Wednesday, December 29, 2010
Free calling in Gmail extended through 2011
Posted by Robin Schriebman, Software Engineer
When we launched calling in Gmail back in August, we wanted it to be easy and affordable, so we made calls to the U.S. and Canada free for the rest of 2010. In the spirit of holiday giving and to help people keep in touch in the new year, we’re extending free calling for all of 2011.
In case you haven’t tried it yet, dialing a phone number works just like a regular phone. Look for “Call phone” at the top of your Gmail chat list and dial a number or enter a contact’s name.
To learn more, visit gmail.com/call. Calling in Gmail is currently only available to U.S. based Gmail users.
Happy New Year and happy calling!
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Tuesday, December 28, 2010
भारत का स्वाभिमान लिखूं
Monday, December 27, 2010
अगर आप गरीब जन्म लेते हैँ तो यह आपका दोष नहीँ लेकिन यदि आप गरीब ही मरते हैँ तो यह आपकी लापरवाही और आपकी अनकेपेबिलिटी है
अगर आप गरीब जन्म लेते हैँ तो यह आपका दोष नहीँ लेकिन यदि आप गरीब ही मरते हैँ तो यह आपकी लापरवाही और आपकी अनकेपेबिलिटी है-
बिल गेट्स
बिल गेट्स
Sunday, December 26, 2010
बस तू मेरे साथ रह ऐ मेरे हमसफ़र
सहमी सी निगाहों में ख्वाब हम जगा देंगे
सूनी सी राहों में फूल हम बिछा देंगे
हमारे संग मुस्कराकर तो देखिये
हम आपका हर गम भुला देंगे
हर कोई दे नहीं सकता हर किसी का साथ
मगर आपका साथ हम मरते दम तक देंगे
आपकी आँखों में मैंने देखी है जो मासूमियत
उसे बरकरार रखने के लिए हम कुछ भी कर देंगे
बस तू मेरे साथ रह ऐ मेरे हमसफ़र
तेरा साथ है तो हम दुनिया से टकरा लेंगे.
अगर तू मुझसे रूठ भी गई वो मेरे सनम
हम तुझको हर हाल में मना लेंगे
तू साथ है तो सारा जहा है मेरा
तू ही है मेरा और कुछ नहीं इस दुनिया में
ऐ सनम तुझसे बिछड़ते ही हम इस दुनिया से कूंच कर देंगे.
सूनी सी राहों में फूल हम बिछा देंगे
हमारे संग मुस्कराकर तो देखिये
हम आपका हर गम भुला देंगे
हर कोई दे नहीं सकता हर किसी का साथ
मगर आपका साथ हम मरते दम तक देंगे
आपकी आँखों में मैंने देखी है जो मासूमियत
उसे बरकरार रखने के लिए हम कुछ भी कर देंगे
बस तू मेरे साथ रह ऐ मेरे हमसफ़र
तेरा साथ है तो हम दुनिया से टकरा लेंगे.
अगर तू मुझसे रूठ भी गई वो मेरे सनम
हम तुझको हर हाल में मना लेंगे
तू साथ है तो सारा जहा है मेरा
तू ही है मेरा और कुछ नहीं इस दुनिया में
ऐ सनम तुझसे बिछड़ते ही हम इस दुनिया से कूंच कर देंगे.
