TRP नहीं कंटेंट बनाता है न्यूज चैनल की पहचान, एनडीटीवी इंडिया ने ये साबित किया
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अभी खबर आई कि गुमनामी के अंधेरे में पड़ा एक और चैनल -न्यूज नेशन- टीआरपी की रेस में प्रतिस्थापित हो गया है. मुबारक. जितने ज्यादा योद्धा, उतनी ही तीखी लड़ाई. एक से भले दो और दो से भले चार-आठ-बारह. लेकिन टीआरपी से मैं किसी चैनल के अच्छे या बुरे होने की तुलना नहीं करता, ना ही उसके बारे में कोई राय बनाता हूं. भाई साहब, जब चैनल आपको साक्षात् टीवी पर दिख रहा है तो उसके कंटेंट को देखकर अपने अनुभव से राय बनाइए ना. ये टीआरपी टैम वाले टामियों के लिए छोड़ दीजिए ताकि बाजार का गुणा-भाग चलता रहे.
मैं तो खालिस एक दर्शक की तरह चैनल देखता हूं. अपनी पसंद का और चैनलों की इस भीड़ में अगर कोई चैनल मुझे content wise ठीक-ठाक लगता है तो वह एनडीटीवी इंडिया है. लगता है वहां पत्रकारों को अपने मन से जनहित में कंटेंट पर काम करने की आजादी अभी भी है. एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. अभी पिछले दो दिनों से जब सारे चैनल सचिनमय हो गए थे और लग रहा था कि पूरा देश सिर्फ सचिन-शैचिन्न कर रहा है (हालांकि देश में ऐसा था नहीं, सिर्फ टीवी स्क्रीन पर ही ये भेड़चाल थी), तब एनडीटीवी इंडिया ने वह किया, जो शायद ही किसी हिन्दी चैनल पर देखने को मिले. यहां रात 9 बजे सुलझे हुए पत्रकार रवीश कुमार एक शो लेकर आते हैं- प्राइम टाइम. इस शो में किसी गर्मागरम मुद्दे पर बातचीत होती है, रवीश कुमार स्टाइल में.
मुझे यह देखकर आशचर्य नहीं हुआ कि जब दूसरे हिन्दी चैनल सचिन गाथा में लगे हुए थे, तो परसों रवीश के प्रोग्राम में डिबेट का विषय आज के समाज की जातिवादी हकीकत बयां करता मुद्दा था. बैंगलोर में एक हाउसिंग सोसायटी फोकस में थी, जिसके लिए विज्ञापन निकाला गया था कि सिर्फ ब्राह्मण इस सोसायटी में घर ले सकते हैं. इस छोटे से विषय को लेकर रवीश ने स्क्रीन पर जादू रच दिया. उस सोसायटी का कर्ताधर्ता भी प्रोग्राम में मौजूद था, उससे जवाब देते नहीं बन रहा था और वह बार-बार सनातन संस्कृति की दुहाई देने के अलावा कुछ नहीं बोल पा रहा था. रवीश की ये बहस ऐसे समय में हो रही थी, जब दूसरे चैनल सिर्फ और सिर्फ सचिन चला रहे थे.
बीता हुआ कल भी सचिनमय था लेकिन कल भी रवीश के प्रोग्राम में सचिन को लेकर चर्चा नहीं हुई. कम से कम कल मैं इसकी उम्मीद कर रहा था कि रवीश आज सचिन को सब्जेक्ट में रखेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हां, IBN 7 वाले Ashutosh Ashu ने सचिन पर एक सार्थक चर्चा की अपने प्रोग्राम में कि सचिन भगवान क्यों और कैसे बन गए. राजदीप भी थे. अच्छा ये रहा कि इसमें सचिन के महिमामंडन की बजाय उसके भगवान बनने की प्रक्रिया का पोस्टमार्टम हुआ पर जाते-जाते राजदीप सरदेसाई सचिनमेनिया से नहीं बच सके. आशुतोष Times of India के एक लेख की कॉपी दिखाते हुए बोले कि राजदीप, आज से 24-25 साल पहले जब सचिन स्टार नहीं बने थे, तब आपने इस लेख में ये लिखा था कि भारतीय क्रिकेट में आज एक नयापन टाइप की चीज महसूस हुई. क्या आपको अंदाजा हो गया था कि सचिन इतने महान खिलाड़ी बनेंगे. राजदीप गदगद हो गए और कहा हां, मुझे लग गया था कि ये बहुत आगे जाएगा.
