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Monday, August 26, 2013

मेरे हमदम, मेरे दोस्त...एक कहानी: मिस यू साले.. नेतवा! कोत्ता मनई!!

अपने दोस्त की बहुत भयंकर तरीके से याद आ रही है। डिम्पू हां! डिम्पू ही है उसका नाम। या इज्जत से कहें तो मेरे सबसे अच्छे दोस्त का नाम. सभी लोग नेताजी कहते हैं, लेकिन असली नाम शैलेन्द्र है। एक ऐसा इंसान, जिसे हर कोई अपना दोस्त-अपना हमदम बनाना चाहेगा। मस्त-मौला, झक्की, सनकी कुछ भी कह लो। लेकिन दिल का एकदम प्योर इंसान। लड़कियां ऐसे लोगों को बकलोल कहा करती हैं, जिन्हें दुनिया के तिकडमों और लौंडियाबाज़ी से कोई मतलब नहीं होता। बस! खुद में उलझा हुआ, लेकिन औरों के लिए बेहद औम्य और सुलझा हुआ आदमी।

सच कहूं तो मुझे खुद भी समझ नहीं आ रहा कि यह जों ऊपर के कलमझंडू टाइप के उपनाम मैंने चेम्प दिए हैं, वह उन्हें पसंद भी करेगा या नहीं। नहीं भी पसंद करेगा तो चूतियापे सरीखा कोई बहाना बना दूंगा, साला फट से मान जाएगा कि हां यही सही है। दरअसल उसकी क्वालिटी ही यही है कि वह कुछ भी बुरा नहीं मानता। लेकिन खबरदार, अगर मेरे अलावा किसी ने उसे चूतिया समझने या बोलने की भूल की। वह जैसा भी है, मेरा दोस्त है..और दोस्त के लिए तो सुना ही होगा? कोई बुराई नहीं करेगा सालों, वरना पिछवाड़े पे दो लात खाओगे। खैर, यह तो शुरूआती बात रही या यूं कहें कि परिचय रहा, हमारे नेताजी उर्फ़ डिम्पू का। जो आपको अपने करीब लगे।

यूं तो बचपन से हम साथ साथ पढ़े हैं.. यह सही तो है लेकिन भद्र भाषा में कहें अगर अभद्रता के साथ तो यह ... कि हम दोनों ने तख्ती पर दुद्धी(लोकल चाक) और बोरे को टाट बनाकर बैठना एक ही दिन शुरू किया। हम दोनों का जब पहली क्लास में एडमिसन कराया गया तो हर दोनों गदहिया की क्लास में चुतियापा पेल रहे थे। चुतियापा भी ऐसा की लोग कहें कि साला बचपन से ही चूतिया है। 1995-96 में जुलाई का समय रहा होगा या ऐसा ही कोई समय..ठीक ठाक याद नहीं. हम दोनों गदहिया क्लास वाले लुका-छिपी खेल के अपनी कक्षा जोकि पेड़ के नीचे ही लगती थी में आकर बैठे थे। उस समय दोनों के पैर लहू-लुहान थे.. वजह यह थी कि छुपने के चक्कर में हम दोनों झरबैला(जंगली बेर) के पेड़ के नीचे घुस गए और वहां पैरों में खूब सारे कांटे अपनी जगह बना चुके थे। हम दोनों क्लास में बैठकर एक दूसरे का पैर पकडे..भगवान जाने कि कौन गिरा पड़ा था और कौन लेटा था.लेकिन दोनों एक दूसरे के पैर से वही काँटा निकालने की कोशिश कर रहे थे, एक और बड़े कांटे की सहायता से। हां! अच्छी तरह याद है कि मेरे पिताजी और उसके बड़े भाई साहब दोनों उसी समय कक्षा में आकार हमारा कान उमेठे थे। और हम दोनों दर्द की वजह से बिलबिला पड़े थे।

दर्द भी इतना भयानक था कि मैंने आव-देखा न ताव! अपने बाप के ही अंदाज़ में गालिया देनी शुरू कर दी। कौन अहै बे हरामी साले.. हमार कंवा कौन नोचत अहय! इतने में पिताजी और भाई साहब हम दोनों को पकडके ले गए और पहली कक्षा में भर्ती करा दिए। गजबे का रौब था भाई। हम गदहिया वालों से पहली कक्षा वाले बन गए थे।

इसके बाद हम पांच साल उसी स्कूल में पढ़े। छठवी कक्षा से हमारे रास्ते अलग हो गए। छठवी से आठवीं तक हमारी सिर्फ इतनी मुलाक़ात थी कि वह हमारा पडोसी था और हम उसके। बीच में कभी बात भी हो जाया करती थी। जब हम नौवीं में गए तो फिर से एक स्कूल।
इस बीच, मेरी लाइफ में फिर से एक मोड आ गया था। अहम मोड! पिताजी से झगडे और उनके व्यवहार से दुखी होकर मैंने हर-बार छोड़ दिया। इस निर्णय में मेरी माँ ने काफी सहायता की। खैर यह दुखीआत्माओं वाली बातें फिर कभी. अभी डिम्पू पर ही रहते हैं। दसवी के एक्साम्स में हम दोनों एक ही कमरे में पड़े और पास भी हो गए। उसके बाद मौसम आया हमारी शहंशाही का।