Saturday, December 25, 2010
गाँधीजी का हिन्दू वाद और मुस्लिम वाद
गाँधीजी का हिन्दू वाद और मुस्लिम वाद
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23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद जी की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। स्वामी जी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाया गया था। वे बहुत कमजोर थे। रोग शय्या पर लेटे रहते थे। डाक्टरों ने उन्हें लम्बी बात करने से मना किया था। उनकी से...वा में लगे उनके निष्ठावान सेवक धर्म सिंह को डाक्टरी निर्देश था कि लोगों को उनसे न मिलने दें। ऐसे में कोई अब्दुल रशीद नामक युवक आया। धर्म सिंह ने उसे रोका। उसने बहस की। स्वामी जी ने उस बहस को सुना और अब्दुल रशीद को भीतर आने देने को कहा। अब्दुल रशीद ने कहा कि वह स्वामी जी से इस्लाम मजहब के बारे में चर्चा करने आया है। स्वामी जी ने कहा कि अभी तो कमजोरी के कारण मैं लम्बी बात करने की स्थिति में नहीं हूँ , फिर कभी आइये। तब अब्दुल रशीद ने प्यास मिटाने के लिए पानी माँगा। स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी लाने बाहर भेजा। और तभी स्वामी जी को अकेले पाकर अब्दुल रशीद ने उनके कमजोर शरीर में दो गोलियाँ दाग कर उनकी हत्या कर दी।
स्वामी जी की हत्या का यह वर्णन स्वयँ गाँधीजी ने शब्दबद्ध किया है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या करने के इरादे से ही आया और स्वामी जी ने अपनी सहज उदारता और दयालुता के कारण उसे यह अवसर प्रदान कर दिया। पर क्या अब्दुल रशीद का यह निर्णय अकेले का था? क्या उसकी स्वामी जी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता हो सकती थी? क्योंकि न स्वामी जी उसे जानते थे, न वह उन्हें कभी पहले मिला था।
गाँधीजी ने 30 दिसंबर 1930 के "यंग इंडिया" में "शहीद श्रद्धानंद" शीर्षक से अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि "कोई छह महीने हुए स्वामी श्रद्धानंद जी सत्याग्रह आश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे। बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते हैं जिनमें उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती है।" 9 जनवरी 1927 के "यंग इंडिया" में उन्होंने लिखा कि "उनके शुभचिंतकों ने उन्हें अकेले सफर न करने का आग्रह किया किंतु इस आस्थावान व्यक्ति का उत्तर रहता, "ईश्वर के अलावा और कौन मेरी रक्षा कर सकता है।" उसकी इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं मर सकता। जब तक वह मेरे शरीर से समाज की सेवा कराना चाहेगा मेरा बाल भी बांका नहीं होगा।" गाँधीजी ने माना कि स्वामी जी के शुद्धि आंदोलन के कारण मुसलमान उनसे नाराज थे, जबकि उनका शुद्धि आंदोलन मुसलमानों के तबलीगी आंदोलन का जवाब था। वह मत-परिवर्तन न होकर प्रायश्चित मात्र था। स्वामी जी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे। उनका ख्याल था कि हिन्दू दबा दिये गये हैं और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत की रक्षा करनी चाहिए।
तलवार की तूती
गाँधीजी के उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या व्यक्तिगत कारणों से नहीं करना चाहता था। अपितु वह एक पूरे समाज के सामूहिक आक्रोश का प्रतिनिधित्व कर रहा था। पर उसके लिए स्वामी जी को तर्क से समझाने के बजाय उसने हिंसा का रास्ता क्यों अपनाया? इस प्रश्न का उत्तर भी गाँधीजी के शब्दों में ही पढ़ना उचित रहेगा। गाँधीजी लिखते हैं, "मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" (सम्पूर्ण वाङमय खंड 24 , पृष्ठ 469-70)
यह सब जानते-बूझते भी गाँधीजी हिन्दुओं को आत्म-संयम का पाठ देते हुए लिखते हैं, "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"
