शायक आलोकपत्रकार/कवि/कहानीकार |
पता नहीं यह कब की बात है जब काले सागर के आसपास के किसी बंदरगाह शहर में जाकिया नाम का एक बूढा रहता था .. अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गिनता वह अकेला बूढा प्रायः अपनी स्मृतियों में लौट जाता और फिर किसी लालच में आसमान की ओर सर उठा कहता- 'अह ! काश वह एक दिन लौट आता' ..
बूढा आँखें मूंदे मंत्र की तरह कोई माफीनामा बुदबुदाता रहता - 'मुझे माफ़ कर दो .. क्षमा क्षमा !' ..
चिलम फूंकता बूढा तो रौशनदान पर धुंए की एक सुरंग बन जाती - उस सुरंग से गुजरता बूढा अपने यौवन के दिनों में अपने गाँव अपने घर पहुँच जाता .. फिर एक बार जोर से खांसता और स्मृति फिर उसे उसकी गुजरती उम्र में उसके इस कमरे में ला पटकती ..
इसी बंदरगाह शहर में राकिया नाम का अनाथ युवक काले सागर को अपने आंसू सौंपता उससे पिता का पता पूछता..
अपने अपने हालात से उब गए जाकिया और राकिया एक बार समंदर किनारे मिले तो दोनों ने कुछ दिनों के लिए अपनी उम्र आपस में बदल लेने का फैसला किया ..
युवक हुआ जाकिया भाग कर अपने गाँव लौटा और जहाजी होने के लिए छोड़ आये अपनी गर्भवती पत्नी का पता ढूँढने लगा.. पर समय कब रुका है आखिर .. किसी ने उसके बुढ़िया होकर मर जाने की बात कही तो किसी ने उसके किसी और के साथ चले जाने की बात कही .. उम्र से हारा जाकिया उम्मीद से भी हार गया तो वापस लौट आया..
समंदर किनारे दोनों फिर अपनी उम्र बदलने ही वाले थे कि राकिया ने उम्र वापस देने से इनकार कर दिया .. राकिया ने अपनी अंतिम सांस भी तभी ली.. राकिया के हाथ में एक चिट्ठी थी - 'तुम्हारे अनाथ होने का दोष अपने पिता को देना जो जहाज के लिए हमें छोड़ गया ' .. पत्र के पृष्ठ पर राकिया के शब्द थे - ' मेरी उम्र तुम्हें सौंप मेरे अनाथ होने की सजा तुम्हें दे रहा हूँ पिता, तुम जहाज के लिए मुझे छोड़ गए' ..
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शायक
1 comment:
हमेशा कि तरह शायक ! तुम्हारा कृतित्व शब्दविहीन कर देता है हम्म्म .... या कहूं कि पढते समय मेरे शब्द अपना अर्थ खो बैठते है कोई अतिश्योक्ति न होगी। कोटिश: शुभकामनायें!
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