खैर बात एनडीटीवी इंडिया की हो रही थी. मुझे नाउम्मीदी हाथ लगी क्योंकि कल रवीश के प्रोग्राम में भी सचिन पर कोई बहस नहीं हुई. कल भी एक -जरा हट के- विषय पर बहस हुई. फोकस में थे आईएएस अफसर अशोक खेमका और उनके तबादले का विवाद. अमूमन खेमका पर बहस में Times Now पर अर्नव गोस्वामी के साथ ही देखता हूं पर एक पूरा शो खेमका विवाद को समर्पित, वह किसी हिन्दी चैनल पर, यह कल पहली बार देखा. और ये बता दूं कि इस बहस में कहने-सुनने को ज्यादा नहीं था लेकिन वह तो रवीश कु्मार जैसे एंकर थे कि बहस को खींच ले गए. शुरु में ही मेहमानों ने ये कह दिया कि तबादला एक तकनीकी मामला है, इसलिए इस पर कुछ नहीं बोलेंगे. अब रवीश क्या करते लेकिन अपनी सूझबूझ से वह बहस को बढ़ा ले गए और ईमानदारी-नौकरशाही-राजशाही के इर्द-गिर्द बुने भारतीय समाज का एक आईना दिखाने की कोशिश की. खेमका ने भी अपनी बात मजबूती से रखी.
एक दर्शक के बतौर आपको रवीश कुमार के इस प्रोग्राम में कुछ नया नहीं लगेगा लेकिन अगर आप टीवी की दुनिया में काम कर चुके हैं तो डिबेट के लिए रवीश का चुना गया सब्जेक्ट और उसे चैनल पर दिखाया जाना अनूठा है. मैं तो कहूंगा कि मौजूदा टीआरपी की रेस और सचिनमेनिया को देखते हुए यह अकल्पनीय था कि प्राइम टाइम में चैनल का मंजा हुआ एंकर सचिन को छोड़कर भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था और अशोक खेमका पर चर्चा करे. और दाद देता हूं कि यह एनडीटीवी इंडिया ही जैसा चैनल है, जिसने रवीश को इतनी आजादी दी कि वह -सचिन की आंधी- में खड़े होकर उससे अलग Real issues पर बात करें. समाज की पत्रकारिता करें, TRP की नहीं.
मुझे नहीं मालूम कि रवीश के प्रोग्राम की कितनी टीआरपी आती है लेकिन अपने अनुभव से बता सकता हूं कि अच्छी टीआरपी आती होगी. पब्लिक को मूर्ख मत समझिए. काम की चीज वह देख लेती है. आप दिखाने का माद्दा तो रखिए. और सबसे बड़ी बात चैनल की पॉलिसी में इतनी आजादी हो कि एक पत्रकार वहां experiment कर सके. एनडीटीवी इंडिया में मुझे वह आजादी दिखती है.
ठीक इसी तरह जब एबीपी न्यूज पर -प्रधानमंत्री- कार्यक्रम शुरु हुआ था तो लोग कह रहे थे कि सठिया गए हैं एबीपी वाले. सलमान के जमाने में गुजरे प्रधानमंत्रियों की कहानी दिखाएंगे-देश के हालात बताएंगे. कौन देखेगा??? और यकीन मानिए, आज टीवी की दुनिया में टीआरपी की जैसी समझ बनाई गई है, उसमें ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि ऐसा प्रोग्राम नहीं चलने वाला. लेकिन दाद दीजिए एबीपी के मुखिया शाजी जमां का, जो ऐसा प्रोग्राम देश के सामने लेकर आए और टीआरपी की रेस में भी अपने फैसले को सही साबित किया.
सो Content is king. ये आज भी सच है और कल भी रहेगा. देर-सबेर दर्शक उसी चैनल पर आएंगे, जिसका content rich होगा. अगड़म-बगड़म बहुत हुआ. खजाना-आसाराम-सचिन, ये सब तो बुलबुले हैं. टिकेगा वहीं, जो अपना ठोस आधार पैदा करेगा, विश्वसनीयता बनाएगा. -आज तक- चैनल अगर आज भी पॉपुलर है तो इसकी सबसे बड़ी वजह है इसकी विश्वसनीयता जो एसपी के जमाने में बनी. तब 20 मिनट के बुलेटिन में इसके तेवर, इसका कंटेंट और खबरों का प्रेजेंटेशन सरकारी दूरदर्शन के जमाने में हवा के किसी ताजा झोंके की तरह था. सो कंटेंट होगा तो टीआरपी भी आएगी. अनवरत आएगी. बिना ड्राइवर वाली कार और स्वर्ग की सीढ़ी बार-बार नहीं चलती-लगती.
