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Thursday, November 14, 2013

यह लोकतंत्र है या यूपी सरकार की टेढ़ी नाक!



अनिल सिंह
(पत्रकार: भड़ास4 मीडिया में कंटेंट एडिटर के पद पर
कार्यरत रहे अनिल सिंह ने ढ़ेर सारे पत्र-पत्रिकाओं
के प्रकाशन में सक्रिय भूमिका निभाई।
फिलहाल लखनऊ समेत 7 जगहों से प्रकाशित
डीएनए अख़बार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं)
लखनऊ की रात लगातार सर्द होती जा रही है. देर शाम जब आफिस से निकला हूं तो ठंडी हवाएं नसों में बहती हुई प्रतीत होने लगती हैं. बगल से निकलती कोई सनसनाती कार हवाओं को रूह तक पैबस्‍त कर देती है. विधानसभा के गुंदब को देखकर लोकतंत्र जिंदा होने का एहसास तो होता है, लेकिन ठंड पर इस एहसास का कोई असर नहीं पड़ता. पर चंद मीटर आगे चलने के बाद ही ठंड सिहरन में बदलने लगती है. ठंडी हवाएं फिसलकर आत्‍मा के भीतर तक समाती हुई सी लगने लगती हैं. बेधड़क. इंसान और जानवर होने के बीच का फर्क भी हर सेकेंड के साथ खतम होता चला जाता है. आजादी के साढ़े छह दशक. फिर भी इंसान और जानवर के बीच फर्क की महीन लकीर नहीं खिंच सकी है. अजीब सा विरोधाभास यूपी विधानसभा की देहरी से कुछ दूर बाहर ही एक दूसरे को मुंह चिढ़ाता नजर आता है. 

हजरतगंज जीपीओ के फुटपाथ पर जिंदगी की मुश्किलें फटी चादरों और ठंड से ठिठुरते बदन में दिखती है तो सड़क के दूसरी तरह गुलजार जिंदगी नजर आता है. इस तरफ दूसरे के शरीर से लिपटकर गर्मी पाने की असफल कोशिशें दिखती हैं तो दूसरी तरफ दुधिया रौशनी में जिंदगी का रंगीन और परेशानियों से बेखबर नजारा दिखता है. पूरे प्रदेश के लिए तरक्‍की की तस्‍वीर बनाने वाले विधानसभा के साए में ही दोनों नजारे दिखते हैं, लेकिन उस दनदनाती सड़क से हों हों करती गुजरने वाली नीली-लाल-पीली बत्‍ती लगी गाडि़यों के शीशे से जीपीओ का फुटपाथ नजर नहीं आता, ठीक वैसे ही जैसे विधानसभा की देहरी में पहुंचने वाले लोगों को गरीब. कभी कभी तो सड़कों के आवारा कुत्‍ते भी फुटपाथ पर पसरे इंसानों के चादरों के आसपास पसरे नजर आते हैं. अब पता नहीं वो गर्मी लेने आते हैं या गर्मी देने आते हैं, लेकिन यहां संवेदनशीलता को वो चरम पैमाना दिखता है, जो लोकतंत्र की देहरी से गायब हो चुका है. सरकार की नाक के नीचे हरजतंगज ही क्‍या लखनऊ की कई फुटपाथें गरीबों के आशियाने के रूप में गर्मी तो गर्मी सर्दी की रात में भी गुलजार रहती है. डीएम आवास के सामने भी फुटपाथ का नजारा यहां से कुछ अलग नहीं होता है. यह सब सरकार की नाक के नीचे ही है, पर शायद सरकार की नाक सीधी नहीं है. 


लखनऊ की तमाम फुटपाथों पर बाहर से कमाने के लिए आए रिक्‍शेवाले, फेरी वाले, खोमचे वाले, ठेले वाले इन्‍हीं की तरह कई और वाले एक एक पैसे को बचाने के लिए खुद को हर रोज सर्द रातों की आगोश में तड़पने के लिए छोड़ देते हैं ताकि उनके परिवार के लोगों के हिस्‍से रोटी की कुछ गर्मी तो आ सके. अफसोस की मैं इनको देखकर खुद को भी नकारा मान लेता हूं. चाहता हूं कि कुछ करूं, पर समझ नहीं आता कि इनके लिए क्‍या किया जा सकता है. सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं, पर हमे कुछ तो करना चाहिए. कुछ शुरुआत तो होनी चाहिए. कोई तो बताए कैसे हम इन्‍हें भी इंसान होने का एहसास करा सकें. कोई बताए तो. प्‍लीज.

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