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Tuesday, October 22, 2013

मस्तराम संग जीवन के रंग: एक शायकसुअल पोस्ट

एक शायकसुअल पोस्ट 
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अलोक शायक
(पत्रकार, कवि)
वर्ष 1999-2000 का था जब पहली बार मस्तराम को पढ़ा .. ग्यारहवीं बारहवीं में पढ़ता था और रांची के रातू रोड में आकाशवाणी होस्टल में रहता था .. फिर तो गज्जब जिज्ञासा होती थी कि और किस किसने किस किस के साथ क्या किया .. 'इकसठ बासठ' करने की कल्पनाओं में मस्तराम की कहानियों ने बड़ा साथ दिया .. ऐसा भी दौर चला कि जब भी हम बिरसा चौक से गुजरते तो वहां के फुटकर पोस्टर दूकान से मस्तराम जरुर खरीदते .. हालांकि मैं शर्मीला था तब तो खुद मैंने खरीदने में रूचि नहीं रखी बस मूल्य चूका देता था .. तब पीली पन्नी में पैक रहता था यह डाइजेस्ट .. इस डाइजेस्ट को पढने से देशी हिंदी समृद्ध हुई मेरी और तमाम प्रतिबंधित शब्दों की व्याख्या समझने में मदद मिली .. 

वह भी दौर आया जब मस्तराम पुराने लगने लगे और लगता कि अब कुछ नया नहीं बचा है मस्तराम के पास कहने को .. तभी मैंने अपने होस्टल में मेरा वह ऐतिहासिक वक्तव्य भी दिया था कि ' मस्तराम ने सामाजिक रिश्तों के बंधनों को तोड़कर सेक्स को जिस प्रकार आनंद परमानंद की श्रेणी में पहुंचा दिया है और कल्पनाओं पर जैसा प्रभाव मस्तराम डाइजेस्ट का है वैसा प्रभाव ओशो भी नहीं छोड़ पाए हैं ' .. एक बार तो मैंने यहाँ तक विचार किया कि ओशो को 'सम्भोग से समाधि की ओर' लिखने की प्रेरणा मस्तराम डाइजेस्ट पढने से प्राप्त ज्ञान से ही मिली होगी ..

खैर .. मस्तराम का दौर ख़त्म हुआ तो टी वी सी डी का दौर आया .. बाकायदा चंदा होता था हमारे होस्टल में .. सबसे ज्यादा आर्थिक योगदान करने वाले से उसकी पसंद भी पूछी जाती थी .. जन्मदिन पार्टियों में सी डी प्रदर्शन अनिवार्य कर दिया गया .. कुछ उत्साही मित्र तो बाकायदा बोल कर जाते थे कि पॉज पर रखो अभी पांच मिनट में बाथरूम से आता हूँ .. एक चिन्हित सी गंध होस्टल के दो तीन चिन्हित लड़को के कमरों से आने लगी .. और फिर धीरे धीरे वह दौर भी ख़त्म हो गया ..

इंटरनेट पहली बार मैंने 2005 में इस्तेमाल किया .. याहू याहू सुनता रहता था और मेरे रूम पार्टनर की प्रेयसी ने मेरा याहू अकाउंट बना दिया .. वह ज्यादा उत्सुक इसलिए थी कि जितनी देर मैं कैफे जाकर नेट करता उतनी देर वह मेरे कमरे का उपयोग अपने प्रेम प्रयोग के लिए कर सकती .. यह एक छोटा सा कैफे था कठवरियासराय दिल्ली में और फिर याहू देखते देखते दो एक रोज में गूगल सर्च करना भी सीख गया मैं ..

सचमुच का सेक्स मैंने पहली बार वर्ष 2006 में किया सचमुच कि प्रेयसी के साथ .. तभी पहली बार जाना कि इकसठ बासठ और सेक्स में उतना ही अंतर है जितना मैंगो बाईट लेमनचूस चूसने और सचमुच के आम खाने में .. हालांकि सेक्स को तब तक मैं एक बेशर्म शब्द मानता था और वह और मैं सेक्स को मेकिंग लव कहना पसंद करते थे ..

और फिर ज़िन्दगी ने और कई रंग और स्वाद दिए ..
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शायक

Monday, October 21, 2013

मित्रो, मार्क्सवाद फिर से पढें: जगदीश्वर चतुर्वेदी

मार्क्सवाद को लेकर आभासी दुनिया में मचे घमासान और प्रोफ़ेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा संघी विचारधारा के वेब पोर्टल द्वारा दिए गए सम्मान को लेकर मची वैचारिक मारामारी के बीच खुद जगदीश जी ने अपनी और अपने नजरिए से मार्क्सवाद के बारे में कुछ विचार रखे हैं।
प्रवक्ता.कॉम द्वारा दिए गए सम्मान को लेकर भी उन्होंने अपनी बात रखी है। चतुर्वेदी जी ने एक कमेंट में अपनी बात रखते हुए कहा, 'वहां पुरस्कार जैसा कुछ नहीं था वह एक युवा मीडियाकर्मियों का कार्यक्रम था ।मैं युवाओं में रहता हूँ, वे मुझे अपील करते है ऊर्जा के कारण वे पढते हैं मुझे। एक लेखक -पाठक के बीच संवाद-परिचय हो, इसलिए गया था। वे कोई इनाम बगैरह नहीं देते। वह इवेंट मात्र था।' 
इस बीच हार्डकोर वामपंथियों द्वारा मचाए गए उत्पात पर उन्होंने उन्हें जमकर झाड लगाने के साथ ही उनके लिए कई सारी सीखने वाली बाते भी रखी हैं, और यह भी बताया है कि किस प्रकार उनका मार्क्सवाद से मोहभंग हुआ। उन्होंने मार्क्सवाद के बारे/आधुनिक प्रासंगिकता को लेकर कई सारे स्टेटस लिखे हैं। इस दौरान उन्होंने 'आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें' शीर्षक के तहत 10 अलग अलग खंड में मार्क्सवाद का पाठ भी पढाया है, जिन्हें उनके फेसबुक वाल से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है। सभी स्टेट्स को अलग-अलग रंगों में प्रकाशित किया गया है, ताकि वह आसानी से एक-दूसरे से अलग पहचाने जा सकें।
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प्रवक्ता.कॉम के कार्यक्रम में
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव द्वारा
प्रोफ़ेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी
'प्रवक्ता सम्मान' ग्रहण करते हुए। 
प्रवक्ता डॉट कॉम पर मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य पर जितनी व्यापक चर्चा मित्रलोग कर रहे हैं और विचारधारा की अवधारणा की मन माफिक व्याख्या कर रहे हैं वह हिंदी में मजे की चीज है। अभी मार्क्सवाद को नए सिरे से पढने की जरुरत लोग महसूस कर रहे हैं ? या बिना पढे ही लिख रहे हैं ? अभी तक तो यही लग रहा है कि मार्क्सवाद की संभावनाएं बाकी हैं लेकिन यदि मार्क्सवाद को विचारधारा और दर्शन बनाया गया तो मार्क्सवाद तो डूबा हुआ समझो। मार्क्सवाद न तो विचारधारा है और न दर्शन है। बल्कि विश्वदृष्टि है।दुनिया को देखने का वैज्ञानिक नजरिया है। हम चाहेंगे कि मित्रगण इसी बहाने मार्क्स-एंगेल्स आदि को नए सिरे से पढें और बताएं कि मार्क्सवाद को विचारधारा कहें या विज्ञान कहें?