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Nadeem S Akhtar Sr Journalist |
अभी खबर आई कि गुमनामी के अंधेरे में पड़ा एक और चैनल -न्यूज नेशन- टीआरपी की रेस में प्रतिस्थापित हो गया है. मुबारक. जितने ज्यादा योद्धा, उतनी ही तीखी लड़ाई. एक से भले दो और दो से भले चार-आठ-बारह. लेकिन टीआरपी से मैं किसी चैनल के अच्छे या बुरे होने की तुलना नहीं करता, ना ही उसके बारे में कोई राय बनाता हूं. भाई साहब, जब चैनल आपको साक्षात् टीवी पर दिख रहा है तो उसके कंटेंट को देखकर अपने अनुभव से राय बनाइए ना. ये टीआरपी टैम वाले टामियों के लिए छोड़ दीजिए ताकि बाजार का गुणा-भाग चलता रहे.
मैं तो खालिस एक दर्शक की तरह चैनल देखता हूं. अपनी पसंद का और चैनलों की इस भीड़ में अगर कोई चैनल मुझे content wise ठीक-ठाक लगता है तो वह एनडीटीवी इंडिया है. लगता है वहां पत्रकारों को अपने मन से जनहित में कंटेंट पर काम करने की आजादी अभी भी है. एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. अभी पिछले दो दिनों से जब सारे चैनल सचिनमय हो गए थे और लग रहा था कि पूरा देश सिर्फ सचिन-शैचिन्न कर रहा है (हालांकि देश में ऐसा था नहीं, सिर्फ टीवी स्क्रीन पर ही ये भेड़चाल थी), तब एनडीटीवी इंडिया ने वह किया, जो शायद ही किसी हिन्दी चैनल पर देखने को मिले. यहां रात 9 बजे सुलझे हुए पत्रकार रवीश कुमार एक शो लेकर आते हैं- प्राइम टाइम. इस शो में किसी गर्मागरम मुद्दे पर बातचीत होती है, रवीश कुमार स्टाइल में.
मुझे यह देखकर आशचर्य नहीं हुआ कि जब दूसरे हिन्दी चैनल सचिन गाथा में लगे हुए थे, तो परसों रवीश के प्रोग्राम में डिबेट का विषय आज के समाज की जातिवादी हकीकत बयां करता मुद्दा था. बैंगलोर में एक हाउसिंग सोसायटी फोकस में थी, जिसके लिए विज्ञापन निकाला गया था कि सिर्फ ब्राह्मण इस सोसायटी में घर ले सकते हैं. इस छोटे से विषय को लेकर रवीश ने स्क्रीन पर जादू रच दिया. उस सोसायटी का कर्ताधर्ता भी प्रोग्राम में मौजूद था, उससे जवाब देते नहीं बन रहा था और वह बार-बार सनातन संस्कृति की दुहाई देने के अलावा कुछ नहीं बोल पा रहा था. रवीश की ये बहस ऐसे समय में हो रही थी, जब दूसरे चैनल सिर्फ और सिर्फ सचिन चला रहे थे.
बीता हुआ कल भी सचिनमय था लेकिन कल भी रवीश के प्रोग्राम में सचिन को लेकर चर्चा नहीं हुई. कम से कम कल मैं इसकी उम्मीद कर रहा था कि रवीश आज सचिन को सब्जेक्ट में रखेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हां, IBN 7 वाले Ashutosh Ashu ने सचिन पर एक सार्थक चर्चा की अपने प्रोग्राम में कि सचिन भगवान क्यों और कैसे बन गए. राजदीप भी थे. अच्छा ये रहा कि इसमें सचिन के महिमामंडन की बजाय उसके भगवान बनने की प्रक्रिया का पोस्टमार्टम हुआ पर जाते-जाते राजदीप सरदेसाई सचिनमेनिया से नहीं बच सके. आशुतोष Times of India के एक लेख की कॉपी दिखाते हुए बोले कि राजदीप, आज से 24-25 साल पहले जब सचिन स्टार नहीं बने थे, तब आपने इस लेख में ये लिखा था कि भारतीय क्रिकेट में आज एक नयापन टाइप की चीज महसूस हुई. क्या आपको अंदाजा हो गया था कि सचिन इतने महान खिलाड़ी बनेंगे. राजदीप गदगद हो गए और कहा हां, मुझे लग गया था कि ये बहुत आगे जाएगा.