हिन्दू समाज तो अपनी स्वभावजन्य दुर्बलता के कारण गाँधीजी के बताए रास्ते पर चला। पर मुस्लिम समाज की तरफ से जो प्रतिक्रिया आयी उसने गाँधी को चौंका दिया। गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके पुराने मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत क्षुब्ध हैं। उनका कहना है कि मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा। मजहरूल हक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे इंग्लैंड में गाँधीजी के सहपाठी और मित्र रहे थे, 1948 में चम्पारण आंदोलन में उन्होंने गाँधीजी की सहायता की थी, खिलाफत के प्रश्न पर वे 1920 के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे, उन्होंने पटना में अपनी भू-सम्पत्ति पर सदाकत आश्रम की स्थापना की थी। उनकी ओर से ऐसी प्रतिक्रिया आएगी यह गाँधीजी सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने बहुत दु:खी मन से 1 जनवरी 1927 को मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। यह पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु संपूर्ण गाँधी वाङमय के सम्पादक मंडल की दृष्टि इस पर बहुत देर से गई और यह पत्र खण्ड 97 के अंत में स्थान पा सका। इसलिए शोधकर्ताओं की चर्चा का विषय नहीं बन पाया।
इस पत्र में मजहरूल हक साहब को गाँधीजी लिखते हैं, "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।
अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी 1924 ) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..." गाँधीजी का यह पत्र दृढ़ता और विन्रमता का अद्भुत संगम है।
अहिंसा स्वीकार नहीं
मजहरूल हक साहब को लिखे इस पत्र में गाँधीजी ने फरवरी 1924 में जेल से बाहर आने के बाद अपने लेखन का जिक्र किया है। मार्च 1922 से फरवरी 1924 तक गाँधीजी जेल में बंद थे। असहयोग आंदोलन वापस लेने की वे पहले ही घोषणा कर चुके थे। वैसे भी तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के सत्ता में आने के बाद खिलाफत आंदोलन की हवा निकल चुकी थी और मुस्लिम समाज जिस जोशो खरोश के साथ आंदोलन में उतरा था, उतनी ही फुर्ती से उससे बाहर निकल गया था। हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की जगह पूरा देश मुस्लिम दंगों का शिकार बन गया था। गाँधीजी ने जेल से बाहर आने के बाद 29 मई 1924 के यंग इंडिया में "हिन्दू मुस्लिम तनाव:कारण और उपचार" शीर्षक से एक लम्बा लेख लिखा जो सम्पूर्ण गाँधी वाङमय के खंड 24 में बीस पृष्ठ (139-151) पर छपा है। इस लेख में गाँधीजी ने माना कि मुसलमान लोग मेरी अहिंसा को स्वीकार नहीं करते। वे लिखते हैं, "दो साल पहले तक एक मुसलमान भाई ने मुझसे सच्चे दिल से कहा था, "मैं आपकी अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। मैं तो यही चाहता हूँ कि कम से कम मेरे मुसलमान भाई इसे न अपनाएँ। हिंसा जीवन का नियम है। अहिंसा की जैसी परिभाषा आप करते हैं, वैसी अहिंसा से अगर स्वराज्य मिलता हो तो भी वह मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने शत्रु से अवश्य घृणा करूंगा।" ये भाई बहुत ईमानदार आदमी हैं। मैं इनकी बड़ी इज्जत करता हूँ। मेरे एक दूसरे बहुत बड़े मुसलमान दोस्त के बारे में भी मुझे ऐसा ही बताया गया है। (पृष्ठ 142)
दोनों समाजों के चरित्र और मानसिकता का अंतर बताते हुए गाँधीजी लिखते हैं, "मुझे रत्ती भर भी शक नहीं कि ज्यादातर झगड़ों में हिन्दू लोग ही पिटते हैं। मेरे निजी अनुभव से भी इस मत की पुष्टि होती है कि मुसलमान आमतौर पर धींगामुश्ती करने वाला (बुली) होता है और हिन्दू कायर होता है। रेलगाड़ियों में, रास्तों पर तथा ऐसे झगड़ों का निपटारा करने के जो मौके मुझे मिले हैं उनमें मैंने यही देखा है। क्या अपने कायरपन के लिए हिन्दू मुसलमानों को दोष दे सकते हैं? जहाँ कायर होंगे वहाँ जालिम होंगे ही। कहते हैं, सहारनपुर में मुसलमानों ने घर लूटे, तिजोरियाँ तोड़ डालीं और एक जगह हिन्दू महिला को बेइज्जत भी किया। इसमें गलती किसकी थी? यह सच है कि मुलसमान अपने इस घृणित आचरण की सफाई किसी तरह नहीं दे सकते। पर, एक हिन्दू होने की हैसियत से मैं तो मुसलमानों की गुंडागर्दी के लिए उन पर गुस्सा होने से अधिक हिन्दुओं की नामर्दी पर शर्मिंदा हूँ। जिनके घर लूटे गए, वे अपने माल- असवाब की हिफाजत में जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनों की बेइज्जती हुई उनके नाते रिश्तेदार उस वक्त कहाँ गये थे? क्या उस समय उनका कुछ भी कर्तव्य नहीं था? मेरे अहिंसा धर्म में खतरे के वक्त अपने कुटुम्बियों को अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में मुझे यदि किसी एक को पसंद करना पड़े तो मैं हिंसा को ही पसंद करूंगा। (पृष्ठ 145-146)