11वीं में हम दोनों फिर से एक ही क्लास में हो लिए। व्यावसायिक विषय की पढाई यूं भी कोई हौवा नहीं थी। हमारे लिए पढाई की जगह कालेज का मैदान होता, और प्रैक्टिकल की जगह लड़ाई। मैं कभी अपने लिए नहीं लड़ा। और न ही डिम्पू मेरे लिए। क्योंकि हमारी लड़ाइया किसी से हुई ही नहीं. पता है क्यों? दरअसल डिम्पू यानि नेताजी ने नाम का इतना ही भौकाल काफी है कि साले, अभी चलकर बताते हैं. यूं तो हम दोनों में हरामियत बहुत भरी पड़ी थी..फिर भी कुछ और भी वजहों से हम दोनों को लोग काफी पसंद करते। मेरी अपनी तो पता नहीं, लेकिन नेताजी को सभी पसंद करते।

एकबार की बात है। हमारी हमारे मास्टरों से किसी बात पर अनबन हो गई। नेताजी  तो भईया नेताजी ही ठहरे। झुकना तो सीखा नहीं था और न ही मैंने उन्हें कभी झुकने के लिए प्रेरित ही किया। कहते हैं कि अगर दोस्त काहे कि हथियार डाल डो बेटा, बाद में देख लेंगे, तो वह वाला हिसाब हम दोनों ने ही नहीं सीखा था। बस, फिर क्या था? मास्टरों की आंखो की किरकिरी हम दोनों ही हो लिए। लेकिन उनकी मजाल क्या जों वो हमें आकार कुछ बोल दें? ऐसे ही एकदिन हम दोनों मैदान में ही अपनी महफ़िल जमाए बैठे थे. गीत-संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। तिवारी नाम का एक ब्राह्मण टाइप लड़का था. टाइप इसलिए कि साला बड़ा हरामी और मादर..... टाइप का बंदा था। फिर भी नेताजी ने उसपर तरस खाकर कईयों से पिटने से बचाया था तो वह हमारी ही टोली में आकार रहने लगा था. तो इस गाने-बजाने के प्रोग्राम में काफी भीड़ जुट गई. हमारे विपक्षी गुटों के साथ मास्टरों में भी मिर्ची लग गई कि साला अभी उस तिवरिया को बुलाए तो हमारे लिए नहीं गया और उन लौंडो को लिए गा रहा है। फिर क्या हुआ? मास्टरों ने गुट में शामिल हुए कुछ और पंडित टाइप चूतियां लडको को बुलाया और हडकाया.. कि सालों! वह दोनों तो वैसे भी हरामी किस्म के इंसान हैं, जों हमारी भी नहीं सुनते, तो उनके पास बैठते काहे हो बे? इस बात की तस्दीक जब हमें हुई तो हमने मास्टरों की ले ली.

खैर वक्त गुजरता रहा और मास्टरों की हमसे फटती गई. एकबारगी तो यह हुआ कि यह दोनों हमेशा देरी से पहुँचते हैं तो देरी से आने वालों को गेट के अंदर दाखिल ही होने दिया जाए। और जों लेट आये वह वापस चले जाए। हमें तो पता ही था कि वास्तव में क्या हो रहा है. एक बात और! जों अबतक बताया नहीं कि हम दोनों कभी समय से कालेज पहुंचे ही नहीं। हम दोनों का नहाने का समय एक ही होता था.. जब घडी में 10 बजते थे तो हम दोनों लोटा-बाल्टी लेकर अपने अपने नल पर नहाने आते और पूरे दिन का प्रोग्राम वही दूर से चिल्ला-चिल्ला कर सेट कर लेते.. तो ऐसे में हम अक्सर 11.30 बजे ही कालेज पहुंचते।

अब चूंकि कालेज में हमारे बैंड बजाने का पोग्राम फिक्स हो गया था तो होना भी अलग था। हर रोज की तरह उस रोज भी हम देरी से पहुंचे। गेट बंद मिला। हम दोनों गेट कूदकर दाखिल हो गए। कालेज प्रिंसिपल के सामने हमारी पेशी लगाईं गई। हमने सफाई में कह दिया कि अमां यार... लेट हो गए तो कूद आए। आगे से ऐसा नहीं होगा। हमारे सख्त लेकिन पुचकारने वाले लहजे को देखकर उनकी भी फट गई। चलो आगे से ऐसा न हो... यह कहते हुए कालेज प्रिंसिपल ने हमें मुक्त कर दिया। उस दिन कई मास्टरों के चेहरे पर संतोष के भाव साफ़ दिख रहे थे।