फेसबुक पर मार्क्सवाद के पक्ष में गिनती के लोग हैं और वे भी देश विदेश की समस्याओं और समाचारों पर कभी कभार लिखते हैं । उनकी मार्क्सवाद सेवा तब फलीभूत होगी जब वे देश -विदेश की समस्याओं पर जमकर नियमित लिखें।
मार्क्सवाद को अनपढ मार्क्सवादियों से सबसे ज्यादा ख़तरा है । मार्क्सवाद को दूसरा बड़ा ख़तरा उन लोगों से है जो मार्क्सवाद के स्वयं भू संरक्षक बन गए हैं । मार्क्सवाद की स्वयंभू संरक्षकों ने सबसे ज्यादा क्षति की है । मार्क्स - एंगेल्स का चिन्तन अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ है । हिंदी के स्वयंभू मार्क्सवादियों से यही कहना है कि वे पहले हिंदी में मार्क्सवाद के नजरिए से काम करके उसे समृद्ध करें और पाठक खोजें । आज हालत इतनी बदतर है कि देश में मार्क्सवाद पर तमीज की एक पत्रिका तक नहीं है । हिंदी में मार्क्सवादियों की किताबें लोग कम से कम पढ़ते हैं । क्या फेसबुक पर हंगामा करने से मार्क्सवाद का विकास होगा ? फेसबुक पूरक हो सकता है कम्युनिकेशन का लेकिन मात्र इतने से काम बनने वाला नहीं है । फेसबुक मार्क्सवादियों से विनम्र अनुरोध है कि वे कम से कम मार्क्सवाद जिंदाबाद करके मार्क्सवाद की सेवा कम और कुसेवा ज्यादा कर रहे हैं । मार्क्सवाद नारेबाजी की चीज़ नहीं है । मार्क्सवाद का संरक्षण और नारेबाजीमात्र अंततः कठमुल्ला बनाते हैं और कठमुल्लेपन का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है ।

मैं जब जेएनयू में पढता था और जेएनयूएसयू का अध्यक्ष था तो 1984 के दंगों के बाद संत हरचंद सिंह लोंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला और महीप सिंह ये तीनों अकालीदल की ओर से जेएनयू के छात्रों और खासकर जेएनयू छात्रसंघ की भूमिका के प्रति आभार व्यक्त करने आए थे और बरनाला साहब ने मैसेज दिया कि संत लोंगोवाल मुझसे मिलकर बातें करना चाहते हैं और आभार के रुप में अकालीदल की कार्यकारिणी का प्रस्ताव देना चाहते हैं। उस समय जेएनयू में बडा तबका था जो मानता था कि मुझे संतजी से नहीं मिलना चाहिए क्योंकि उन्होंने आतंकवाद का समर्थन किया है। लेकिन मैं बहुसंख्यकों की राय से असहमत था और मैंने झेलम लॉन में आमसभा रखी जिसमें संतजी ने खुलकर अपने विचार रखे और जेएनयू छात्रसंघ के प्रति आभार व्यक्त किया था । मैं यह वाकया इसलिए लिख रहा हूँ कि राजनीति और विचारधारात्मक कार्यों में कोई अछूत नहीं होता। लोकतंत्र में जो वामपंथी अछूतभाव की वकालत करते हैं ,मैं उनसे पहले भी असहमत था आज भी असहमत हूँ। मेरे लिए माओवादियों से लेकर माकपा-सपा-बसपा-भाजपा या कांग्रेस अछूत नहीं हैं । इनके नेताओं या कार्यकर्ताओं से मिलना या उनके द्वारा संचालित मंचों पर आना जाना स्वस्थ लोकतांत्रिक कर्म है और इसी नजरिए से हमें प्रवक्ता डॉट कॉम के पुरस्कार कार्यक्रम को भी देखना चाहिए।


हिंदी के अधिकांश फेसबुक मार्क्सवादी मार्क्सवाद को पूजा की चीज बनाकर बातें करते हैं। मार्क्सवाद पूजा की चीज नहीं है। ये लोग मार्क्सवाद को पूजा और अंधश्रद्धा की चीज बनाकरअंततःबुर्जुआजी की सेवा करते हैं। पूजाभाव से बुर्जुआजी को कोई शिकायत नहीं है। मार्क्सवादी कूपमंडूकता से भी बुर्जुआजी को कोई शिकायत नहीं है। कूपमंडूक और फंडामेंटलिस्ट मार्क्सवादियों को बुर्जुआजी बढ़-चढ़कर चंदा भी देता है। मार्क्सवाद जीवन को बदलने का विज्ञान है। यह दर्शन नहीं है और न विचारधारा है। यह बार बार यथार्थ की कसौटी पर कसने और खरा उतरने की मांग करता है। अब तक के सभी विचारों में सबसे ज्यादा पारदर्शी,सर्जनात्मक और परिवर्तनकामी विश्वदृष्टि है। इसका कूपमंडूकता,कठमुल्लेपन और पूजाभाव से बैर है और आलोचनात्मकता से प्रेम है।


हिंदी में कठमुल्ले मार्क्सवादी वे हैं जो मार्क्सवाद को विकृत ढ़ंग से प्रचारित करते हैं। इनमें यह प्रवृत्ति होती है कि अपने विचार थोपते हैं। 
कठमुल्ले मार्क्सवादी कहते हैं आपने यह नहीं लिखा, आपने वह नहीं लिखा,आपने यह नहीं कहा, आपने वह नहीं कहा।वे जो बोला या लिखा जाता है उसमें सुविधावादी तरीके से चुनते हैं और फिर उपदेश झाडना आरंभ कर देते हैं। 
कठमुल्ले मार्क्सवादी भाषा के तेवर कहीं से भी मार्क्सवादी परंपरा के अनुरुप नहीं हैं। मार्क्सवाद में अवधारणाओं का महत्व है और अवधारणाओं की मार्क्सवादी विचारकों में बहुलतावादी परंपरा है। हिंदी के फेसबुकिए मार्क्सवादी और किताबी मार्क्सवादियों का एक बड़ा हिस्सा मार्क्सवाद में व्याप्त बहुलतावाद को नजरअंदाज करता है और यांत्रिक तौर पर मार्क्सवाद की रक्षा के नाम पर हमले करता रहता है ।मार्क्सवाद में विचारों की बहुलता है और अन्तर्विषयवर्ती पद्धतिशास्त्र को भी विकसित किया गया है जो द्वंद्वात्मक पद्धति से आगे की चीज है। हिंदी के कठमुल्लों की मुश्किल यह है कि वे ठीक से न तो मार्क्सवाद जानते हैं और न यह जानते हैं कि क्लासिकल मार्क्सवादी परंपराओं पर परवर्ती मार्क्सवादी किस तरह भिन्न मतों का प्रदर्शन करते रहे हैं। मार्क्सवाद में भिन्नताओं और बहुलताओं के लिए व्यापक स्पेस है। अन्य के विचारों को मानना या सीखना और फिर नए की खोज करना मार्क्सवाद की वैज्ञानिक खोजों का हिस्सा रहा है। हिंदी का कठमुल्ला मार्क्सवादी मार्क्सवाद के बहुलतावाद से नफरत करता है और मार्क्सवाद को इकसार बनाने में लगा है। मार्क्सवाद का इकसारता से बैर है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 1-

फेसबुक पर युवाओं की सक्रियता खुशी देती है और उनकी तेज प्रतिक्रिया ऊर्जा देती है लेकिन यदि वह प्रतिक्रिया मार्क्सवादी विभ्रमों और विकृतियों की शिकार हो या वामपंथी बचकानेपन की शिकार हो तो मार्क्स-एंगेल्स का पाठ फिर से पढने -पढाने को मजबूर करती है।मेरे प्रवक्ता सम्मान समारोह पर चंद वामपंथी दोस्तों की तेजतर्रार प्रतिक्रिया ने फेसबुक पर गर्मी पैदा की है। मेरा उनसे कोई निजी पंगा नहीं है और मैं उनमें से सभी से कभी मिला तक नहीं हूँ। मैं निजीतौर पर वस्तुगत बहस में विश्वास करता हूँ और मैं चाहता हूँ कि यह बहस हो। वे भी निजी तौर पर मुझे नहीं जानते जितना भी परिचय है वह वर्चुअल है। ये सभी वामपंथी मित्र हैं और जमे हुए लेखक भी हैं। मैंने उनका वही पढा है जो नेट पर है।मैं निजी तौर पर उनका सम्मान करता हूँ। इस बहस का बहाना हैं वे लेकिन निशाने पर प्रवृत्तियां हैं ।
हमारे नेटमार्क्स प्रेमियों की उत्तेजना यदि सच में सही है तो उनको मार्क्स को लेकर नए सिरे बहस चलानी चाहिए और देखना चाहिए कि वहां क्या सार्थक है और ग्रहणयोग्य है। मार्क्सवाद जिंदाबाद करने से काम नहीं चलने वाला।
मार्क्स के दामाद थे लांफार्ज वह मानते थे कि मार्क्स की रचनाओं से विचारों की व्यवस्था और थ्योरी निकल रही है और यह मार्क्सवाद है। मार्क्स को जब यह बताया गया कि लोग आपके लिखे को मार्क्सवाद कह रहे हैं तो इसके जबाव में मार्क्स ने एंगेल्स को कहा था कि "मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ। "


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 2-

एंगेल्स ने फायरबाख को "शेखीबाज मिथ्या विज्ञान " का विशिष्ट प्रतिनिधि कहा था। उसके लेखन को आडम्बरपूर्ण बकबास कहा था। इसके बावजूद उन्होंने भद्रता को त्यागा नहीं था।एंगेल्स की भद्रता उनके लेखन में है और कर्म में भी है। जिस समय बर्लिन विश्वविद्यालय ने फायरबाख की अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला किया था उस समय एंगेल्स ने उसका प्रतिवाद किया था और इसे अन्याय कहा था। मार्क्सवाद पर बहस करते समय भद्रता बेहद जरुरी है ।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 3-