गाँधीजी आगे लिखते हैं, "मैं मानता हूँ कि अगर हिन्दू लोग अपनी हिफाजत के लिए गुंडों को संगठित करेंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी। उनका यह आचरण खाई से बचकर खंदक में गिरने जैसा होगा। बनिये और ब्राह्मण अपनी रक्षा अहिंसात्मक तरीके से न कर सकते हों तो उन्हें हिंसात्मक तरीके से ही आत्मरक्षा करना सीखना चाहिए। लोगों को बड़ी शान के साथ कहते सुना गया है कि अभी हाल में एक जगह अछूतों की हिफाजत में (क्योंकि उन अछूतों को मौत का भय नहीं था) हिन्दुओं का एक जुलूस मस्जिद के सामने से (धूमधाम के साथ गाते-बजाते हुए) निकल गया और उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
वही स्थिति, वही प्रश्न
गाँधीजी के उस लम्बे लेख में से यह लम्बा उद्धरण अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े करता है। यह दोनों समाजों की प्रकृति और मानसिकता में भारी अंतर दिखाता है। अहिंसा के आदर्श के उपासक हिन्दू समाज की अहिंसा कायरता बन गयी है। कायर अहिंसा से हिंसा स्वागत योग्य है। पूरा हिन्दू समाज कायरता से ग्रस्त नहीं है, उसका एक वर्ग निर्भीक और बहादुर है। अत: हिन्दू समाज की अन्तर्रचना का सूक्ष्म अध्ययन करना आवश्यक है।
गाँधीजी के इस लेख की व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। गाँधीजी को बड़ी संख्या में देश भर से पत्र पहुँचे। इसमें एक लम्बा पत्र प्रख्यात दार्शनिक एवं स्वाधीनता सेनानी डॉ. भगवान दास ने 5 जून, 1924 को वाराणसी से गाँधीजी को लिखा। उसमें उन्होंने अनेक प्रश्न उठाए। गाँधीजी ने उस पूरे पत्र को यंग इंडिया में प्रकाशित किया (सम्पूर्ण वाङमय, खंड 24 में पृ. 602-606) पर यह पत्र उपलब्ध है। गाँधीजी ने "हिन्दू क्या करें? शीर्षक से उस पत्र में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर 19 जून 1924 के यंग इंडिया में देने की कोशिश की (वही 24 पृष्ठ 276-278) दो श्रेष्ठ हिन्दू मनीषियों के इस पत्र व्यवहार का अध्ययन भारत की वर्तमान स्थिति और हिन्दू समाज के अंतद्र्वंद्व को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।
जो स्थिति हिन्दू समाज के सामने 1924 में खड़ी थी वही 1941 में सुनियोजित पाकिस्तानी दंगों के कारण उत्पन्न हुई। उस समय भी गाँधीजी, कन्हैयालाल माणिकलाल .मुंशी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जैसे शीर्ष नेताओं के सामने प्रश्न था कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला क्या कांग्रेस की अहिंसा से संभव है? यही प्रश्न 1947 में विभाजन के समय खड़ा था और यही आज भी खड़ा है।
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23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद जी की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। स्वामी जी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाया गया था। वे बहुत कमजोर थे। रोग शय्या पर लेटे रहते थे। डाक्टरों ने उन्हें लम्बी बात करने से मना किया था। उनकी से...वा में लगे उनके निष्ठावान सेवक धर्म सिंह को डाक्टरी निर्देश था कि लोगों को उनसे न मिलने दें। ऐसे में कोई अब्दुल रशीद नामक युवक आया। धर्म सिंह ने उसे रोका। उसने बहस की। स्वामी जी ने उस बहस को सुना और अब्दुल रशीद को भीतर आने देने को कहा। अब्दुल रशीद ने कहा कि वह स्वामी जी से इस्लाम मजहब के बारे में चर्चा करने आया है। स्वामी जी ने कहा कि अभी तो कमजोरी के कारण मैं लम्बी बात करने की स्थिति में नहीं हूँ , फिर कभी आइये। तब अब्दुल रशीद ने प्यास मिटाने के लिए पानी माँगा। स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी लाने बाहर भेजा। और तभी स्वामी जी को अकेले पाकर अब्दुल रशीद ने उनके कमजोर शरीर में दो गोलियाँ दाग कर उनकी हत्या कर दी।
स्वामी जी की हत्या का यह वर्णन स्वयँ गाँधीजी ने शब्दबद्ध किया है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या करने के इरादे से ही आया और स्वामी जी ने अपनी सहज उदारता और दयालुता के कारण उसे यह अवसर प्रदान कर दिया। पर क्या अब्दुल रशीद का यह निर्णय अकेले का था? क्या उसकी स्वामी जी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता हो सकती थी? क्योंकि न स्वामी जी उसे जानते थे, न वह उन्हें कभी पहले मिला था।