अब बारी हमारी थी। दूसरे दिन फिर से नहाने के समय पर मीटिंग हुई, लेकिन इस बार हम एक घंटे पहले पहुंच गए। मास्टर लोग भी सुनियोजित षणयंत्र का मजा लेने गेट पर ही इकट्ठे खड़े थे। उस दिन नेताजी के रौब का अंदाज़ एकदम अलग था। गेट कूब सकते नहीं थे, और पीछे हटने की कभी सोचे नहीं थे। रास्ते में गरियाते हुए और आये कि कोई मास्टर अगर रोका तो आज भारी महफ़िल में उसे पेल देंगे। तो गेट पर नेताजी ने एक चपरासी को हडकाते हुए कहा.. अबे साले चमरा(वो जाति का हरिजन था)..! अब गेटवा का तोहार बाप खोले? चल गेट खोल। इतना कहना था कि सारे मास्टर लोग तमतमा कर खड़े हो गए। फिर भी उस चपरासी ने हिम्मत से काम लिया और मास्टरों को समझकर बिठाते हुए, गेट के पास आकार हमसे मिन्नतें करने लगा, चपरासी हीरा ने हमें समझाते हुए कहा, पंडित जी! आज मास्टर लोग पूरा प्लान बनाए हैं, अभी चले जाओ, थोड़ी देर में आना.. 10 ही मिनट की बात है, पहला घंटा(पीरियड) खत्म होते ही गेट खोल दिया जाएगा।

पहली बार मैंने नेताजी को थोड़ा पीछे हटने का इशारा किया और सबको सुनाते हुए कहा। ठीक है, अब जबतक घंटा खत्म नहीं होगा..कोई अंदर बाहर न जा सकेगा बेटा। नेताजी ने भी सहमति में सर हिलाया। इस बीच हम दोनों मौज मस्ती मारते रहे। पहले घंटे के बीतने के बाद घंटे की आवाज सुनाई दी। चपरासी हीरा ने दौड कर गेट खोला। उस दौरान पीछे रह गए 15-20 लड़के लड़कियों ने कालेज परिसर में इंट्री मारी. हम फिर भी ढीठों की तरह बाहर ही खड़े रहे।

अब गेट बंद हो चुका था। बारी हमारे पलटवार की थी। उसपार की नाव इस पार आ चुकी थी तो लेट-लपेट पहुंचे 10-15 बच्चों की भीड़ भी गेट पर जमा हो गई थी। हमें कुछ मौक नहीं मिल पा रहा था कुछ बोलने का। लेकिन तभी किस्मत ने पलती मारी और हम सिकंदर हो गए। हुआ यूं... कि दूसरा घंटा शुरू होने के 15 मिनट बाद एक मास्टर जी लेट-लपेट पहुंचे। नेताजी अपनी जगह एकदम टाईट हो चुके थे। मास्टर लोग भी गेट पर सावधानी मुद्रा में आ चुके थे। इसबीच जैसे ही चपरासी हीरा गेट खोलने के लिए आगे बढ़ा। नेताजी की शेरों वाली आवाज गूंजी, ‘हे हिरवा! तोहार हिम्मत कैसा भय साले कि हम गेट पे रही और तू गेट खोल देबा? नियम कानून अगर तोहर सबके बनवा अहे तो तोहरे पिछवाड़े में घुसेड देब अगर गेट खुला तो। वह भी दूसरा घंटा पूरा होने से पहले।

नेताजी ने बात पते की कही थी। दोनों पक्षों में मुर्दानी छा गई। एक तो मास्टर का अपमान, दूसरा हम दोनों की प्रतिष्ठा का भी सवाल। इस दौरान नेताजी और जोश में आ गए। नेताजी ने जोश में प्रिंसिपल मुराबाद का शंखनाद कर दिया और पीछे खड़ी बच्चों की भीड़ जोकि अब बढ़कर 25-30 हो गई थी.. सभी ने नेताजी की ख्वाइश को सर-आंखो पर बिठाते हुए बढचढकर नारेबाजी की। पूरा कालेज परिसर ‘प्रिंसिपल मुर्दाबाद’ और ‘नए कानून तोड़ डो.. खुद से गेल खोल लो’ जैसे नारों से गुन्जायमान हो गया। तभी दूसरा घंटा खत्म हुआ और गेट खोल दिया गया। पूए कालेज के लड़के लड़कियों का हुजूम कालेज की गेट पर उमड़ पड़ा। आखिर ऐसा क्या हो गया और किसने ऐसे जुर्रत कर दी जों अबतक किसी भी कालेज या विश्वविद्यालय में नहीं हुआ था। खैर सबको पता चला..कि आखिर बात क्या था?