वामपंथी दोस्त क्रांति का बिगुल बजा रहे हैं और यह उनका हक है और उनको यह काम करना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे देश में लोकतंत्र संकट में है क्रांति नहीं।
प्रवक्ता डॉट कॉम के कार्यक्रम में मैंने कहा था हमारे देश में लोकतांत्रिक संरचनाएं तो हैं लेकिन हम अभी लोकतांत्रिक मनुष्य का निर्माण नहीं कर पाए हैं ।जरुरत है लोकतंत्र की और लोकतांत्रिक मनुष्य की। यही मुख्य बात थी जो वहां जोर देकर कही गयी थी।
फेसबुकिए वामपंथी मित्रों को सोचना चाहिए कि भारत में फिलहाल क्रांति को पुख्ता बनाएं या लोकतंत्र को ? हमें लोकतांत्रिक वामपंथी चाहिए या सिर्फ वामपंथी मनुष्य चाहिए ? क्या देश में क्रांति की परिस्थितियां है ?या लोकतंत्र को पुख्ता करने की जरुरत है ? वामपंथी मित्र जिन बातों को उछालते रहते हैं उनका लोकतंत्र के साथ कोई रिश्ता भी है या नहीं इसे देखना चाहिए।
कम से कम सीपीआई - सीपीएम के कार्यक्रम में कोई भी ऐसी बात नजर में नहीं आती जिससे पता चले कि देश क्रांति के लिए तैयार खडा है बल्कि यही नजर आता है कि बुर्जुआजी बार- बार और विभिन्न तरीकों से लोकतंत्र पर हमले कर रहा है। साम्प्रदायिकता इन हमलों में से एक है और यह काम वोटबैंक राजनीति से लेकर हिन्दू-मुस्लिम सदभाव को नष्ट करने के नाम पर संघ परिवार कर रहा है। इसी बात को मद्देनजर रखकर मैंने प्रवक्ता के कार्यक्रम में कहा था कि देश को लोकतंत्र में डेमोक्रेसी ही चाहिए। लोकतंत्र में लोकतंत्र का विकास होना चाहिए।
यह बताने की जरुरत नहीं है कि लोकतंत्र की सुविधाओं और कानूनों का तो हमारे वामपंथी-दक्षिणपंथी इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन लोकतांत्रिक नहीं होना चाहते और लोकतंत्र के साथ घुलना मिलना नहीं चाहते। लोकतंत्र सुविधावाद नहीं है। लोकतंत्र में एकमेक न हो पाने के कारण वामपंथियों को आज गहरे दबाव में रहना पड रहा है। लोकतंत्र में भाजपा -बसपा-सपा सबका विकास हो सकता है तो वामपंथी दलों का विकास क्यों नहीं हो सकता ? वे क्यों सही नीतियों के बावजूद देश में समानरुप से विकास नहीं कर पाए ? यह हम सभी की चिन्ता में है। इसका समाधान है कि वामपंथीदल और वामपंथी बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक बनें, अन्य का सम्मान करना सीखें। अन्य के सम्मान का अभाव उनकी अनेक बडी बाधाओं में से एक है।
वामपंथी सिर्फ अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाते हैं और यह सही वामपंथी नजरिया नहीं है। वामपंथ 'स्व ' के लिए नहीं 'अन्य' के लिए बना है। वामपंथी को भी अपने कैडर की बजाय अन्य के प्रति उदार और सहिष्णु होना पडेगा और उसकी सामाजिक अवस्था को स्वीकार करना पडेगा।
मैं जानता हूँ प्रवक्ता डॉट कॉम को संघ के सदस्य चलाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि किस तरह चलाते हैं ? वामपंथी दलों और संगठनों में सामान्य सा वैचारिक लोकतंत्र नहीं है वहां पर तो अपने ही सदस्यों को नेट या अखबार में स्वतंत्र रुप में खुलकर कहने की आजादी नहीं है। वामदलों और उनके समर्थकों की वेबसाइट पर कोई वैचारिक भिन्नता नजर नहीं आती। यह क्या है ?क्या यह लोकतंत्र है ? कम से कम बुर्जुआजी से उदारता और अन्य के विचारों के लिए स्थान देने वाली बात तो सीखी जा सकती है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 4-

इंटरनेट और उस पर वेबसाइट एक तकनीकी कम्युनिकेशन है। इसे न तो आर्थिकश्रेणी बनाएं और न वैचारिक श्रेणी बनाएं। मार्क्स ने "दर्शन की दरिद्रता "में लिखा है - "पाउडर,पाउडर ही रहेगा,चाहे उसका इस्तेमाल किसी को घायल करने के लिए क्या जाय या जख्म को सुखाने के लिए किया जाय। " मोहन श्रोत्रिय और उनके समानधर्मा वामपंथी मार्क्स के इस कथन से कुछ तो सीखेंगे।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 5-

फेसबुक पर हंगामा करने वाले वामपंथी मित्र विलक्षणी मार्क्सवादी हैं वे हमेशा एक ही भाषा में बोलते हैं,एक जैसा सोचते हैं। उनके विचार समान हैं। वे नैतिकता के आधार पर बातें करते हैं ,द्वंद्वात्मकता के आधार बातें नहीं कर रहे। वे भले-बुरे के राजनीतिक सरलीकरणों के आधार पर तर्क दे रहे हैं कि मुझे वहां यह नहीं कहना चाहिए ,वह नहीं कहना चाहिए।
सवाल यह है कि द्वंद्वात्मकता के सहारे, विचारों के अन्तर्विरोधों के सहारे वे मार्क्सवाद को जनप्रिय क्यों नहीं बना पाते ? इस समाज में "वे अपवित्र और हम पवित्र " की धारणा के आधार पर वैचारिक संवाद और सामाजिक संपर्क-संबंध नहीं बनते। अंततःसंबंध सामाजिक प्राणियों में होता है और इसके लिए मिलना और करीब से जानना बेहद जरुरी है।




आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 6-

फेसबुकवामपंथी मित्र अशोक पाण्डेय ने लिखा है "आपने संघियो की महफिल में वाहवाही लूटने के लिए ख़ुद को कभी विचारधारा की कभी ज़रूरत न पड़ने की जो बात कही, और जिसका कोई अन्य विश्लेषण नहीं प्रस्तुत किया, उससे आप केवल ख़ुद को उस श्रेणी में सेट कर रहे थे जिसे थानवी के लिए आपने 'नो आइडियालजी' कहा था।"

बंधुवर, यहां ओम थानवी को काहे घसीट लाए वे कोई विचारक नहीं हैं । आपने जो बात कही है उसकी गंभीरता से मीमांसा की जानी चाहिए ,आप गंभीर वामपंथी होने का दावा करते हैं। आपने मेरे विचारों को संघियों की महफिल में वाहवाही लूटने से जोड़कर मेरी धारणाओं को पुष्ट किया है कि आपने मार्क्सवाद को ठीक से पढा ही नहीं है।
क्या मनुष्य की तमाम धारणाएं ,कल्पनाएं और भावनाएं परिवेश के प्रभाव का परिणाम होती हैं ?यदि परिवेश से विचार निर्धारित होते हैं तो मार्क्स का क्रांतिकारी नजरिया बुर्जुआ समाज में क्यों पैदा हुआ ? हमें इस यांत्रिक धारणा से मुक्त होना होगा कि मनुष्य का आत्मिक संसार उसके परिवेश का फल है। या मनुष्य के परिवेश से उसके विचार निर्धारित होते हैं।रुसी मार्क्सवाद के दादागुरु जी .प्लेखानोव बहुत पहले इस तरह की मानसिकता की मरम्मत कर गए हैं। इस समझदारी का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 7-

प्लेखानोव ने लिखा है- "किसी सुशिक्षित व्यक्ति की पहली विशेषता प्रश्नों को प्रस्तुत करने की क्षमता में तथा इस बात को जानने में निहित होती है कि आधुनिक विज्ञान से किन -किन उत्तरों की मांग की जा सकती है। "


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-8-
फेसबुकवामपंथी कहते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारधारा है।
मित्रवर ,प्लेखानोव की नजर में " यह विचारधारा नहीं द्वंद्वात्मक तरीका है। परिघटनाओं की उनके विकासक्रम की,उनकी उत्पत्ति और विनाश के क्रम में जांच-पड़ताल करने का तरीका है।"
मैं विनम्रता से कहना चाहता हूँ मार्क्सवाद को भ्रष्टरुप में पेश करना बंद कर दें।
एक अन्य बात वह यह कि आधुनिककाल में भाववाद के खिलाफ विद्रोह की पताका सबसे पहले लुडबिग फायरबाख ने उठायी थी न कि मार्क्स ने।

आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-9-

फेसबुकवामपंथी अशोक पाण्डेय ने कल सवाल किया था- " द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारधारा है कि नहीं महात्मन? दर्शन है कि नहीं? "
एंगेल्स ने द्वंद्वात्मक चिंतन के बारे में लिखा है- " द्वंद्ववाद क्या है ,इसे जानने से बहुत पहले भी मनुष्य द्वंद्वात्मक ढ़ंग से सोचते थे। ठीक उसी तरह जिस तरह गद्य शब्द के पैदा होने से बहुत पहले भी वे गद्य में बोलते थे। " एंगेल्स ने इसे निषेध का निषेध माना है। मार्क्स-एंगेल्स की नजर में यह नियम है ,विचारधारा नहीं है। चाहें तो फेसबुकवामपंथी एंगेल्स की महान कृति "ड्यूहरिंग मत खण्डन" पढ लें तो चीजें खुलकर साफ हो जाएंगी। मित्रो ,जब नियम और विचारधारा का अंतर नहीं जानते हो तो फेसबुक पर वामपंथ की रक्षा कैसे करोगे ?यहां तो बटन के नीचे ही मार्क्स-एंगेल्स की सभी रचनाएं रखी हैं।


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-10-

फेसबुक पर मार्क्सवाद की इस चर्चा का समापन करते हुए मुझे एक वाकया याद आ रहा है।
जार्ज बुखनर ने कहा था कि अकेला व्यक्ति लहर के ऊपर फेन है और मनुष्य एक ऐसे लौह नियम के अधीन है, जिसका पता तो लगाया जा सकता है,किन्तु जिसे मानवीय इच्छा शक्ति के मातहत नहीं किया जा सकता। मार्क्स उत्तर देते हैंः नहीं,इस लौह नियम का एकबार पता लगा लेने के बाद यह हम पर निर्भर करता हैकि उसके जूए को उतार फेंकें,यह हम पर निर्भर करता है कि आवश्यकता को बुद्धि की दासी बना दें।

भाववादी कहता है , मैं कीड़ा हूँ।द्वंद्वात्मक भौतिकवादी आपत्ति करता हैःमैं तभी तक कीड़ा हूं,जब तक मैं अज्ञानी हूं, किन्तु जब मैं जान जाता हूं ,तो भगवान हो जाता हूं!

Monday, October 14, 2013

feeling सीता सीता


सुनीता सनाढ्य पाण्डेयलो जी...अभी अभी एक और वाक़या हो गया मेरे साथ...

{अब आप ये मत कहना कि सब वाकये मेरे साथ ही क्यूँ होते हैं?...बात दरअसल ये है कि आप लोग अपने साथ होने वाली घटनाओं से मुझे हँसाना ही नहीं चाहते इसलिए उन्हे शेयर ही नहीं करते... }

हाँ, तो हुआ यूं कि मेरी किचन की एक ड्रॉअर ख़राब हो गयी थी ...कई दिन से उस किचन की दुकान पर फोन कर रही थी मैं तो आज उन्होने एक बंदे का नंबर दिया उसका नाम था 'हनुमान'...

अब सुनिए हमारा संवाद...ये ध्यान में रखिएगा कि कल ही दशहरा गया है...

मैं : हेलो ,आप हनुमान जी बोल रहे हैं?
उधर से: हांजी, मैं हनुमान बोल रहा हूँ....

जाने क्यूँ मेरी हंसी छूट गयी फिर अपने आप को संयत करते हुए मैंने कहा, 'अब तो रावण भी जल गया हनुमान जी आप मेरा किचन ठीक करने कब आएंगे?'....

ख़ैर....

फोन रखने के बाद मेरी शैतानी खोपड़ी फिर चल पड़ी अपने काम पर...मैं सोच रही थी कि यदि मेरा नाम 'सुनीता' न होकर 'सीता' होता तो?

ही ही ही....तो क्या.....बेचारे ऊपर वाले हनुमान जी अपना माथा ठोंक रहे होते और सोच रहे होते कि ये ही क्या कम था कि इन्हे रावण से बचाया...अब इस कलजुग में इनके किचन भी ठीक करो...हे प्रभु राम...बढ़िया लुत्फ़ उठा रहे हो आप मुझ जैसे सेवक का....
 — feeling सीता सीता 


यह लेख सुनीता सनाढ्य पाण्डेय जी के फेसबुक वाल से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है। मूल लेख देखने के लिए यहां क्लिक करें

तूफान और हादसे के बीच खड़े हम हिन्दुस्तानी!

जयदीप कर्णिक
(संपादक: वेबदुनिया.कॉम)
हम तूफान से तो लड़ सकते हैं....पर अपने आप से ...? तूफान से तो हम लड़ भी लिए पर अपने आप से लड़ाई फिर एक बार हार गए...।

एक तरफ सारा देश ओडिशा और आंध्र में फैलिन के हालात पर अपनी नज़रें गड़ाए था तो दूसरी ओर एक बड़ा हादसा बस हो जाने का इंतजार कर रहा था।

एक तरफ तूफान से लड़ने की तैयारी, 9 लाख लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना, सेना, प्रशासन, मौसम विभाग, आपदा से निपटने वाली टीम और मीडिया की भूमिका को देखकर सीना चौड़ा हो रहा था, मन उनको सलाम कर रहा था तो दूसरी ओर हमारे इस गर्व को काफूर कर देने वाला हादसा आकार ले रहा था, आसमान की ओर उठा हमारा सिर शर्म से झुकने को मजबूर हो गया।

एक तरफ़ मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ट्वीट कर रहे थे कि फैलिन तूफान से निपटने में उनकी सरकार ओडिशा सरकार की हर संभव मदद करेगी तो दूसरी ओर उनकी अपनी सरकार के नाकारा अधिकारी ख़ुद अपने घर में एक नया तूफान खड़ा कर रहे थे।

रतनगढ़ माता के दर पर 116 जानें चली गईं। घायल अभी अस्पताल में हैं। मरने वालों में 30 से ज़्यादा बच्चे हैं। कुछ तो बिलकुल दुधमुँहे। अपनी माँ की छाती से लिपटे पड़े इन मासूमों का आप्त स्वर रूह को निचोड़ देने वाला है। 2006 में भी यहीं माता के दर पर 57 जानें गईं थीं। .... कुछ नहीं। मुट्ठी भर पुलिस वाले और लाखों लोगों का सैलाब.... सब भगवान भरोसे। जिम्मेदार अधिकारी छुट्टी पर। पैसे लेकर ट्रैक्टर ट्राली को पुल पर जाने दिया गया। अफवाह फैली। भगदड़ मची। पुलिस की लाठियाँ चलीं। और अधिक भगदड़ मची। जानें चलीं गई। ... भगदड़ के असली कारण पर जाँच होती रहेगी और सच शायद तब भी सामने ना आए। ... 

पर एक सच पक्का है... शर्मनाक लापरवाही और हादसों से सबक ना लेने का। सच, गरीब की जान सस्ती होने का। सच, आस्था के साथ दिन-रात होते खिलवाड़ का। सच, जनता और व्यवस्था के भगवान भरोसे होने का।

हमारे तमाम धार्मिक स्थलों पर उमड़ने वाली भीड़ और वहाँ मचने वाली लूट, भगवान और आस्था के नाम पर रुपया बना लेने की होड़ क्या कड़वा और बड़ा सच नहीं है? अभी उत्तराखंड में लाशों की अंगुली काटकर अंगूठियां निकाल ली गईं। ..... हमारे तमाम हौसले, हुनर और बेहतरी के बीच लगे ये ऐसे टाट के पैबंद हैं जो हमारी खुशी को मुकम्मल नहीं होने देते।

श्रेष्ठता और बदइंतजामी दोनों के नमूने हम खुद ही पेश करते हैं। हम अपने ही दुश्मन आप हैं। जब तक हम अपने आप से आँख मिलाकर इन सच्चाइयों का सामना नहीं कर लेते... तूफान को जीत लेने का हमारा जश्न अधूरा ही रहेगा

कभी हमारे डॉक्टर इसलिए सम्मानित होते हैं कि एक जान बचाने के लिए उन्होंने अपनी जान लगा दी तो कभी जहरीले मध्यान्ह भोजन से ही हमारे यहाँ 23 स्कूली बच्चे मारे जाते हैं। धड़धडाती ट्रेन कावड़ यात्रियों पर चढ़ जाती है तो कभी किसी कृपालु महाराज के भंडारे में भगदड़ से लोग मारे जाते हैं। श्रेष्ठता और बदइंतजामी दोनों के नमूने हम खुद ही पेश करते हैं। हम अपने ही दुश्मन आप हैं। जब तक हम अपने आप से आँख मिलाकर इन सच्चाइयों का सामना नहीं कर लेते... तूफान को जीत लेने का हमारा जश्न अधूरा ही रहेगा। वो सभी जिनकी जान रतनगढ़ हादसे में गई है, उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि और ये उम्मीद की इस मोर्चे पर भी हम तूफान से जंग जीत ही लेंगे। - जयदीप कर्णिक