गाँधीजी ने 30 दिसंबर 1930 के "यंग इंडिया" में "शहीद श्रद्धानंद" शीर्षक से अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि "कोई छह महीने हुए स्वामी श्रद्धानंद जी सत्याग्रह आश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे। बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते हैं जिनमें उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती है।" 9 जनवरी 1927 के "यंग इंडिया" में उन्होंने लिखा कि "उनके शुभचिंतकों ने उन्हें अकेले सफर न करने का आग्रह किया किंतु इस आस्थावान व्यक्ति का उत्तर रहता, "ईश्वर के अलावा और कौन मेरी रक्षा कर सकता है।" उसकी इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं मर सकता। जब तक वह मेरे शरीर से समाज की सेवा कराना चाहेगा मेरा बाल भी बांका नहीं होगा।" गाँधीजी ने माना कि स्वामी जी के शुद्धि आंदोलन के कारण मुसलमान उनसे नाराज थे, जबकि उनका शुद्धि आंदोलन मुसलमानों के तबलीगी आंदोलन का जवाब था। वह मत-परिवर्तन न होकर प्रायश्चित मात्र था। स्वामी जी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे। उनका ख्याल था कि हिन्दू दबा दिये गये हैं और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत की रक्षा करनी चाहिए।
तलवार की तूती
गाँधीजी के उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या व्यक्तिगत कारणों से नहीं करना चाहता था। अपितु वह एक पूरे समाज के सामूहिक आक्रोश का प्रतिनिधित्व कर रहा था। पर उसके लिए स्वामी जी को तर्क से समझाने के बजाय उसने हिंसा का रास्ता क्यों अपनाया? इस प्रश्न का उत्तर भी गाँधीजी के शब्दों में ही पढ़ना उचित रहेगा। गाँधीजी लिखते हैं, "मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" (सम्पूर्ण वाङमय खंड 24 , पृष्ठ 469-70)
यह सब जानते-बूझते भी गाँधीजी हिन्दुओं को आत्म-संयम का पाठ देते हुए लिखते हैं, "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"
हिन्दू समाज तो अपनी स्वभावजन्य दुर्बलता के कारण गाँधीजी के बताए रास्ते पर चला। पर मुस्लिम समाज की तरफ से जो प्रतिक्रिया आयी उसने गाँधी को चौंका दिया। गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके पुराने मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत क्षुब्ध हैं। उनका कहना है कि मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा। मजहरूल हक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे इंग्लैंड में गाँधीजी के सहपाठी और मित्र रहे थे, 1948 में चम्पारण आंदोलन में उन्होंने गाँधीजी की सहायता की थी, खिलाफत के प्रश्न पर वे 1920 के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे, उन्होंने पटना में अपनी भू-सम्पत्ति पर सदाकत आश्रम की स्थापना की थी। उनकी ओर से ऐसी प्रतिक्रिया आएगी यह गाँधीजी सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने बहुत दु:खी मन से 1 जनवरी 1927 को मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। यह पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु संपूर्ण गाँधी वाङमय के सम्पादक मंडल की दृष्टि इस पर बहुत देर से गई और यह पत्र खण्ड 97 के अंत में स्थान पा सका। इसलिए शोधकर्ताओं की चर्चा का विषय नहीं बन पाया।
इस पत्र में मजहरूल हक साहब को गाँधीजी लिखते हैं, "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।
अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी 1924 ) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..." गाँधीजी का यह पत्र दृढ़ता और विन्रमता का अद्भुत संगम है।
अहिंसा स्वीकार नहीं
मजहरूल हक साहब को लिखे इस पत्र में गाँधीजी ने फरवरी 1924 में जेल से बाहर आने के बाद अपने लेखन का जिक्र किया है। मार्च 1922 से फरवरी 1924 तक गाँधीजी जेल में बंद थे। असहयोग आंदोलन वापस लेने की वे पहले ही घोषणा कर चुके थे। वैसे भी तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के सत्ता में आने के बाद खिलाफत आंदोलन की हवा निकल चुकी थी और मुस्लिम समाज जिस जोशो खरोश के साथ आंदोलन में उतरा था, उतनी ही फुर्ती से उससे बाहर निकल गया था। हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की जगह पूरा देश मुस्लिम दंगों का शिकार बन गया था। गाँधीजी ने जेल से बाहर आने के बाद 29 मई 1924 के यंग इंडिया में "हिन्दू मुस्लिम तनाव:कारण और उपचार" शीर्षक से एक लम्बा लेख लिखा जो सम्पूर्ण गाँधी वाङमय के खंड 24 में बीस पृष्ठ (139-151) पर छपा है। इस लेख में गाँधीजी ने माना कि मुसलमान लोग मेरी अहिंसा को स्वीकार नहीं करते। वे लिखते हैं, "दो साल पहले तक एक मुसलमान भाई ने मुझसे सच्चे दिल से कहा था, "मैं आपकी अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। मैं तो यही चाहता हूँ कि कम से कम मेरे मुसलमान भाई इसे न अपनाएँ। हिंसा जीवन का नियम है। अहिंसा की जैसी परिभाषा आप करते हैं, वैसी अहिंसा से अगर स्वराज्य मिलता हो तो भी वह मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने शत्रु से अवश्य घृणा करूंगा।" ये भाई बहुत ईमानदार आदमी हैं। मैं इनकी बड़ी इज्जत करता हूँ। मेरे एक दूसरे बहुत बड़े मुसलमान दोस्त के बारे में भी मुझे ऐसा ही बताया गया है। (पृष्ठ 142)