हमारा प्रिंसिपल ऑफिस से बुलावा आया। मैं नेताजी को संयमित रहने की सलाह दी, वह राजी भी हो गया। लेकिन इसीबीच बात फिर से बिगड गई। हुआ यूं की प्रिंसिपल ने हमें कालेज से निकालने की धमकी दे दी. नेताजी को भी जोश आ गया। वह पूरी ताकत से चीखता हुआ बाहर आया और बोला.. ‘अगर नाम काटना है तो काट दो, धमकी पट दो.. १२वीं के पेपर में खुद बुलाकर इम्तिहान दिल्वाओगे. फ़ार्म भरा जा चुका है और जों बिगाडना है बिगाड़ लो।‘ नेताजी को उस दिन मैं बड़ी मुश्किल से काबू में ला पाया था। हम दोनों वहां से उठाकर बाहर चले गए। इसके बाद से नेताजी के किस्से हर जगह फ़ैल गए। बुरा व्यवहार करने के बाद भी लोगो को नेता में उम्मीद दिखाई देती थी. क्योंकि वह गलत बर्दास्त नहीं करता था।

खैर! कहां उलझा दिया आपलोगों को। दरअसल उलझाना भी जरूरी था. अगर इतना सब न बताता तो इस कहानी की शुरुआत में दिए गए उपनामों को ही नेता के साथ जोड़ने। वह सबके लिए नेताजी है लेकिन मेरे लिए डिम्पू! जिसे में खुद भी नेताजी ही बुलाना पसंद करता हूं।

वह 12वीं में फेल हो गया था। फिर भी हम दोनों एकसाथ ही रहते थे.. कही भी आना हो या जाना हो.. कही कोई बात हो। हर जगह डिम्पू मेरा साथ देता। हम दोनों ग्रेजुएशन के दौरान भी साथ साथ रहे। लाख मुश्किलों के बावजूद भी। इस दौरान हम दोनों में खूब छनती थी। हम दोनों के दोनों एडवेंचर पसंद लोग रहे। बिना पैसे के भी सुल्तानपुर से मिर्जापुर निकाल जाते जाते। वहां ‘मां विध्ववासिनी’ के दर्शन करने.. और भी अच्छे काम करते रहते। पिछली कई बार से यह महत्वपूर्ण काम पेंडिंग पड़ा है।

जब आप यह कहानी पढ़ रहे होंगे तो हम दोनों साथ में शायद फिर कभी के लिए निकाल गए होंगे. अब समय नहीं मिल पाता.. फिर भी अगर में दुनिया में किसी से बात करना पसंद है तो वह नेताजी है. मेरे लिए दोस्त कम भाई ज्यादा। कहीं भी रहूंगा, नेताजी मेरे दिल में रहेंगे।

अब नेताजी के बारे में पूरी जानकारी.. नाम..शैलेन्द्र, शिक्षा.. बी.कॉम, शगल.. खेती, आम इंसानों से उलट हरामखोरी कहीं दूर तक नहीं बसी। और क्या जानकारी दूं? इस बार उसकी फोटो आप सबसे शेयर करूंगा. फिलहाल तो मुझे सिर्फ बचपन में गाए जाने वाले शोले फिल्म का वही गाना याद आ रहा है..’यह दोस्ती हम नहीं छोडेंगे, और मरेंगे भी नहीं..साले अकेले जीने में मजा नहीं आएगा। बहुत कुछ है लिखने को! लेकिन आज की कलम से बस इतना ही।

रात के दो बज रहे हैं और मुझे अपने दोस्त की याद आ रही है. उसके पास जाने का बेहतर तरीका यही लगा कि मैं उसके बारे में कुछ लिखूं। वह लिक्खाड़-पढ़ार कभी नहीं रहा.. इसके बावजूद 5वीं कक्षा में मुझसे ज्यादा नंबर ले आया और हां.. 12वीं में भी.. दूसरा ही चांस सही। लेकिन दोस्ती में हमेशा वह खरा उतरा. कभी भी आजकल मेरे लिए किसी काम को करने में उसने दूसरा चांस नहीं मांगा। पता है क्यों? क्योंकि वह दोस्तों का दोस्त है. मेरा दोस्त है वह। एक बार और मेरी समझ में आती है.. वह 5वीं और 12वीं में मुझसे आगे क्यों निकला! इसलिए कि वह हमेशा दोस्ती निभाने में नंबर वन रहा... दूसरे कभी कभी चांस ही नहीं बना। और मैंने भी निभानी की कोशिश की है.. अपनी तरफ से! दूसरा चांस लेकर ही सही। मिस यू साले.. नेतवा! कोत्ता मनई! अवधी में कुत्ते को प्यार से कोत्ता बोलते हैं..!!

Friday, August 16, 2013

'अखण्ड भारत' के लिए गोडसे ने जिसकी हत्या की, उसका सबसे बड़ा सपना "अखण्ड भारत" ही था..