खैर बात एनडीटीवी इंडिया की हो रही थी. मुझे नाउम्मीदी हाथ लगी क्योंकि कल रवीश के प्रोग्राम में भी सचिन पर कोई बहस नहीं हुई. कल भी एक -जरा हट के- विषय पर बहस हुई. फोकस में थे आईएएस अफसर अशोक खेमका और उनके तबादले का विवाद. अमूमन खेमका पर बहस में Times Now पर अर्नव गोस्वामी के साथ ही देखता हूं पर एक पूरा शो खेमका विवाद को समर्पित, वह किसी हिन्दी चैनल पर, यह कल पहली बार देखा. और ये बता दूं कि इस बहस में कहने-सुनने को ज्यादा नहीं था लेकिन वह तो रवीश कु्मार जैसे एंकर थे कि बहस को खींच ले गए. शुरु में ही मेहमानों ने ये कह दिया कि तबादला एक तकनीकी मामला है, इसलिए इस पर कुछ नहीं बोलेंगे. अब रवीश क्या करते लेकिन अपनी सूझबूझ से वह बहस को बढ़ा ले गए और ईमानदारी-नौकरशाही-राजशाही के इर्द-गिर्द बुने भारतीय समाज का एक आईना दिखाने की कोशिश की. खेमका ने भी अपनी बात मजबूती से रखी.
एक दर्शक के बतौर आपको रवीश कुमार के इस प्रोग्राम में कुछ नया नहीं लगेगा लेकिन अगर आप टीवी की दुनिया में काम कर चुके हैं तो डिबेट के लिए रवीश का चुना गया सब्जेक्ट और उसे चैनल पर दिखाया जाना अनूठा है. मैं तो कहूंगा कि मौजूदा टीआरपी की रेस और सचिनमेनिया को देखते हुए यह अकल्पनीय था कि प्राइम टाइम में चैनल का मंजा हुआ एंकर सचिन को छोड़कर भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था और अशोक खेमका पर चर्चा करे. और दाद देता हूं कि यह एनडीटीवी इंडिया ही जैसा चैनल है, जिसने रवीश को इतनी आजादी दी कि वह -सचिन की आंधी- में खड़े होकर उससे अलग Real issues पर बात करें. समाज की पत्रकारिता करें, TRP की नहीं.
मुझे नहीं मालूम कि रवीश के प्रोग्राम की कितनी टीआरपी आती है लेकिन अपने अनुभव से बता सकता हूं कि अच्छी टीआरपी आती होगी. पब्लिक को मूर्ख मत समझिए. काम की चीज वह देख लेती है. आप दिखाने का माद्दा तो रखिए. और सबसे बड़ी बात चैनल की पॉलिसी में इतनी आजादी हो कि एक पत्रकार वहां experiment कर सके. एनडीटीवी इंडिया में मुझे वह आजादी दिखती है.
ठीक इसी तरह जब एबीपी न्यूज पर -प्रधानमंत्री- कार्यक्रम शुरु हुआ था तो लोग कह रहे थे कि सठिया गए हैं एबीपी वाले. सलमान के जमाने में गुजरे प्रधानमंत्रियों की कहानी दिखाएंगे-देश के हालात बताएंगे. कौन देखेगा??? और यकीन मानिए, आज टीवी की दुनिया में टीआरपी की जैसी समझ बनाई गई है, उसमें ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि ऐसा प्रोग्राम नहीं चलने वाला. लेकिन दाद दीजिए एबीपी के मुखिया शाजी जमां का, जो ऐसा प्रोग्राम देश के सामने लेकर आए और टीआरपी की रेस में भी अपने फैसले को सही साबित किया.
सो Content is king. ये आज भी सच है और कल भी रहेगा. देर-सबेर दर्शक उसी चैनल पर आएंगे, जिसका content rich होगा. अगड़म-बगड़म बहुत हुआ. खजाना-आसाराम-सचिन, ये सब तो बुलबुले हैं. टिकेगा वहीं, जो अपना ठोस आधार पैदा करेगा, विश्वसनीयता बनाएगा. -आज तक- चैनल अगर आज भी पॉपुलर है तो इसकी सबसे बड़ी वजह है इसकी विश्वसनीयता जो एसपी के जमाने में बनी. तब 20 मिनट के बुलेटिन में इसके तेवर, इसका कंटेंट और खबरों का प्रेजेंटेशन सरकारी दूरदर्शन के जमाने में हवा के किसी ताजा झोंके की तरह था. सो कंटेंट होगा तो टीआरपी भी आएगी. अनवरत आएगी. बिना ड्राइवर वाली कार और स्वर्ग की सीढ़ी बार-बार नहीं चलती-लगती.
Nadim S. Akhter के फेसबुक वाल से साभार
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