यह लेख जयदीप कर्णिक जी के फेसबुक वाल से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.. जयदीप जी से संपर्क करने के लिए यहां क्लिक करें 

Saturday, October 12, 2013

कालू का बिरजू... अब नहीं लौटेगा

अनिल सिंह
(पत्रकार: भड़ास4 मीडिया में
कंटेंट एडिटर के पद पर
कार्यरत रहे अनिल सिंह
ने ढ़ेर सारे पत्र-पत्रिकाओं
के प्रकाशन में सक्रिय भूमिका निभाई।
फिलहाल लखनऊ समेत 7 जगहों से
प्रकाशित डीएनए अख़बार में
महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं)

बरसों पहले की बात है रामपुर गांव का बिरजू पढ़ने के लिए कॉलेज गया. गरीब बिरजू को पढ़ने के अलावा कोई अधिकार नहीं था. अमीरों के शहर में कोई उसे पसंद नहीं करता था. सब उससे दूर रहते थे, कोई उससे बात नहीं करता था. बिरजू फिर भी बुरा नहीं मानता था. उसे लगता था कि यह सब उसकी नियति में लिखा है. अपनी हकीकत का पता होते हुए वह सपने देखा करता था. मेहनत से बड़ा आदमी बनने का सपना. पर गरीबों के सपने कब पूरे होते हैं. मेहनत करके बड़ा बनना तो सबसे बड़ा मजाक था, फिर भी वो इस मजाक को हकीकत में बदलने की कोशिश में लगा रहता था. 

उसे किसी से प्‍यार हो गया था, लेकिन उसके पास बताने की हिम्‍मत नहीं थी. क्‍यों कि वह गरीब था. गरीबी उसका सबसे बड़ा अभिशाप था. दिन बीतते गए. वो सपनों और हकीकत बीच उलझा रहा. ना इधर का हुआ और ना उधर का हो पाया. जिससे उसे प्‍यार था, उसको कभी समझा नहीं पाया, बता नहीं पाया. एक बार कोशिश की तो उसकी कीमत थप्‍पड़ खाकर और औकात में रहने की हिदायत के साथ चुकानी पड़ी. एक दिन लड़की की शादी उसके मां-बाप ने एक अमीर आदमी से कर दिया. लड़की बहुत खुश थी. उसे किसी चीज की कमी नहीं थी. 

बिरजू कुछ नहीं बन पाया, लेकिन उस लड़की को भूल भी नहीं पाया. गरीब बाप ने पेट काटकर उसे पढ़ाया था, लेकिन बिरजू अपनी-उनकी किसी की तकदीर नहीं बदल सका. वो गड़ेरिया स्‍टेशन पर कुली बन गया. गरीबी में भी उसकी प्‍यार करने की बेशर्मी उतरी नहीं थी. स्‍टेशन पर खाली समय में वो उसे याद करता रहता था. साथी कुली और रिक्‍शावाले उसे पागल कहने लगे. क्‍योंकि उसे पागल कहने का बुरा नहीं मानता था, क्‍योंकि बुरा मानकर भी वो कुछ नहीं कर सकता था. अपनी कमजोरी को उसने अपनी ताकत बना ली थी. उसे उम्‍मीद थी कि कभी तो वो लड़की गड़ेरिया स्‍टेशन पर आएगी, लेकिन वो अमीर आदमी के साथ ब्‍याही गई थी, उसे प्‍लेन से आना ज्‍यादा अच्‍छा लगता होगा, इसलिए सालों वो किसी ट्रेन से गड़ेरिया स्‍टेशन पर नहीं उतरी. फिर भी बिरजू ने उम्‍मीद नहीं छोड़ी थी.

आखिर एक दिन एक ट्रेन गड़ेरिया स्‍टेशन पर आकर रूकी. बिरजू की निगाहें शीशे वाली बोगी की तरफ जम गया. आखिर वो पैसे वाली थी और ठंडा-गरम करने वाले बोगी से नीचे तो आ ही नहीं सकती थी. रोज की तरह बिरजू थकी आंखों को समेटकर निराश होने जा रहा था, लेकिन शायद आज उसे निराश होने की जरूरत नहीं थी. 

अमीर आदमी की पत्‍नी, जिसे वह बहुत प्‍यार करता था, सोने में लदी ठंडा-गरम करने वाली बोगी से नीचे उतरी. बिरजू भागा-भागा पहुंचा. उसे लगा कि वह लड़की उसे पहचान लेगी, लेकिन लड़की की आंखों पर अमीरी के साथ महंगा वाला चश्‍मा लगा हुआ था. 

उसने बिरजू को बुलाया ओए कुली इधर आ. बिरजू को लगा कि अब उसे पहचान जाएगी, लेकिन बिरजू को निराशा हाथ लगी. अमीर आदमी ने कहा - ओए कुली ये सामान उठाकर बाहर ले चलो. आज पहली बार बिरजू सामान उठाते समय मोल भाव करना नहीं चाहता था. उसने मोल भाव किया भी नहीं. इस बार उसे डर भी नहीं लगा था कि उसकी मजूरी मारी जाएगी. वो अमीर आदमी और उस लड़की के पीछे चलने लगा. 

स्‍टेशन से बाहर निकलते ही एक चमचमाती गाड़ी खड़ी मिली. इसे लड़की के बाप ने अपने अमीर दामाद को लाने के लिए स्‍टेशन भेज रखा था. बिरजू ने सामान गाड़ी में रखकर खड़ा रहा कि लड़की अब भी पहचान जाएगी कि यह बिरजू ही है, जिसे उसने थप्‍पड़ मारा था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. अमीर आदमी ने बिना पूछे बिरजू को सौ रुपए का नोट पकड़ा दिया. बिरजू जब बीस रुपए वापस करने चाहे तो अमीर आदमी की पत्‍नी ने उसे टिप समझकर रख लेने को कहा. अब उसे लगने लगा था कि लड़की ने उसे पहचान लिया था. उसने व्‍यंग्‍य के साथ मुस्‍कान बिखेरी जैसे कह रही हो, चले आए थे मुझसे प्‍यार करने, तेरी औकात तो इस बीस रुपए के टीप से ज्‍यादा नहीं थी. 

चमचमाती गाड़ी धीरे धीरे बिरजू से दूर जा रही थी. साथ ही उससे दूर जा रही थी वो उम्‍मीद, जो उसको अब तक गरीबी, तमाम कमजोरियों के बाद जिंदा रखे हुए थी. उसे हर ट्रेन से किसी के आने का इंतजार तो था, जो उसे जिंदा रखे हुए था. बाप-मां के लिए नालायक तो वह पहले से ही हो गया था. 

दुनियावालों के लिए तो उसकी कोई अहमियत नहीं थी. उसकी जरूरत किसी को नहीं थी. इतना होने के बाद भी वो जिए जा रहा था, पता नहीं किसलिए जिए जा रहा था. पर आज कुछ हो गया था. वो उदास था. स्‍टेशन की उस पुलिया के नीचे, जहां वो अपना समय काटता था, उसका दोस्‍त बन चुका कालू कुत्‍ता भी आज उससे कुछ ज्‍यादा ही प्‍यार जता रहा था. वो उसकी गोद में बैठने का प्रयत्‍न करता ताकि बिरजू रोज की तरह उसको अपने हाथों से सहलाए, पर आज ऐसा कुछ नहीं हो रहा था. कालू थक कर उसकी पीठ की तरफ सो गया. अब वो भी बिरजू से प्‍यार जताना नहीं चाहता था.

फिर कालू उठकर कहीं चला गया. शायद गुस्‍सा था. सुबह बिरजू की लाश पटरियों पर मिली. पुलिस ने उसे उठाकर प्‍लेटफार्म पर रखवाया. एक सफेद चादर से ढंक दिया गया बिरजू के शव को. लोग आते जाते रहे, किसी ने भी मरने वाले के बारे में जानने की कोशिश नहीं की. बिरजू की किसी को जरूरत नहीं थी, लेकिन ऐसा नहीं था.

कालू अब भी उसके लाश के पास गुमसुम बैठा था. उसकी आंखों में आंसू थे. शायद इस बात के लिए कि वो आज बिरजू को छोड़कर गया ही क्‍यों. कालू शव गाड़ी के काफी पीछे तक दौड़ा लेकिन वो वहां तक पहुंच नहीं पाया. वापस लौट आया, उसी पुलिया के नीचे जहां उसने बिरजू को छोड़ दिया था. क्‍या पता बिरजू फिर आ जाए. आखिर उसके अलावा बिरजू को किसी और ने चाहा भी तो नहीं था.