हे राम ...!
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20-जनवरी-1948, को गाँधी जी की प्रार्थना सभा से 75 फीट की दूरी पर एक बम धमाका किया गया, मदनलाल पाहवा गिरफ्तार हुआ जबकि छः अन्य अपराधी एक टैक्सी से फरार होने में सफल रहे | महात्मा गाँधी की हत्या का सन 1934 से यह पांचवा प्रयास था, 30-जनवरी-1948, को हुई गाँधी जी की हत्या छठा प्रयास थी, ये सभी छः के छः प्रयास अतिवादी हिन्दू राष्ट्रवादियो द्वारा किये गए थे |
महात्मा गाँधी की हत्या का पहला प्रयास 25 जून, 1934 को, पूना में किया गया | गांधीजी एक सभा को सम्बोधित करने के लिए जा रहे थे, रास्ते में उनकी मोटर को लक्ष्य करके मोटर पर बम फेंका गया पर गांधीजी पीछे वाली मोटर में थे। गाँधी जी की हत्या का यह पहला प्रयास था, जो पूना के एक कट्टरपंथी हिन्दू गुट ने किया था| पुलिस रिपोर्ट में दर्ज विवरण के अनुसार, गांधीजी की मोटर पर बम फेंक कर उनकी हत्या का प्रयास करने वाले आरोपी के जूते में महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरु के चित्र मिले थे |
जुलाई -1944 में, पंचगनी में, महात्मा गाँधी की हत्या की दूसरी असफल कोशिश हुई, जब महात्मा गाँधी अपनी बीमारी से उठकर स्वाश्थ्य लाभ के लिए पंचगनी गए हुए थे | इस खबर के फैलने के बाद पूना से 20 युवकों का एक दल बस से पंचगनी पहुंचा इस गुट ने समूचे दिन गांधीजी के विरोध में नारेबाजी की, इस गुट के नेता को गांधीजी ने बातचीत करने का न्योता दिया, पर उसने गांधीजी से, किसी भी तरह की बातचीत करने से इंकार कर दिया, शाम को प्रार्थना सभा में यह नवयुवक हाथ में छुरा लिए, गांधीजी की तरह लपका, प्रार्थना सभा में मौजूद, पूना के ही, सूरती-लॉज के मालिक मणिशंकर पुरोहित और भीलारे गुरुजी नाम के युवक ने हमलावर को पकड लिया और पुलिस को सौप दिया। पुलिस-रिकार्ड में हमलावर का नाम नहीं है, परन्तु मशिशंकर पुरोहित तथा भीलारे गुरुजी ने गांधी-हत्या की जा!च करने के उद्देश्य से, 1965 में बिठाये गए कपूर-कमीशन के समक्ष उक्त हमलावर की पहचान नाथूराम गोडसे के रूप में की थी।
गांधीजी की हत्या की तीसरी कोशिश सितम्बर-1944 में, वर्धा में, की गई | गांधीजी मुहम्मद अली जिन्ना से बातचीत करने के लिए बम्बई जाने वाले थे। गांधीजी के बम्बई जा कर जिन्ना से बात करने का, कुछ लोग विरोध कर रहे थे, इन्ही विरोध करने वालों का एक समूह पूना से वर्धा पंहुचा, पुलिस रिपोर्ट में दर्ज विवरण के अनुसार, उस गुट के ग.ल. थने के नाम के व्यक्ति के पास से छुरा बरामद हुआ। अपने बयान में उसने बताया की यह छुरा वह गांधीजी की मोटर पंचर करने के उद्देश्य से लेकर आया था | महात्मा गाँधी के निजी सचिव प्यारेलाल ने उस घटना का विवरण देते हुए लिखा है "आज सुबह मुझे टेलीफोन पर जिला पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट से सूचना मिली कि स्वयंसेवक गम्भीर शरारत करना चाहते हैं, इसलिए पुलिस को मजबूर होकर आवश्यक कार्रवाई करनी पडेगी। बापू ने कहा कि मैं उनके बीच अकेला जाउगा और वर्धा रेलवे स्टेशन तक पैदल चलूगा, स्वयंसेवक स्वयं अपना विचार बदल लें और मुझे मोटर में आने को कहें तो दूसरी बात है। किन्तु बापू के रवाना होने से ठीक पहले पुलिस-सुपरिन्टेण्डेण्ट आये और बोले कि धरना देने वालों को हर तरह से समझाने-बुझाने का जब कोई हल न निकला, तो पूरी चेतावनी देने के बाद मैंने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है।
धरना देनेवालों का नेता बहुत ही उनेजित स्वभाववाला, अविवेकी और अस्थिर मन का आदमी मालूम होता था, इससे कुछ चिंता होती थी। गिरफ्तारी के बाद तलाशी में उसके पास एक बडा छुरा निकला।" (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति : प्रथम खण्ड, पृष्ठ 114)
29 जून, 1946 को गांधीजी की हत्या की चौथी कोशिश हुई, जब गांधीजी एक विशेष टेंन से बम्बई से पूना जा रहे थे | नेरल और कर्जत स्टेशनों के मध्य रेल की पटरी पर एक बड़ी चट्टान कुछ अराजक तत्वों ने रख दी, ट्रेन के ड्राइवर की सूझ-बूझ और सावधानी से एक भयानक हादसा टल गया और गांधीजी सकुशल पूना पहुँच गए| अगले दिन, 30 जून को प्रार्थना-सभा में गांधीजी ने बीते दिन की घटना का उल्लेख करते हुए कहा ''परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरशः मृत्यु के मुह से सकुशल वापस आया हू। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है, फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास निष्फल गया।'
गांधीजी की हत्या का पांचवा प्रयास मोहनलाल पाहवा ने किया और छठवे प्रयास में 30 जनवरी, 1948 को नाथूराम गोडसे ने गांधीजी की हत्या कर दी।
गांधीजी की हत्या के आरोप में विनायक दामोदर सावरकर, नाथूराम, नारायण आप्टे, सहित आठ लोगों पर हत्या का अभियोग चला, फ़रवरी 1949 में नाथूराम और नारायण आप्टे को मृत्युदंड अन्य पांच को आजीवन कारावास और सावरकर को सबूतों के अभाव का लाभ देकर बरी कर दिया गया |नाथूराम और आप्टे को नवम्बर 49 में फांसी पर लटका दिया गया |
सावरकर ने, जिरह के दौरान नाथूराम अथवा किसी भी अभियुक्त के साथ अपने सीधे सम्बन्धो की बात या कभी मुलाकात की बात नकारी, जो बाद में प्रकाश में आये तथ्यों के लिहाज से झूठी साबित हुई, सावरकर ने नाथूराम का इस्तेमाल किया था, नाथूराम उनका अंधभक्त था, सन 1940 में, हिन्दू महासभा के अध्यक्ष सावरकर के आदेश पर, हैदराबाद के निजाम की नीतियों का विरोध करने वाले पहले जत्थे का नेतृत्व नाथूराम ने किया था और गिरफ्तार होकर निजाम की जेल की सजा भी भुगती थी |
नाथूराम ने जिरह के दौरान दिए अपने बयान में, सावरकर के हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति अपनी निष्ठां व्यक्त की |
गांधीजी की हत्या के 20 जनवरी के प्रयास और 30 जनवरी की हत्या की अनसुलझी गुत्थियों और गांधीजी की हत्या में सावरकर की संलिप्तता का पता लगाने के लिए, भारत सरकार ने 1965 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया जिसने उन तथ्यों की भी पड़ताल की, जिन्हें गांधीजी की हत्या के लिए चले मुक़दमे की जिरह के दौरान नहीं प्रस्तुत किया गया था, कमीशन ने सावरकर के अंगरक्षक रहे अप्पा रामचंद्र कसर और उनके सचिव गंजन विष्णु दामले के बयान भी लिए, यदि उक्त दोनों के बयान गाँधी हत्याकांड के दौरान लिए गए होते तो सावरकर का झूठ सामने आ जाता और भी गाँधी हत्या के दोषी करार दिए गए होते |
कमीशन के तथ्यों से यह प्रमाणित हुआ, कि 1948 की जनवरी 14 और 17 को नाथूराम और आप्टे ने सावरकर से मुलाकात की थी, कसर ने कमीशन को बताया की नाथूराम और आप्टे ने पुनः जनवरी 23 को, बम धमाके के बाद, दिल्ली से लौटने के बाद, सावरकर से मुलाकात की थी ...
दामले ने कमीशन को बताया; "आप्टे और गोडसे ने जनवरी के मध्य में सावरकर को देखा और वो साथ ही बगीचे में बैठे"
कपूर कमीशन के तथ्य एकदम स्पष्ट थे, उन्होंने पुलिस की भयानक लापरवाही को उजागर किया, जो अगर नहीं की गई होती तो गांधीजी की हत्या में सावरकर की संलिप्तता साफ साफ साबित हो जाती |
बहरहाल, सावरकर सबूतों के अभाव में अपने को बचा ले गए और नाथूराम और नारायण आप्टे नवम्बर-1949 की एक सुबह, "अखण्ड भारत अमर रहे" का नारा लगाते फांसी के फंदे पर झूल गए, उन्हें सपने में भी गुमान नहीं था, कि जिस व्यक्ति की उन्होंने हत्या की "अखण्ड भारत" उसका सबसे बड़ा सपना था |

