ईसाई पिता और यहूदी मां की बेटी रेचल साराह लूई ने 15 साल की उम्र में इस्लाम धर्म अपना लिया. लेकिन एक नए मुसलमान का ये रास्ता उनके लिए बहुत मुश्किल निकला.
इसलिए नहीं कि उनका अपना परिवार इस फैसले से नाखुश था, बल्कि इसलिए क्योंकि जिस धर्म से वो जुड़ीं, उसी के लोगों ने उन्हें नहीं अपनाया.
एक मुसलमान की तरह जीते हुए अब 15 साल गुज़र चुके हैं. रेचल पीछे मुड़कर देखती हैं तो कहती हैं, ''अगर मैं इस्लाम पर किताबें पढ़ने से पहले समुदाय के लोगों से मिली होती तो कभी मुसलमान ना बनती. आखिर इतनी कड़वाहट के बीच कोई क्यों रहना चाहेगा.''
इस बात में गहरा दुख और हताशा दोनों ही छुपी थीं. मैंने टटोला तो रेचल ने कई बातें बताईं. एक पाकिस्तानी मुस्लिम परिवार में जब रेचल की शादी की बात चली, तो रिश्ता ठुकराते हुए उन्होंने कहा कि रेचल उनके जैसी मुसलमान नहीं है.
कई साल बाद रेचल ने अपने जैसे एक 'नए मुसलमान' (जिसने इस्लाम अपनाया हो) से शादी की और अब उनकी 6 साल की बेटी है. लेकिन रेचल के मुताबिक उनके पति ही नहीं उनकी बेटी को भी मुसलमान परिवारों के भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है.
उन्होंने कहा, ''मेरी बेटी आइशा ये सबकुछ बहुत चुपचाप झेल लेती है. एक बार उसे एक मुसलमान परिवार ने कहा कि वो उनके बच्चों के साथ नहीं खेल सकती, तो उसने कहा कोई बात नहीं, और चली आई. जबकि नए मुसलमान परिवारों के साथ वो बड़े प्यार से घुलमिल जाती है.''
रेचल कहती हैं कि अब वो ऐसे परिवारों से ही ज़्यादा मेलजोल रखते हैं.
ब्रिटेन में बढ़ते ‘नए मुसलमान’
ब्रिटेन में ईसाई धर्म के बाद सबसे ज़्यादा लोग इस्लाम को मानते हैं, और ये धर्म ब्रिटेन में सबसे तेज़ी से बढ़ रहा है क्योंकि हर साल हज़ारों लोग अपना धर्म छोड़कर, इस्लाम को क़बूल रहे हैं.
ब्रिटेन स्थित एक गैर सरकारी संस्था, 'फेथ मैटर्स' के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2010 तक ब्रिटेन में 1 लाख लोगों ने अपना धर्म छोड़ इस्लाम को अपनाया. सर्वे ने पाया कि वर्ष 2010 में ही 5,000 से ज़्यादा लोग मुसलमान बने.
नए मुसलमानों ने अब अपने संगठन बनाए हैं, ताकि एक-दूसरे को सहारा देकर एक समुदाय का हिस्सा होने का अहसास मिले.
वहीं मस्जिदों में नए मुसलमानों को पैदाइश से मुसलमान रहे लोगों के साथ जोड़ने के लिए खास आयोजन किए जा रहे हैं.
मैनचेस्टर की डिड्सबरी मस्जिद में ऐसे कार्यक्रमों की देखरेख करनेवाले डॉक्टर हसन अलकतीब मुसलमानों के बीच किसी तरह के भेदभाव को नकारते हुए कहते हैं कि इस्लाम तो ऐसा धर्म है जो सबको साथ लेकर चलता है.
डॉ. अलकतीब के मुताबिक, ''इस्लाम में हमें अपने मज़हब के बारे में जानकारी फैलाने के लिए कहा जाता है. एक इंसान को इस्लाम में लाना दुनियाभर की जायदाद पाने से बेहतर है, जबकि इसमें हमें कोई निजी फ़ायदा नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी और काम बढ़ जाता है.''
हालांकि वो ये मानते हैं कि नए मुसलमानों को इस्लाम की बारीकियां समझने में और पैदाइश से मुसलमानों को इन नए लोगों को अपनाने में समय लगता है और इसके लिए मस्जिदों को मेलजोल बढ़ाने के और आयोजन करने चाहिए.
नस्ली भेदभाव की जड़
रेचल का अनुभव इकलौता नहीं है. लिवरपूल युनिवर्सिटी में पढ़ा रहे डॉक्टर लिओन मुसावी खुद एक मुसलमान हैं. अपने रिसर्च में उन्होंने कई नए मुसलमानों के अनुभवों के बारे में लिखा है.
डॉक्टर मुसावी बताते हैं, ''कई नए मुसलमानों ने मुझे बताया कि मस्जिदों और कम्यूनिटी सेंटर्स में उनका आना पसंद नहीं किया जाता. उनके साथ नस्ली भेदभाव किया जाता है. कभी तंज़ कस कर, कभी पत्थर फेंक कर, और कभी तो नौबत मार पीट तक आ जाती है. जबकि इस्लाम ऐसे भेदभाव को एकदम ग़लत बताता है.''
पैदाइश से मुसलमान लोगों के द्वारा ना स्वीकार किए जाने की बात 'फेथ मैटर्स' के सर्वे में भी उभर कर आती है.
नए मुसलमानों का कहना है कि इस्लाम अपनाने के बाद वे इस मजहब के उसूलों को तो मानने लगते हैं, मगर उनकी ज़िंदगी जीने के तरीक़े पैदाइशी मुसलमानों से अलग ही रहते हैं- चाहे वो खान-पान हो, रहन सहन हो या पारिवारिक रिश्ते निभाने के तरीके.
जानकारों के मुताबिक नए मुसलमानों के इस अलग ढंग की वजह से ही कुछ पैदाइशी मुसलमान उन पर पक्का मुसलमान न होने का ठप्पा लगा देते हैं.
एक ही धर्म को मानने वाले लोगों में पैदा हुई ये खाई पाटने में संगठित कोशिशें सहायक हो सकती हैं लेकिन ये तब तक कारगर नहीं होंगी जब तक निजी स्तर पर पैदाइश से मुसलमान रहे लोगों के मन में नए मुसलमानों के लिए जगह बन जाए.
दिव्या आर्य |
साभार-बीबीसी
दिव्या आर्य
बीबीसी संवाददाता, लंदन
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