(यह कहानी अनिल सिंह जी के फेसबुक वाल से साभार लेकर यहां प्रकाशित की गई है। आप इस अनिल सिंह के फेसबुक वाल पर भी पढ़ सकते हैं। इस कहानी के वास्तविक स्रोत पर जाने के लिए यहां क्लिंक करें)

Friday, October 11, 2013

वो सचिन का “असर” था...ये सचिन का “असर” है !

आगे बढ़ने से पहले..
मनीष शर्मा
(स्पोर्ट्स हेड: महुआ न्यूज)
बात 1995-96 की है| मैं उत्तर प्रदेश स्पोर्ट्स कॉलेज (लखनऊ) में था| दीपावली की छुट्टियों पर घर आया हुआ था| रिश्तेदारों, मुहल्ले और आस-पास के इलाकों में नाम हो चला था| मेरी माता, जिनकी पृष्ठभूमि पूरी तरह से ग्रामीण है, और जिनके लिए क्रिकेट का मतलब काला अक्षर भैंस बराबर था, का इसी वजह से खेल में इंट्रेस्ट पैदा हुआ| भारत का कोई मैच चल रहा था और सचिन आउट हो गए| मेरे मुंह से निकला: 

“ओह शिट, सचिन आउट हो गया....”

मम्मी ने खाना बनात-बनाते कहा;

“कोई बात नहीं सचिन आउट हो गया..तेंदुलकर तो बाकी है न, वो मैच जिता देगा”

ये वो बात है, जिसे लेकर आज भी मम्मी की खिंचाई करते हैं...

बहरहाल, ये वो दौर था, जब सचिन कमोबेश हर दिन हिंदुस्तान के घर-घर (गांव के दूर दराज के एरिया में भी) में चर्चा का विषय बन चुके थे...उनकी आभा एक नया मुकाम गढ़ने की ओर बढ़ रही थी...वो मां-बाप भी अपने बच्चों में सचिन को ढूंढने लगे थे, जिन्हें न क्रिकेट समझ में आती थी, न ही जिनकी खेल में तनिक भी रुचि थी| लेकिन सचिन ने ऐसे ही न जाने कितने लाखों-करोड़ों लोगों का क्रिकेट से परिचय ही नहीं कराया, बल्कि खेल का और अपना मुरीद भी बना दिया....इसमें उन घरेलू महिलाओं की संख्या भी बहुत बड़ी तादाद में थी, जिनकी दुनिया टीवी सीरियलों या रसोईघर तक ही सीमित थी....ये सचिन का असर था...

भारत तेजी से (उस दौर में) में आर्थिक तरक्की की ओर अग्रसर था और उदारीकरण के बाद अगर बाजार, या विदेशी कंपनियां और ज्यादा क्रिकेट पर मेहरबान होना शुरू हो गए, तो उसमें सचिन का असर सबसे बड़ा था...धोनी आज भले ही भारतीय बाजार और ब्रांड्स (विज्ञापनों) के बादशाह बने हुए हैं, लेकिन सच ये है कि इसकी नींव करीब डेढ़ दशक पहले सचिन ने ही रखी थी।

सचिन का पहली बार जब साल 1995 में वर्ल्ड टेल से करोड़ों का करार हुआ, तो वो मां-बाप जिनकी जुबां पर एक ही मुहावरा रहता था- “पढ़ोगे लिखोगे, बनोगे नवाब’, खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब, बच्चों को खुद मैदान पर लेकर पहुंचने लगे....बेटे के सचिन बनने की उम्मीदों के साथ..ये सचिन का असर था.

वो भी समय आया, जब भारतीय टीम की जीत और सचिन और एक-दूसरे के पूरक बन गए...वो भी समय था, जब सचिन का चलना टीम की जीत होता था...सचिन का जल्द आउट होने का मतलब था टीम की हार....ऐसे भी करोड़ों क्रिकेटप्रेमी थे, जो सचिन के आउट होते ही टीवी का स्विच ऑफ यकर देते थे...ये दौर लंबे समय तक चला...और ये वो दौर (अच्छा खासा) था, जब सचिन वास्तव में खेल से बड़े हो गए!!


शायद मैं गलत हो सकता हूं कि लेकिन सचिन ने अपनी सर्वश्रेष्ठ क्रिकेट (चरम परफॉर्मेंस, कंसिस्टेंसी) 95 से 2000 तक खेली...कई प्रथम श्रेणी (रणजी, दलीप ट्रॉफी) क्रिकेटरों को मैंने सचिन की तकनीक की नकल करने पर घंटों पसीने बहाते देखा...कई क्रिकेटरों का करियर सचिन की नकल करते-करते खत्म हो गया...ये कहते कहते- “देख, सचिन की तरह ही खेला न ये शॉट”...ये सचिन का असर था, लाख कोशिशों के बावजूद इक्का दुक्का क्रिकेटर सचिन की तकनीक के आस-पास पहुंच पाने में कामयाब रहे..मसलन वीरेंद्र सहवाग। ये सचिन का असर था.....करोड़ों बच्चे मैदान पर सचिन बनने पहुंचने...कभी नहीं ही बन सकते थे...लेकिन टीम इंडिया को सहवाग मिल गए.. विराट कोहली मिल गए...ये सचिन का ही असर है...अब सचिन क्रिकेट से जा रहे हैं....ड्रेसिंग रूम में, भारतीय क्रिकेट में इससे बहुत ही बड़ा शून्य पैदा हो जाएगा??...क्या ये कभी भर पाएगा???...क्या हमारे मरने तक???.....क्या अगले सौ-डेढ़ सालों तक??........ये सचिन का असर है....और ये असर हमेशा रहेगा!!...ब्रह्मांड में क्रिकेट के अस्तित्व तक जब भी बड़े परिप्रेक्ष्य में क्रिकेट पर गंभीर चर्चा होगी, तो सचिन के इस असर की चर्चा अनिवार्य रूप से होगी ही होगी और करनी पड़ेगी...क्योंकि बिना इस चर्चा के क्रिकेट की हर बाइबल, महाभारत और क्रिकेट का हर ग्रंथ अधूरा रहेगा...धन्यवाद सचिन बहुत बहुत धन्यवाद...इतना ढेर सारा आनंद और गौरव देने के लिए...!

Wednesday, October 9, 2013

एहसास ...पहली बार लड़की होने का!

मनीष पाण्डेय
(फीचर संपादक:इंडिया टुडे)
एक दिन मेरी एक दोस्‍त ने पूछा, अच्‍छा ये बताओ, तुम्‍हें जिंदगी में पहली बार अपने लड़की होने और इस कारण लड़कों से कुछ अलग होने का एहसास कब हुआ। 

मैं सोचने लगी। 

जब पहली बार पीरियड्स हुए थे, तब? 

नहीं। 

लड़की होने की शुरूआत तो उसके बहुत पहले ही हो चुकी थी। बहुत बहुत पहले। तब मैं चौथी में पढ़ती थी। गर्मियों की छुट्टियां थीं। मैं और मेरे बड़े पापा के दोनों बेटे आम के पेड़ के नीचे सांप-सीढ़ी खेल रहे थे। एक भाई मुझसे दो साल बड़ा था और एक एक साल छोटा। तीनों लगभग हमउम्र थे। खेल बहुत क्रिटिकल मोड़ पर था। जीवन-मरण सब उस खेल में। किसे सांप काटेगा, किसको सीढ़ी मिलेगी। उस वक्‍त खेल के आगे कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था। तभी अंदर से आवाज आई, 

मनीषा................................ 