उपरोक्त जानकारी फेसबुक पर कश्यप किशोर मिश्र जी ने उपलब्ध कराई है..


हद हो गई! समझ में नहीं आ रहा कि हंसू या रोऊं!
मित्रो ये असल तस्वीर है.. महात्मा गाँधी के हत्या के कुछ सेकेंड पहले की... ध्यान से देखो... नाथुरन घोड़से कैसे वीर की तरह खड़ा है हत्या करने के लिए और महात्मा गाँधी..उसकी माफी माँग रहा है..अपनी जान के लिए.... ये कॉंग्रेस का """हे राम""" वाला फ़ॉर्मूला पूरितरह से ग़लत है...
दरअसल..आप क्या करोगे जब आप के ३५ लाख भाई बंधु की बलात्कार और हत्या कर दी जाए और उसका गुनाहगर आप के सामने हो....महात्मा गाँधी ने खुद हो कर देश मे कई दंगे करवाए...और उसकी सज़ा..क्रांतिकारियों को दी गयी...अब बताओ ये हत्या १० साल पहले होने चाहिए थी या नही..?? जवाब दो??
यह जानकारी किसी पेज से मिली..जिसके नाम का उल्लेख सही नहीं होगा।

जोया के प्यार में..!



श्रवण शुक्ल
आ गए 
स्स्साला...
हम भी
किसी 
जोया के
प्यार में..!

एकबार
फिर से
जी उठे हैं हम!

