंपॉर्टेंट नहीं था, लड़की को घर का काम सिखाना इंपॉर्टेंट था। वो दिन भर किसी न किसी बहाने मुझे घर के काम सिखाने की कोशिश किया करती थीं।
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वक्त गुजर गया। शायद मैं भूल भी गई थी। शायद मैं कभी नहीं भूली। शायद मेरे सबकॉन्शस में वो क्षण कैद हो गया। उस दिन मुझे लगा कि मैं अलग हूं। अपने भाइयों से अलग।
मैंने पल्लवी से कहा, "उस दिन मुझे पहली बार अपने लड़की होने का एहसास हुआ।"
उसके बाद तो इतनी कहानियां हैं, इतनी कहानियां कि शायद संसार के सारे कागज खत्म हो जाएं, लेकिन कहानियां खत्म नहीं होंगी।
(मनीषा पाण्डेय जी के फेसबुक वाल से साभार)
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