मैंने सुनकर अनसुना कर दिया। आधे मिनट में फिर

मनीषा................................ इस बार आवाज ज्‍यादा तेज थी

मैं डर के मारे भागकर अंदर गई।

बड़ी मां बर्तन धो रही थी। मुझे तुरंत आदेश मिला, "ये सारे कप ले जाकर किचन में रखो।" मैंने दौड़कर कप किचन में पहुंचाए। "अब ये प्‍लेट भी रखो, ये बर्तन भी रखो, वो बर्तन भी रखो।" मैं दौड़-दौड़कर बर्तन किचन में पहुंचाती रही, लेकिन मेरा पूरा ध्‍यान तो खेल में लगा हुआ था। कहीं उन लोगों ने बेईमानी कर दी तो। कहीं सांप के आगे वाले खाने में अपनी गोटी रख दी दो। कहीं झूठमूठ सीढ़ी चढ़ गए तो। कहीं पांच को छह बोलकर सांप के मुंह से बचकर निकल गए तो। कहीं मैं हार गई तो।

लेकिन किसी को मेरे दिल से क्‍या, मेरे खेल से क्‍या। उन्‍हें तो बर्तन रखवाने थे किचन में। मैं काम निपटाकर वापस भागी तो फिर पांच मिनट में आवाज लगी। "बड़े पापा को चाय देकर आओ।" उसके बाद क्‍या हुआ, मुझे याद नहीं।

सिर्फ दौड़-दौड़कर बर्तन किचन में पहुंचाने की याद है मुझे।

उस दिन बहुत तकलीफ हुई थी। ठीक-ठीक समझ में नहीं आया लेकिन फिर भी दुख तो हुआ था कि भाई को क्‍यों नहीं बुलाया। छोटे वाले को न सही, तो बड़े को ही आवाज दी होती। उन तीनों में बर्तन रखने के लिए, चाय देने के लिए मुझे ही क्‍यों आवाज लगाई गई। बड़ी मां के लिए उस वक्‍त वो काम करवाना उतना इंपॉर्टेंट नहीं था, लड़की को घर का काम सिखाना इंपॉर्टेंट था। वो दिन भर किसी न किसी बहाने मुझे घर के काम सिखाने की कोशिश किया करती थीं।

..............................

वक्‍त गुजर गया। शायद मैं भूल भी गई थी। शायद मैं कभी नहीं भूली। शायद मेरे सबकॉन्‍शस में वो क्षण कैद हो गया। उस दिन मुझे लगा कि मैं अलग हूं। अपने भाइयों से अलग।

मैंने पल्‍लवी से कहा, "उस दिन मुझे पहली बार अपने लड़की होने का एहसास हुआ।"

उसके बाद तो इतनी कहानियां हैं, इतनी कहानियां कि शायद संसार के सारे कागज खत्‍म हो जाएं, लेकिन कहानियां खत्‍म नहीं होंगी।

(मनीषा पाण्डेय जी के फेसबुक वाल से साभार)

Monday, October 7, 2013

...हिटलर और मोदी में समानताएं!

मोदी क्यों है जरुरी(Without Editing)!
लाख बर्बादियों के बावजूद हिटलर आधुनिक जर्मनी के निर्माता हिटलर ने प्रचार माध्यमों के बेहतर उपयोग और आक्रामक वक्ता के तौर पर खुद को जर्मनी का भाग्य-विधाता के तौर पर स्थापित किया, ठीक वैसे ही मोदी भी कर रहा है। 
हिटलर की नात्सी पार्टी और आरएसएस की सलामी एक जैसी दोनों में सांगठनिक स्तर पर समानता है।
मोदी और हिटलर मे एक बुनियादी अंतर यह है कि हिटलर ने नात्सी पार्टी की स्थापना की, जबकि मोदी का जन्म आरएसएस की कोख से हुआ. हिटलर वास्तविक जर्मन जाति यानि आर्यों की श्रेष्ठता को मानता था, जबकि मोदी भारतीय यानि हिंदुओं को सर्वश्रेष्ठ मानता है।
हिटलर ने युवावस्था ए दौरान प्रथम विश्वयुद्ध में सन्देश वाहक की भूमिका निभाई, जबकि मोदी ने ६५ के युद्ध के दौरान एनसीसी कैडेट के रूप में सैनिकों की सेवा की।
हिटलर को शुरूआती चुनाव में असफलता हाथ लगी, ठीक मोदी को भी गुजरात से हटाकर केंद्र भेजा गया।
हिटलर को ३२ में चालंसर बनाया गया, जबकि मोदी के हाथो में भी सत्ता अचानक ही आई, जब उन्हें गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया।
हिटलर ने राष्ट्रवाद का नारा देकर सैन्य ताकत को सर्वश्रेष्ठ माना, ठीक वैसा ही मोदी के साथ भी है ।
हिटलर में जर्मनी को वर्साय की अपमानजनक संधि से बाहर निकाला, जबकि मोदी का भी पाकिस्तान को लेकर अलग ही नजरिया(जोकि आक्रामक है) है।
हिटलर ने सैन्य शक्ति और १०० प्रतिशत के उत्पादन को प्राथमिकता दी, जबकि मोदी के साथ भी ऐसा ही है। मोदी ने भी गुजरातियों का हौव्वा खड़ा कर रखा है।
हिटलर ने पहले से मौजूद हरी वर्दीधारी पुलिस और स्टार्म त्रूपर्स के अलावा गोस्तापो, सुरक्षा सेवा और अन्य पुलिसिया इकाइयों का गठन कर उनके हाथो में पूरी ताकत दी, वह जब चाहे किसी को भी गिरफ्तार कर सकते थे और बिना कोई कारण बताए देश निकाला दे सकते थे, इनकाउंटर कोई बड़ी बात नहीं थी, जबकि मोदी के राज में भी पुलिस बल के पास बेहिसाब ताकत की व्यवस्था की गई, जिसके फलस्वरूप ढेर सारे फेक इनकाउंटर हुए जिनका खुलासा बाहरी लोगों के सक्रीय होने की वजह से हुआ।
हिटलर के चलांसर बनने के समय मार्क की शुरुआती की कीमत एक अमेरिकी डॉलर=24000 मार्क थी, जों बढ़कर 9,88,60,000 मार्क प्रति डॉलर हो गई, जबकि इस समय भारतीय मुद्रा की कीमत 68 रूपए तक गिर चुकी है।
हिटलर को रोकने के लिए साम्यवादी और समाजवादी कभी एक नहीं हो सके, क्योंकि वाइमर गणराज्य ने कम्युनिस्टों को रौंद दिया था, जबकि भारत में मोदी को रोकने के लिए साम्यवादी, समाजवादी और कांग्रेस(समाजवादी) सभी एक हैं, फिर भी न तो हिटलर को रोका जा सका था और न ही मोदी को रोकने में कोई सफल हो पा रहा है।
तात्कालीन जर्मनी बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा था, उसपर विदेशी कर्ज के अतिरिक्त बेरोजगारी और घोटालों के दाग थे, ठीक ऐसी ही स्थिति भारत देश की भी है।
हिटलर ने शुरूआती कुछ वर्षों में ही विदेश निति में काफी सफलता प्राप्त कर ली थी, जबकि मोदी भी इस मामले में काफी आगे दिखाई देते हैं। मोदी को अमेरिकी वीजा भले ही न मिला हो लेकिन वहा के कांग्रेस में इस बाबत कई बार चर्चा हो चुकी है, जबकि इन्गैल्ड और ऑस्ट्रेलिया के प्रतिनिधि स्वयं मोदी से मुलाक़ात कर चुके हैं।
1889 में पैदा हुआ हिटलर 1949 में मर गया, जबकि उसके मरने के कुछ सालों बाद जन्मे मोदी में हिटलर के सारे गुण दिखाई पड़ते हैं, हां! दोषों में काफी हद तक कमी है। तो क्या यह माना जाए कि भारत के निर्माण का समय आ गया है? क्या यह माना जाए कि मोदी के राज में देश कई गुना तेजी से विकास करेगा?
हिटलर का उदय जब हुआ तो देश लाचार था, लेकिन हिटलर जब मरा तो भी देश लाचार था। फिर भी सबसे बड़ा अंतर हिटलर के होने का यह रहा कि हिटलर ने बता दिया कि किसी भी देश की जनता के साथ अगर नाइंसाफी होगी वह अपने तरीके से जरूर बदला लेगी। हिटलर ने देश की जनता से जो वादा किया था, वह पूरी तरह से निभाया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जो भी क्षेत्र मूल जर्मनी का होने के बावजूद दूसरों को बांट दिए गए थे, हिटलर की मृत्यु के बाद भी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह जर्मनी बांटते, हालांकि दो महाशक्तियों ने जर्मनी आपस में बांटा जरुर, लेकिन जर्मन एकता का जो भाव हिटलर ने आम जर्मनों में भरा था, वह आज भी जिन्दा है।
हिटलर ने जो उद्योग धंधों में तेजी लाइ, और जर्मनी को दुनिया का सिरमौर बनाया वह आज भी बना हुआ है, वरना क्या गारंटी थी कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी जर्मनी से ढेर सारा माल न उगाहा गया होता?
यह हिटलर का ही कमाल था कि दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति पर बिना शर्त युद्ध को बंद घोषित किया गया, यह दुनिया में पहली बार हुआ। 
अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाज के संकट के फलस्वरूप जर्मनी में हिटलर का उदय हुआ, जबकि मोदी ने ऐसी ही हवा बनाकर खुद को सामने खड़ा कर लिया है, हिटलर में भी आम जानता को खुद का मसीहा दिखाई देता था, जबकि मोदी के मामले में भी एक खास वर्ग ऐसा ही मान बैठा है।

Saturday, October 5, 2013

निंदिया

निंदिया की तलाश में मुसाफिर: श्रवण शुक्ल
जमाने बाद आधी रात को भी
भागी रही निंदिया
आई भी तो चली गई
पौने तीन बजे सुबह ही आंख
ऐसे खुली कि खुली ही रह गई 

मचलते रहें, बिस्तर पर
न मिला कोई ठौर निंदिया का
पलटते रहे, मचलते रहे
फिर नहीं चला दौर निंदिया का

उठे, कपडे पहने
और निकल दिए, घर से
भोर-अर्द्ध-रात्रि टहलन के विचार से
सोचा कि थक जाऊं
फिर शायद मिल जाऊं
अपने से दूर भागी निंदिया से

चला सुबह दिशा दक्षिण
वह सड़क गई है मथुरा को
चलते चलते कुछ न मिला
बस...मिला खोखा चहिया का

चहिया* के खोखे पे रुके 
वहां मिला न मुकम्मल कुछ
चहिया भी थी बन रही
निकल रहा था ब्रेड पकौड़ा

आधी सुबह और आधी रात
दबाए दो ब्रेड पकौड़ा
फिर रास्ता नापे घर का
पकडे एक सिगरेट.. 