दोनों समाजों के चरित्र और मानसिकता का अंतर बताते हुए गाँधीजी लिखते हैं, "मुझे रत्ती भर भी शक नहीं कि ज्यादातर झगड़ों में हिन्दू लोग ही पिटते हैं। मेरे निजी अनुभव से भी इस मत की पुष्टि होती है कि मुसलमान आमतौर पर धींगामुश्ती करने वाला (बुली) होता है और हिन्दू कायर होता है। रेलगाड़ियों में, रास्तों पर तथा ऐसे झगड़ों का निपटारा करने के जो मौके मुझे मिले हैं उनमें मैंने यही देखा है। क्या अपने कायरपन के लिए हिन्दू मुसलमानों को दोष दे सकते हैं? जहाँ कायर होंगे वहाँ जालिम होंगे ही। कहते हैं, सहारनपुर में मुसलमानों ने घर लूटे, तिजोरियाँ तोड़ डालीं और एक जगह हिन्दू महिला को बेइज्जत भी किया। इसमें गलती किसकी थी? यह सच है कि मुलसमान अपने इस घृणित आचरण की सफाई किसी तरह नहीं दे सकते। पर, एक हिन्दू होने की हैसियत से मैं तो मुसलमानों की गुंडागर्दी के लिए उन पर गुस्सा होने से अधिक हिन्दुओं की नामर्दी पर शर्मिंदा हूँ। जिनके घर लूटे गए, वे अपने माल- असवाब की हिफाजत में जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनों की बेइज्जती हुई उनके नाते रिश्तेदार उस वक्त कहाँ गये थे? क्या उस समय उनका कुछ भी कर्तव्य नहीं था? मेरे अहिंसा धर्म में खतरे के वक्त अपने कुटुम्बियों को अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में मुझे यदि किसी एक को पसंद करना पड़े तो मैं हिंसा को ही पसंद करूंगा। (पृष्ठ 145-146)
गाँधीजी आगे लिखते हैं, "मैं मानता हूँ कि अगर हिन्दू लोग अपनी हिफाजत के लिए गुंडों को संगठित करेंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी। उनका यह आचरण खाई से बचकर खंदक में गिरने जैसा होगा। बनिये और ब्राह्मण अपनी रक्षा अहिंसात्मक तरीके से न कर सकते हों तो उन्हें हिंसात्मक तरीके से ही आत्मरक्षा करना सीखना चाहिए। लोगों को बड़ी शान के साथ कहते सुना गया है कि अभी हाल में एक जगह अछूतों की हिफाजत में (क्योंकि उन अछूतों को मौत का भय नहीं था) हिन्दुओं का एक जुलूस मस्जिद के सामने से (धूमधाम के साथ गाते-बजाते हुए) निकल गया और उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
वही स्थिति, वही प्रश्न
गाँधीजी के उस लम्बे लेख में से यह लम्बा उद्धरण अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े करता है। यह दोनों समाजों की प्रकृति और मानसिकता में भारी अंतर दिखाता है। अहिंसा के आदर्श के उपासक हिन्दू समाज की अहिंसा कायरता बन गयी है। कायर अहिंसा से हिंसा स्वागत योग्य है। पूरा हिन्दू समाज कायरता से ग्रस्त नहीं है, उसका एक वर्ग निर्भीक और बहादुर है। अत: हिन्दू समाज की अन्तर्रचना का सूक्ष्म अध्ययन करना आवश्यक है।
गाँधीजी के इस लेख की व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। गाँधीजी को बड़ी संख्या में देश भर से पत्र पहुँचे। इसमें एक लम्बा पत्र प्रख्यात दार्शनिक एवं स्वाधीनता सेनानी डॉ. भगवान दास ने 5 जून, 1924 को वाराणसी से गाँधीजी को लिखा। उसमें उन्होंने अनेक प्रश्न उठाए। गाँधीजी ने उस पूरे पत्र को यंग इंडिया में प्रकाशित किया (सम्पूर्ण वाङमय, खंड 24 में पृ. 602-606) पर यह पत्र उपलब्ध है। गाँधीजी ने "हिन्दू क्या करें? शीर्षक से उस पत्र में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर 19 जून 1924 के यंग इंडिया में देने की कोशिश की (वही 24 पृष्ठ 276-278) दो श्रेष्ठ हिन्दू मनीषियों के इस पत्र व्यवहार का अध्ययन भारत की वर्तमान स्थिति और हिन्दू समाज के अंतद्र्वंद्व को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।
जो स्थिति हिन्दू समाज के सामने 1924 में खड़ी थी वही 1941 में सुनियोजित पाकिस्तानी दंगों के कारण उत्पन्न हुई। उस समय भी गाँधीजी, कन्हैयालाल माणिकलाल .मुंशी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जैसे शीर्ष नेताओं के सामने प्रश्न था कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला क्या कांग्रेस की अहिंसा से संभव है? यही प्रश्न 1947 में विभाजन के समय खड़ा था और यही आज भी खड़ा है।
Saturday, October 23, 2010
मैं ऐसा ही हूं...
