Yashwant Singh : जेल से लौटे एक साल पूरे हो गए. विनोद कापड़ी और साक्षी जोशी को याद कर लेना चाहता हूं कि इन माननीयों के सौजन्य से जीवन के अनुभवों में कुछ बेहद संवेदनशील और सीखने लायक पल, अनुभव जुड़े. पिछले एक सालों के दौरान एक चीज महसूस किया कि विनोद कापड़ी में काफी बदलाव आ चुका है.
विनोद कापड़ी सवाल उठाए जाने पर अब अपने किए को महसूस करता है और अपने फेसबुक वॉल पर लिखकर क्षमा भी मांग लेता है, भले ही वह पेड न्यूज का मसला हो...
वह पत्रकारों की एकमुश्त छंटनी का न सिर्फ विरोध करता है बल्कि अपनी जी न्यूज वाली कहानी बताकर लिखकर एक तरह से छंटनी की अनुमति देने वाले और छंटनी पर चुप रहने वाले संपादकों की बुजदिली को कोसता है और बाकी पत्रकारों को यह सीख देता है कि अगर गलत हो तो खुल कर विरोध करो, नतीजा जो भी निकले...
वह किसी पत्रकार साथी के निधन पर कोष जुटाने का भी काम शुरू कर देता है.... और यह करके वह बाकी संपादकों को अघोषित संदेश देता है कि हमें अपने जूनियरों, अधीनस्थों के दुखों में शरीक होना चाहिए, उनके परिजनों की पीड़ा को महसूस करना चाहिए...
यह सब बताता है कि अब वह सिर्फ और सिर्फ अपने लिए नहीं जीता... उसने अपने दायरे को विस्तृत कर दिया है... इस बदलाव का स्वागत किया जाना चाहिए... किसी को बुरा बनने या बताने में वक्त नहीं लगता, लेकिन किसी बुरे को अच्छा बनने और अच्छे के रूप में पहचाने जाने में वक्त तो लगता है... लेकिन मैंने वक्त से पहले न सिर्फ पहचान लिया बल्कि इसे प्रचारित भी कर रहा हूं... :)
एक और बात, दुनिया में कोई चीज स्थायी नहीं होती. न क्रोध, न प्यार, न दोस्ती, न दुश्मनी... समझ, चेतना, ज्ञान, अनुभव के बढ़ने, के उदात्त होने के साथ-साथ हर तरह के पाजिटिव निगेटिव भाव अपनी अपनी जगह से आगे बढ़ते हुए एक बड़े तटस्थ मोड में पहुंच जाते हैं जहां कुछ भी न बुरा होता है और न अच्छा.. ऐसी स्थितियां कम लोगों के साथ आती हैं.. इस अवस्था में कम ही लोग पहुंच पाते हैं... कई तो पूरी जिंदगी कुत्ते की तरह भों भों करते हुए एक दिन भों भों मोड में ही मर जाते हैं... ऐसे कई संपादक आपको दिख जाएंगे... पर संवेदनशील आदमी अपने कुत्तापना को न सिर्फ महसूस करता है बल्कि उससे सबक लेकर उसे पूरी तरह बूझ जाने के बाद उससे मुक्त होने, उससे आगे जाने की यात्रा शुरू कर देता है...
दिक्कत जड़ता से होती है... जैसे, देश और समाज का सिस्टम जड़ ज्यादा है, उदात्त और अपग्रेड होने के मोड में कम रहता है.. पर यह संभव है कि आप एक जड़ सिस्टम में अपने ज्ञान, समझ, चेतना, अनुभव, यात्राओं के बल पर बेहद गतिमान, बेहद उदात्त बन जाएं और मुक्त हो जाएं... किसी ने मुझसे कहा कि फलां आदमी आपके दुश्मन हैं... मैंने उससे कहा कि मैं किसी को दुश्मन नहीं मानता... फलां आदमी मुझे दुश्मन मानता होगा क्योंकि यह उसकी दिक्कत है... यह उसकी प्राब्लम है...
