सोमवार 5 अगस्त 2013 को वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल जी के जन्मदिवस के बहाने 'हिंदी भवन' में हिंदी साहित्य पर आधारित कार्यक्रम का आयोजन हुआ। मेरे लिए यह कार्यक्रम अभूतपूर्व रहा। अबतक जिस हिंदी साहित्य में हमेशा जीने का सपना देखा, उसे बेहद करीब से जानने समझने का मौका मिला। इस कार्यक्रम के दौरान बहुत सारे वरिष्ठ कवियों और कवियों(पत्रकार-कवियों) के अनुभवों को जानने समझने के दौरान काफी हद तक उस अतीत को समझा, जिसके बारे में अबतक सिर्फ पढ़ा था।
खैर, इन सबके बीच मुझे 'विशेष' तौर पर प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह जी का सानिध्य मिला। उन्हें उनके आवास से कार्यक्रम स्थल और फिर उन्हें आवास तक छोड़ने की बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मुझ जैसे युवा को मिली थी, जो मेरा सौभाग्य है। इस दौरान मैं 4-5 घंटे तक केदारनाथ जी के सानिध्य में रहा और उनके 'अतीत' में जीने के साथ इस समय के घटनाक्रम(राजनीतिक-साहित्यिक) पर लम्बी(थोड़ी-बहुत, जो मेरे लिए विशेष रही) चर्चा हुई। इस 4-5 घंटे के दौरान एक बेहद महत्वपूर्ण बात जो मैंने महसूस की, वह यह है कि इस उम्र में भी वह बेहद तरो-ताजा और जोश से भरे हुए थे। दरअसल, इस बात को पूरी तरह से मैं तभी समझ पाया, जब 'हिंदी भवन' की मंजिल पर हो रहे कार्यक्रम में जाने के दौरान 'सीढ़ियों' पर चढ़ते समय मैंने उन्हें सहारा देने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, 'अरे यार, मैं इतना भी बूढा नहीं हुआ हूं, कि सीढ़ियां भी न चढ़ सकूं'।
कुल मिलाकर कल का दिन मेरे मिले विशेष रहा। इस दौरान मैंने 'हिन्दयुग्म प्रकाशन' के संपादक शैलेश भारतवासी जी से निवेदन किया कि वो मेरी एक फ़ोटो केदारनाथ जी के साथ खींचे, ताकि मैं उसे अपने जीवन की अमूल्य निधि के तौर पर संजोह कर रख सकूं। शैलेश जी ने मेरे निवेदन को स्वीकार करते हुए श्री केदारनाथ सिंह जी के साथ मेरी दो फ़ोटो खींची, जिसे मैं यहां पर शेयर कर रहा हूं।
इस फ़ोटो में एक मैं हूं, जिसे आप सब पहचानते हैं। दूसरे श्री केदारनाथ सिंह जी हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य की दुनिया में शायद ही कोई न पहचानता हो। केदारनाथ सिंह जी के बारे में आज की पीढ़ी को बताने के लिए इतना ही काफी है कि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989), मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमार आशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवनभारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने पूरे जीवन हिंदी साहित्य की सेवा की। आपकी अनेक कृतियां हैं, जिनमें से कुछ एक का उल्लेख करना उनकी अन्य कृतियों का अपमान होगा, फिर भी उनकी कुछ बेहद चर्चित रचनाओं के रूप में अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, बाघ, तालस्ताय और साइकिल प्रमुख हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं।
इस कार्यक्रम को आयोजित कराने के लिए bhadas4media.com के संस्थापक-संचालक श्री यशवंत सिंह और वरिष्ठ पत्रकार श्री मुकेश कुमार जी को हार्दिक धन्यवाद। जिनकी वजह से हम जैसे युवाओं को श्री केदारनाथ सिंह, श्री वीरेन डंगवाल, श्री नीलाभ अश्क जैसे हिंदी की विभूतियों से मिलने और उन्हें बेहद करीब से जानने का सौभाग्य मिला।
इस मौके पर केदारनाथ जी की लिखी दो कविताएं विशेषरूप से शेयर करना चाहता हूं, जो मुझे बेहद पसंद हैं। तो पेश है उनकी लिखी 'नदी' कविता.. जो उन्होंने 82-83 के समय में में गंगा नदी को देखते हुए लिखी थी।
अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
केदार नाथ जी की दूसरी कविता देश के विभाजन बाद की त्रासदी के बाद 'सन् ४७ को याद करते हुए' है, जिसे मैं बेहद पसंद करता हूं। केदारनाथ जी ने यह कविता 1982 में लिखी थी।
तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियां
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियां?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?