मैं ऐसा ही हूं...
जैसा भी हूं,
मैं ऐसा ही हूं।
थोड़ा सा पागल,
थोड़ा सा सनकी हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
जो दिल में आये बक देता हूं,
गलत बाते न दिल में छुपा सकता हूं।
मै ऐसा ही हूं।।
न अत्याचार करूं.. न अत्याचार सहूं..
न गलत बोलू.. न किसी की सुन सकूं,
मै ऐसा ही हूं।।
देख के दुनिया मुझको जले,
मै किसी को देखकर न जलता हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
जीवन के हर खेल सबसे अलग हूं,
न खुद के पास हूं, न खुद से दूर हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
हार गया . तो रोया..
और जीतने के बाद तो ..हर बार रोया हूं,
क्योकि मै ऐसा ही हूं।।
मै ऐसा ही हूं.. कहती है सारी दुनिया!
बदलने को टोकती है..
यह दुनिया..
फिर भी नहीं बदलता हूं
क्योंकि मै ऐसा ही हूं।।
इस २० उम्र की जिंदगी में..
ना जाने कितने खेल खेल चुका..!
अधिकतर में हार गया..
मगर कुछ तो जीता हूं...
फिर भी मै ऐसा ही हूं।।
इस जीवन की डगर पर
सपनो की दुनिया में..
अक्सर गोते लगाते आया हूं..
सपनो में ही सही
सभी दोस्तों..दुश्मनों से
टकराता आया हूं..
किसी से
हारा भी नहीं..
सबको हराता आया हूं.!
क्योंकि मै ऐसा ही हूं..।।
कोई घमंडी कहे..
या कोई कहे, खुद में खोया रहने वाला!
नहीं सुनता किसी की...
दिल के सिवा!
कमजोरी है या मजबूती...
नहीं पता!
लेकिन...
मैं ऐसा ही हूं......।।
जैसा भी हूं,
मैं ऐसा ही हूं।
थोड़ा सा सनकी हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
जो दिल में आये बक देता हूं,
गलत बाते न दिल में छुपा सकता हूं।
मै ऐसा ही हूं।।
न अत्याचार करूं.. न अत्याचार सहूं..
न गलत बोलू.. न किसी की सुन सकूं,
मै ऐसा ही हूं।।
देख के दुनिया मुझको जले,
मै किसी को देखकर न जलता हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
जीवन के हर खेल सबसे अलग हूं,
न खुद के पास हूं, न खुद से दूर हूं..
मै ऐसा ही हूं।।
हार गया . तो रोया..
और जीतने के बाद तो ..हर बार रोया हूं,
क्योकि मै ऐसा ही हूं।।
मै ऐसा ही हूं.. कहती है सारी दुनिया!
बदलने को टोकती है..
यह दुनिया..
फिर भी नहीं बदलता हूं
क्योंकि मै ऐसा ही हूं।।
इस २० उम्र की जिंदगी में..
ना जाने कितने खेल खेल चुका..!
अधिकतर में हार गया..
मगर कुछ तो जीता हूं...
फिर भी मै ऐसा ही हूं।।
इस जीवन की डगर पर
सपनो की दुनिया में..
अक्सर गोते लगाते आया हूं..