मुझे तो किसी में दुश्मनी मानने, लेने जैसी कोई चीज दिखती नहीं... दुश्मनी अगर किसी से है तो मुझे खुद से है.. मेरे अंदर की नकारात्मकता से है... और, यह आंतरिक युद्ध हर कोई लड़ता है... कई लोग इस आंतरिक युद्ध को समझ नहीं पाते इसलिए अपने फ्रस्ट्रेशन, अपनी कुंठाएं, अपनी ताकत अपने अधीनस्थों, अपने जूनियरों, अपने जानने-चाहने वालों पर निकालने लगते हैं और उनसे दुश्मनी मोल ले बैठते हैं, उन्हें दुश्मन मानने लगते हैं... पर दरअसल दुश्मन तो खुद हमारे अंदर, हमारी सोच में, हमारी स्टाइल में, हमारी कार्यशैली में बैठा हुआ है...
जेल से बाहर आने के एक साल के मौकै पर मैं सदा की तरह पिता विनोद कापड़ी और माताजी साक्षी जोशी को माफ करूंगा, ये जानते हुए भी कि वो नहीं जानते उन्होंने क्या किया ... और ये भी कि मेरे माफ करने के बावजूद दुनिया के हर हिस्से में हर रूप में मौजूद गाड पार्टकिल उनकी अंदर की नकारात्मकता, अहंकार का हिसाब किसी न किसी फार्मेट में लेगा, स्वयंमेव लेगा... इसी को प्राकृतिक न्याय भी कहते हैं... अगर उन्होंने नकारात्मकता और अहंकार त्याग दिया हो तो बड़ी अच्छी बात है... वो अहंकार चाहें मैनेजिंग एडिटर होने के भाव का हो, सत्ता-सिस्टम से बेहद नजदीकी करीबी रखने वाली सोच की हो या सब सिखाकर ठीक करने की मानसिकता का हो...
जेल से बाहर आने के एक साल के मौकै पर मैं सदा की तरह पिता विनोद कापड़ी और माताजी साक्षी जोशी को माफ करूंगा, ये जानते हुए भी कि वो नहीं जानते उन्होंने क्या किया ... और ये भी कि मेरे माफ करने के बावजूद दुनिया के हर हिस्से में हर रूप में मौजूद गाड पार्टकिल उनकी अंदर की नकारात्मकता, अहंकार का हिसाब किसी न किसी फार्मेट में लेगा, स्वयंमेव लेगा... इसी को प्राकृतिक न्याय भी कहते हैं... अगर उन्होंने नकारात्मकता और अहंकार त्याग दिया हो तो बड़ी अच्छी बात है... वो अहंकार चाहें मैनेजिंग एडिटर होने के भाव का हो, सत्ता-सिस्टम से बेहद नजदीकी करीबी रखने वाली सोच की हो या सब सिखाकर ठीक करने की मानसिकता का हो...
जो इसी को समझ लेता है फिर वह किसी से दुश्मनी नहीं मानता और किसी को सबक सिखाने के चक्कर में नहीं पड़ता क्योंकि हर एक्शन रिएक्शन का प्रति उत्तर में प्राकृतिक व स्वाभाविक रिएक्शन एक्शन होता है.. बिना किसी के हस्तक्षेप, बिना किसी के कहे, बिना किसी के किए... हां, इतना मैं जानता हूं कि मेरे बहुत एहसान विनोद कापड़ी पर होंगे... जैसे कि जब विनोद साक्षी की प्रेम लीला की तस्वीरें व चैट व पत्र लीक किए गए थे तो मेरे पास भी छापने के लिए भेजे गए पर हमेशा की तरह मैंने भावना, दुश्मनी की जगह एथिक्स का साथ दिया और किसी के परसनल लाइफ की चीजों को प्रकाशित करने से मना कर दिया...
मुझे याद है तब विनोद कापड़ी और साक्षी ने उसे भड़ास पर न छपने देने के लिए जाने कितने तरह से प्रयास किए थे और न छपने पर इसका आभार भी माना था... जब मैं दैनिक जागरण में था और एक रात कापड़ी से नौकरी के लिए फोन किया तो उसकी बोलने के लहजे से दुखी होकर उसी के लहजे में जवाब दे दिया और फिर जो द्विपक्षीय गाली गलौज शुरू हुई उसे विनोद कापड़ी ने चोरों की तरह चुपके से रिकार्ड कर लिया और दैनिक जागरण के मालिक संजय गुप्ता को भेज दिया.. फिर वही होना था, नौकरी मिलने की जगह जागरण में चल रही नौकरी भी चली गई... ऐसे कई वाकये हैं..