खैर, इन सबके बीच मुझे 'विशेष' तौर पर प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह जी का सानिध्य मिला। उन्हें उनके आवास से कार्यक्रम स्थल और फिर उन्हें आवास तक छोड़ने की बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मुझ जैसे युवा को मिली थी, जो मेरा सौभाग्य है। इस दौरान मैं 4-5 घंटे तक केदारनाथ जी के सानिध्य में रहा और उनके 'अतीत' में जीने के साथ इस समय के घटनाक्रम(राजनीतिक-साहित्यिक) पर लम्बी(थोड़ी-बहुत, जो मेरे लिए विशेष रही) चर्चा हुई। इस 4-5 घंटे के दौरान एक बेहद महत्वपूर्ण बात जो मैंने महसूस की, वह यह है कि इस उम्र में भी वह बेहद तरो-ताजा और जोश से भरे हुए थे। दरअसल, इस बात को पूरी तरह से मैं तभी समझ पाया, जब 'हिंदी भवन' की मंजिल पर हो रहे कार्यक्रम में जाने के दौरान 'सीढ़ियों' पर चढ़ते समय मैंने उन्हें सहारा देने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, 'अरे यार, मैं इतना भी बूढा नहीं हुआ हूं, कि सीढ़ियां भी न चढ़ सकूं'।
Shravan Shukla with Kedarnath Singh |
इस फ़ोटो में एक मैं हूं, जिसे आप सब पहचानते हैं। दूसरे श्री केदारनाथ सिंह जी हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य की दुनिया में शायद ही कोई न पहचानता हो। केदारनाथ सिंह जी के बारे में आज की पीढ़ी को बताने के लिए इतना ही काफी है कि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989), मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमार आशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवनभारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने पूरे जीवन हिंदी साहित्य की सेवा की। आपकी अनेक कृतियां हैं, जिनमें से कुछ एक का उल्लेख करना उनकी अन्य कृतियों का अपमान होगा, फिर भी उनकी कुछ बेहद चर्चित रचनाओं के रूप में अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, बाघ, तालस्ताय और साइकिल प्रमुख हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं।
इस कार्यक्रम को आयोजित कराने के लिए bhadas4media.com के संस्थापक-संचालक श्री यशवंत सिंह और वरिष्ठ पत्रकार श्री मुकेश कुमार जी को हार्दिक धन्यवाद। जिनकी वजह से हम जैसे युवाओं को श्री केदारनाथ सिंह, श्री वीरेन डंगवाल, श्री नीलाभ अश्क जैसे हिंदी की विभूतियों से मिलने और उन्हें बेहद करीब से जानने का सौभाग्य मिला।
इस मौके पर केदारनाथ जी की लिखी दो कविताएं विशेषरूप से शेयर करना चाहता हूं, जो मुझे बेहद पसंद हैं। तो पेश है उनकी लिखी 'नदी' कविता.. जो उन्होंने 82-83 के समय में में गंगा नदी को देखते हुए लिखी थी।
अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में
सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई
कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!
केदार नाथ जी की दूसरी कविता देश के विभाजन बाद की त्रासदी के बाद 'सन् ४७ को याद करते हुए' है, जिसे मैं बेहद पसंद करता हूं। केदारनाथ जी ने यह कविता 1982 में लिखी थी।
तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियां
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?
तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियां?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?
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