देखते हैं
मरना
नसीब में
होता है..

या
लापता
ही होंगे हम!!

हर
हर
महादेव!!!

Thursday, August 15, 2013

शहीदों के परिवार से मिलने का वक्त नहीं है गृहमंत्री के पास!

शहीद नही है भगत सिंह 
दीपक शर्मा


सुशील कुमार शिंदे सात जनम भी ले लें तो शायद भगत सिंह की क़ुरबानी की बराबरी नही कर सकेंगे. उनके डिप्टी आरपीएन सिंह के बारे में क्या कहूँ. हैरत है इन दोनों के पास भगत सिंह के परिवार के लिए मिलने का समय नही.


रोबर्ट वाड्रा की तरह भगत सिंह के परिवार से यादवेन्द्र सिंह कोई ज़मीन जायदाद की भीख मांगने के लिए शिंदे से मिलना नही चाहते थे..
यादवेन्द्र ने ८ अगस्त को पत्र लिखकर आरपीएन सिंह से कहा था की गृह मंत्रालय ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को शहीद का दर्ज़ा देने पर गोल मोल जवाब दिया इस पर उनका परिवार दुखी है. वे चाहते है की सरकार भगत सिंह को उचित सम्मान दे. 
इस पर आरपीएन सिंह के स्टाफ ने यादवेन्द्र से कहा की मंत्रीजी अभी व्यस्त है और संसद सत्र खत्म होने पर वो मिल सकते है.देश के लिए ज़ज्बा रखने वाले बहुत से लोग ग्रह मंत्रालय की इस गुस्ताखी पर नाराज़ है. पर मै नही. सरकार भगत सिंह को शहीद मान कर अपना कद घटा रही है. शिंदे और आरपीएन सिंह कितने छिछले हैं ये सामने है.
मित्रों सत्ता के गलियारे में नीरा राडिया के लिए लाल कालीन बिछी है पर भगत सिंह और सुखदेव के परिवार को ठोकर मिल रही है. १५ अगस्त की पूर्वसंध्या पर इस से ज्यादा और लिखूंगा तो शायद शब्दों का संतुलन खो दूंगा.
यादवेन्द्र भगत सिंह का नंबर ९८१०२९४७०२
राजगुरु के पौत्र सत्यशील राजगुरु का नंबर ९८२२०१२००३ 
बटुकेश्वर दत्त की बेटी प्रोफेसर भारती का नम्बर ९४३००६१५८७ 
मंगल पाण्डेय के पद्पौत्र रघुनाथ पाण्डेय का नंबर ९८९९३७५३५० 

आजादी के दिन शहीदों के इन खून को सन्देश देकर इनका सम्मान करें

आजतक के वरिष्ठ पत्रकार दीपक शर्मा के वाल से!
उनकी प्रोफाइल पर जाने के लिए यहां क्लिक करें