ये भी सच है कि मैंने दारू के नशे में कापड़ी को कई बार गरियाया है... पर पूरा हिसाब लगाया जाए तो कापड़ी ने सदा मुझे आगे बढ़ाया है... जिसके लिए मैं उनका आभारी रहूंगा... मतलब ये कि उन्हीं के कदमों से बने हालात के कारण भड़ास4मीडिया का जन्म हुआ... उन्हीं के कदमों से बने हालात के कारण 'जानेमन जेल' ने जन्म लिया.. ये दो बड़ी उपलब्धि अपन के खाते में है और इसके कारक हैं विनोद कापड़ी. कभी कभी मुझे लगता है कि मैं आप सभी को बता दूं कि असल में विनोद और मेरी फिक्सिंग है, एक दूसरे को टीआरपी दिलाते रहने के लिए... :)
विनोद कापड़ी और साक्षी जोशी द्वारा मेरे खिलाफ फर्जी मुकदमे लिखाने और जेल भिजवाने की 'पहल' के बाद दैनिक जागरण को भड़ास पर हमला करने का मौका मिला और घर-आफिसों पर छापेमारी कराने के साथ-साथ भड़ास के तत्कालीन कंटेंट एडिटर अनिल सिंह को भी जेल में डलवा दिया गया... हालांकि अंत में दैनिक जागरण ने अपनी औकात देख ली कि वह चाहकर भी कुछ नहीं उखाड़ सका हम लोगों का.. बल्कि उल्टे हम लोग उसका काफी कुछ उखाड़ चुके हैं.. और उखाड़ते रहेंगे क्योंकि जो गलत है, जो घटिया है, जो जनविरोधी है, उसका पर्दाफाश हम तथ्यों, घटनाओं के सामने आने पर करते रहेंगे...
पता नहीं आजकल निशिकांत ठाकुर किधर है.. पता नहीं आजकल आलोक मेहता किधर है... पता नहीं आजकल संजय गुप्ता के क्या हाल हैं.. पता नहीं आजकल शशिशेखर क्या कर रहा है... मुलायम-अखिलेश का हाल चाल तो आप सबको पता ही है... ये दोनों पिता पुत्र बेचारे लोकसभा की लड़ाई में आगे रहने के लिए इन दिनों खून की होली खेल-खिलवा रहे हैं... देखना, इनका दांव न सिर्फ उल्टा पड़ेगा बल्कि इन्हें समझ में भी आ जाएगा कि पिछले 66 सालों से जो तरीका ये लोग राजनीति करने का अपनाए हुए हैं, वह अब नहीं चलने वाला क्योंकि जो नई पीढ़ी है, वह सब हरामीपने को जानती है...
ये सब के सब मेरी नजर में बेहद कमजोर और दया के पात्र वाले लोग हैं जिन्हें असल में पता ही नहीं है कि उनका जन्म हुआ क्यों है... ये खुद को बड़ा बना सकते थे पर नाली का कीड़ा बनकर जीने का शौक है तो भला कौन किसे रोक सकता है... जान लेना भाइयों... ये रुपये, बंगले, कुर्सी, कार अपने साथ बांध कर नहीं ले जाओगे.... और तुम लोग सौ साल से ज्यादा भी नहीं जिओगे... तो फिर काहे का हाय हाय दोस्त... कम से कम तुम पढ़े लिखे मीडिया वालों से ये उम्मीद नहीं कि इतना गर्हित सोच, घटिया जीवनशैली अपनाओगे... सुधर जाओ यारों, अभी वक्त है... विनोद कापड़ी ने खुद को बहुत बदला है... उम्मीद है तुम लोग भी बदल रहे होगे... अगर ऐसा है तो बड़ी अच्छी बात है... जय हो...
भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.
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