तभी, रुकना पड़ा
चहिया थी बन गई
उठाए चहिया, लौट लिए
उम्मीद लिए फिर निंदिया की

रास्ते में जब पहुंचे
पकौड़ा पहुंच चुका था पेट में
तब समझ में आया.. कि
दूर क्यों भागी थी हमारी निंदिया

भाई.. था पेट खाली
तो कैसे आती निंदिया?
जब समझ में आया, पहुंचे घर
चाहत लिए फिर निंदिया की

बिस्तर पर लेटे,
उससे पहले ही गलती कर गए
समय हुआ था साढ़े चार
पानी पी लिए, फिर से बिछड़ गए निंदिया से

यह तो रही निंदिया की काया
खूब फिर लिए,
बिछड़ गई हमसे, हमारी ही छाया
बत्ती बुझाए तो फिर अकेले हो गए
लेकिन.........

यह सब तो थी माया निंदिया की
बहाने थे जागने की,
और निकल गई थी साया निदिया की
पटलते रहे-पलटते रहे

उलझते रहे-निपटते रहे
न तो फिर से आई निंदिया
न चैन मिला न आराम मिला
तब समझ में आया

क्यों सताती है सबको निंदिया
सब हैं परेशान 
सब हैं हैरान
कोई दवा ले कोई दारु

है सबको छकाती यह निंदिया
है सबको जलाती यह निंदिया
हुए शिकार तो जग दुःख जाना
क्यों सबको रुलाती है यह निंदिया

यह सब लिख दिया
फिर भी न आई निंदिया
सोच के गया छत पे
हो मुलाक़ात और मिल जाए निंदिया

हाय..मुझे सताए यह निंदिया
मुझे रुलाए यह कमबख्त निंदिया
पास न आए यह निंदिया
इन्तजार कराए और न आए निंदिया

भावार्थ:
निंदिया= नींद, निद्रा।
चहिया=चाय, सुबह का पेय, निंदिया भगाने का पेय(दिन में)।

Thursday, October 3, 2013

दास्तां-ए-सिगरेट by श्रवण शुक्ल

((C) Copyright  श्रवण शुक्ल)
सिगरेट की दास्तां है अजीब! 
डिब्बी से निकली
माचिस की तिल्ली के साथ होंठों पर
फिर खत्म होते ही पैरों तले!

क्या अजीब है 
दास्तां-ए-सिगरेट!
जलते हुए फेफड़ों में
फिर दिल तक पहुंचता है
वही जो शरीर का कर्ता-धर्ता है
फिर आगे का तो है ही पता..!!

दिल से हवा में.
फिर होंठे से फेफड़े 
और फिर दिल तक!

कई दफे
यह दुष्चक्र
फिर दूसरी या चौथी बार में
फेफड़ों से दिल और फिर मष्तिष्क!

है न अलग?

और फिर दिशा-दशा,
सब बदल देती है

दिल की धडकनें तेज
पहुंचाके आसमां
पटकती है जमीं पर!

और जब ख़त्म..
तो आखिरी कश के साथ ही
खुद सिगरेट भी जमीन पर!

रौंद दी जाती है 
जमीं पर.. पैरों तले!

कुचलना भी है 
रगड़ना भी है 
पैरों से 
धूल में.. और आसमां तक!

बिखरना है, टूटना है 
फिर मिल जाना है
उसी मिटटी में.. हवा में!

जिसमें हम जीते हैं 
चलते हैं.. मिलते हैं 
हंसते हैं .. खेलते हैं
खाते हैं..लेकिन...
सिगरेट की हालत?

वह जो जमीं पर फेंका हुआ!
धूल-धूसरित होता हुआ
पड़ा रहता है 
अपने आखिरी अंजाम तक पहुंचने को..

ठीक ऐसे ही
तभी शुरू होती है
दूसरे सिगरेट का 
जीवन-मरण चक्र

है न अजीब?
दास्तां-ए-सिगरेट?
होंठो से पैरों तले.. रौंदे जाने तक!

ऐसा ही है मानव
जो सिगरेट
और दूसरी चीजों में
फर्क नहीं समझता, उपयोग करने तक!

बाद में फिर वही..
मिट्टी
होंठ-फेफड़े-दिल- मस्तिष्क
और जमीं!
है न अजीब?
दास्तां-ए-सिगरेट?

Tuesday, October 1, 2013

हम वो बिहारी नहीं हैं जो लालू बताते रहे हैं!



(पंकज झा: वरिष्ठ पत्रकार)
भगवान की कसम खा कर कहता हूँ भाई. हम वो बिहारी नहीं हैं जो लालू बताते रहे हैं आपको. हम वो बिहारी हैं जैसा दिनकर, नागार्जुन, विद्यापति ने आपको बताया होगा. 

सच कह रहा हूँ भाई हम वैसे नहीं ठठाते हैं जैसा लालू ठठाते थे, हम वैसा मुस्कुराते हैं जैसे बुद्ध मुस्कुराते थे. आप तय मानिए भाई, वो लाठी हमारी पहचान कभी नहीं रही जिसे लालू ने चमकाया था. हमारे पास तो वो लाठी थी जिसे थाम कर मोहनदास महात्मा बन गए. अब तो मान लीजिये प्लीज़ की हमारी वीरता 'भूराबाल' साफ़ करने में नहीं थी, हम तो 'महावीर' बनना सीखते रहे थे. माटी की कसम खा कर कह रहा हूँ साहब, हम कभी 'बिहारी टाईप' भाषा नहीं बोलते रहे हैं.

हम मैथिली-भोजपुरी-मगही-अंगिका-बज्जिका बोलते हैं सर. तय मानिए सर हम चारा नहीं खाते, गाय पालते हैं. सच कह रहा हूँ मालिक, हम लौंडा नाच नहीं कराते, सोहर-समदाउन और बटगबनी गाते हैं भाई. हम घर नहीं जलाते भाई, सच कह रहा हूँ, सामा-चकेवा पावनि में हम चुगले को जलाते हैं. आप मानिए प्लीज़ कि लालू हमारे 'कंस' महज़ इसलिए ही नहीं हैं की वे पशुओं का चारा खा गए. वे हमारे लिए बख्तियार खिलजी इसलिए हैं क्यूंकि उन्होंने हमारी पहचान को खा डाला. हमारी पुस्तकें जला डाला. हमारी सभ्यता, संस्कृति सबको लालूनुमा बना डाला.

तय मानिए प्रिय भारतवासी, हम भी उसी देश के निवासी हैं जिस देश में गंगा बहती है. लालू वाला 'बथानीटोला' का बिहार दूसरा था जहां खून की नदियाँ बह गयी थी, हमारा तो दिनकर वाला सिमरिया है जहां के गंगा किनारे कोई विद्यापति गाते थे 'बर सुखसार पाओल तुअ तीरे....! नयन में नीर भर कर हम अपने उसी बिहार को उगना की तरह तलाशते हुए द्रवित हो पुकार रहे हैं 'उगना रे मोर कतय गेलाह.' ठीक है अब चारा वापस नहीं आयेगा. हम जैसे लोगों का भविष्य लौट कर नहीं आयेगा. लेकिन प्लीज़ सर, प्लीज़ प्लीज़ हमारी पहचान लौटा दीजिये. 'भौंडे बिहारीपना' की बना दी गयी मेरी पहचान को सदा के लिए बिरसा मुंडा जेल में ही बंद कर दीजिये मेरे भाई. त्राहिमाम.

पंकज झा जी के फेसबुक वाल से
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