Tuesday, August 6, 2013

वीरेन डंगवाल के बहाने वरिष्ठ साहित्यकार केदारनाथ सिंह जी का सानिध्य

सोमवार 5 अगस्त 2013 को वरिष्ठ कवि वीरेन डंगवाल जी के जन्मदिवस के बहाने 'हिंदी भवन' में हिंदी साहित्य पर आधारित कार्यक्रम का आयोजन हुआ। मेरे लिए यह कार्यक्रम अभूतपूर्व रहा। अबतक जिस हिंदी साहित्य में हमेशा जीने का सपना देखा, उसे बेहद करीब से जानने समझने का मौका मिला। इस कार्यक्रम के दौरान बहुत सारे वरिष्ठ कवियों और कवियों(पत्रकार-कवियों) के अनुभवों को जानने समझने के दौरान काफी हद तक उस अतीत को समझा, जिसके बारे में अबतक सिर्फ पढ़ा था।
खैर, इन सबके बीच मुझे 'विशेष' तौर पर प्रसिद्ध साहित्यकार केदारनाथ सिंह जी का सानिध्य मिला। उन्हें उनके आवास से कार्यक्रम स्थल और फिर उन्हें आवास तक छोड़ने की बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मुझ जैसे युवा को मिली थी, जो मेरा सौभाग्य है। इस दौरान मैं 4-5 घंटे तक केदारनाथ जी के सानिध्य में रहा और उनके 'अतीत' में जीने के साथ इस समय के घटनाक्रम(राजनीतिक-साहित्यिक) पर लम्बी(थोड़ी-बहुत, जो मेरे लिए विशेष रही) चर्चा हुई। इस 4-5 घंटे के दौरान एक बेहद महत्वपूर्ण बात जो मैंने महसूस की, वह यह है कि इस उम्र में भी वह बेहद तरो-ताजा और जोश से भरे हुए थे। दरअसल, इस बात को पूरी तरह से मैं तभी समझ पाया, जब 'हिंदी भवन' की मंजिल पर हो रहे कार्यक्रम में जाने के दौरान 'सीढ़ियों' पर चढ़ते समय मैंने उन्हें सहारा देने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, 'अरे यार, मैं इतना भी बूढा नहीं हुआ हूं, कि सीढ़ियां भी न चढ़ सकूं'।
Shravan Shukla with Kedarnath Singh 
कुल मिलाकर कल का दिन मेरे मिले विशेष रहा। इस दौरान मैंने 'हिन्दयुग्म प्रकाशन' के संपादक शैलेश भारतवासी जी से निवेदन किया कि वो मेरी एक फ़ोटो केदारनाथ जी के साथ खींचे, ताकि मैं उसे अपने जीवन की अमूल्य निधि के तौर पर संजोह कर रख सकूं। शैलेश जी ने मेरे निवेदन को स्वीकार करते हुए श्री केदारनाथ सिंह जी के साथ मेरी दो फ़ोटो खींची, जिसे मैं यहां पर शेयर कर रहा हूं।
इस फ़ोटो में एक मैं हूं, जिसे आप सब पहचानते हैं। दूसरे श्री केदारनाथ सिंह जी हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य की दुनिया में शायद ही कोई न पहचानता हो। केदारनाथ सिंह जी के बारे में आज की पीढ़ी को बताने के लिए इतना ही काफी है कि उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (1989), मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, कुमार आशान पुरस्कार (केरल), दिनकर पुरस्कार, जीवनभारती सम्मान (उड़ीसा) और व्यास सम्मान सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने पूरे जीवन हिंदी साहित्य की सेवा की। आपकी अनेक कृतियां हैं, जिनमें से कुछ एक का उल्लेख करना उनकी अन्य कृतियों का अपमान होगा, फिर भी उनकी कुछ बेहद चर्चित रचनाओं के रूप में अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, बाघ, तालस्ताय और साइकिल प्रमुख हैं। इनकी कविताओं के अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेज़ी, स्पेनिश, रूसी, जर्मन और हंगेरियन आदि विदेशी भाषाओं में भी हुए हैं।
इस कार्यक्रम को आयोजित कराने के लिए bhadas4media.com के संस्थापक-संचालक श्री यशवंत सिंह और वरिष्ठ पत्रकार श्री मुकेश कुमार जी को हार्दिक धन्यवाद। जिनकी वजह से हम जैसे युवाओं को श्री केदारनाथ सिंह, श्री वीरेन डंगवाल, श्री नीलाभ अश्क जैसे हिंदी की विभूतियों से मिलने और उन्हें बेहद करीब से जानने का सौभाग्य मिला।

इस मौके पर केदारनाथ जी की लिखी दो कविताएं विशेषरूप से शेयर करना चाहता हूं, जो मुझे बेहद पसंद हैं। तो पेश है उनकी लिखी 'नदी' कविता.. जो उन्होंने 82-83 के समय में में गंगा नदी को देखते हुए लिखी थी।

अगर धीरे चलो
वह तुम्हे छू लेगी
दौड़ो तो छूट जाएगी नदी
अगर ले लो साथ
वह चलती चली जाएगी कहीं भी
यहाँ तक- कि कबाड़ी की दुकान तक भी
छोड़ दो
तो वही अंधेरे में
करोड़ों तारों की आँख बचाकर
वह चुपके से रच लेगी
एक समूची दुनिया
एक छोटे से घोंघे में

सच्चाई यह है
कि तुम कहीं भी रहो
तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी
प्यार करती है एक नदी
नदी जो इस समय नहीं है इस घर में
पर होगी ज़रूर कहीं न कहीं
किसी चटाई
या फूलदान के नीचे
चुपचाप बहती हुई

कभी सुनना
जब सारा शहर सो जाए
तो किवाड़ों पर कान लगा
धीरे-धीरे सुनना
कहीं आसपास
एक मादा घड़ियाल की कराह की तरह
सुनाई देगी नदी!

केदार नाथ जी की दूसरी कविता देश के विभाजन बाद की त्रासदी के बाद 'सन् ४७ को याद करते हुए' है, जिसे मैं बेहद पसंद करता हूं। केदारनाथ जी ने यह कविता 1982 में लिखी थी।

तुम्हें नूर मियां की याद है केदारनाथ सिंह?
गेहुँए नूर मियां
ठिगने नूर मियां
रामगढ़ बाजार से सुरमा बेच कर
सबसे आखिर मे लौटने वाले नूर मियां
क्या तुम्हें कुछ भी याद है केदारनाथ सिंह?

तुम्हें याद है मदरसा
इमली का पेड़
इमामबाड़ा
तुम्हे याद है शुरु से अखिर तक
उन्नीस का पहाड़ा
क्या तुम अपनी भूली हुई स्लेट पर
जोड़ घटा कर
यह निकाल सकते हो
कि एक दिन अचानक तुम्हारी बस्ती को छोड़कर
क्यों चले गए थे नूर मियां?
क्या तुम्हें पता है
इस समय वे कहां हैं
ढाका
या मुल्तान में?
क्या तुम बता सकते हो?
हर साल कितने पत्ते गिरते हैं पाकिस्तान में?
तुम चुप क्यों हो केदारनाथ सिंह?
क्या तुम्हारा गणित कमजोर है?

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