सपनो में ही सही
सभी दोस्तों..दुश्मनों से
टकराता आया हूं..
किसी से
हारा भी नहीं..
सबको हराता आया हूं.!
क्योंकि मै ऐसा ही हूं..।।
कोई घमंडी कहे..
या कोई कहे, खुद में खोया रहने वाला!
नहीं सुनता किसी की...
दिल के सिवा!
कमजोरी है या मजबूती...
नहीं पता!
लेकिन...
मैं ऐसा ही हूं......।।
श्रवण कुमार शुक्ल (सर्वाधिकार सुरक्षित)
Tuesday, October 12, 2010
आज पता चला मौत इतनी हसीन होती है
जिंदगी में कोई दो मिनट मेरे पास न बैठा
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे है.
कोई तोहफा न मिला आजतक मुझे.
और आज फूल ही फूल दिए जा रहे है.
तरस गए हम किसी के हाथ से दिए वो छोटे से रुमाल को
और आज मुझे नए नए कपडे दिए जा रहे है..
कल तक कभी गुलाब का एक फूल तक न मिला
और आज केवड़े जल और इत्र से नहलाते जा रहे है
.दो कदम साथ न चलने को तैयार था कोई
और आज काफिला बनाकर सब चले जा रहे है.
आज सपने में पता चला कि मौत इतनी हसीन होती है.
और कमबख्त हम तो युही रोते हुए जिए जा रहे है.
रात में सोते वक्त सपने में अपनी मौत देखा. मौत के बाद के कुछ पलो तक मै यही सोचता रहा.
आज सब मेरे पास बैठे जा रहे है.
कोई तोहफा न मिला आजतक मुझे.
और आज फूल ही फूल दिए जा रहे है.
तरस गए हम किसी के हाथ से दिए वो छोटे से रुमाल को
और आज मुझे नए नए कपडे दिए जा रहे है..
कल तक कभी गुलाब का एक फूल तक न मिला
और आज केवड़े जल और इत्र से नहलाते जा रहे है
.दो कदम साथ न चलने को तैयार था कोई
और आज काफिला बनाकर सब चले जा रहे है.
आज सपने में पता चला कि मौत इतनी हसीन होती है.
और कमबख्त हम तो युही रोते हुए जिए जा रहे है.
रात में सोते वक्त सपने में अपनी मौत देखा. मौत के बाद के कुछ पलो तक मै यही सोचता रहा.
Thursday, October 7, 2010
बहुत पहले निर्धारित हो चुकी थी अयोध्या फैसले की गाथा: अंक-३ प्रमुख बदलाव बिंदु के रूप में
बहुत पहले निर्धारित हो चुकी थी अयोध्या फैसले की गाथा: अंक-३ प्रमुख बदलाव बिंदु के रूप में
ज्योतिषाचार्य पंडित सागर तिवारी जी कि माने तो इस फैसले का निर्धारण उन्होंने ३० वर्ष पहले ही कर दिया था जिसके बदलाव बिंदु के रूप में ३(अंक) महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा.
ज्ञातव्य हो कि महर्षि जी अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भविष्यवक्ता है . आप इन तथ्यों को उनकी वेबसाइट पर देख सकते है - http://www.bhavishyawaktamaharshisagartiwari.com/
ज्योतिषाचार्य पंडित सागर तिवारी
वेबसाइट के अनुसार ब्रम्हांड की जीवनशक्ति माँ भगवती त्रिपुरसुंदरी की उपासना देवों- ऋषियों ने की.. कलियुग में ब्रम्हार्शी सागर तिवारी ने ३० वर्षों कि घोर साधना के उपरान्त माता के निवास सृष्टि चक्र में 'म' अक्षर ३,१० और १३ महाशक्ति ध्रुवों को प्रक्षेपित करके विश्व में प्रथम बार एक नया इतिहास रचा....'म' व ३,१०,और १३ के रचे विधान से भारत सहित सम्पूर्ण विश्व स्वर्णिमयुग में प्रवेश करेगा.
क्रियेसन व्हील -
भक्तो के अनुसार--महर्षि जी को मां महा त्रिपुर सुन्दरी का आशीर्वाद प्राप्त है। महर्षि सागर ने मां के आदेश पर में 12 चैतन्य विहार वृंदावन में मां महा त्रिपुर सुन्दरी की उपासना की जिसके फलस्वरूप मां के आशीर्वाद से ही ब्राह्माण्ड में 3, 10, 13 अंक और म अक्षर का प्रक्षेपण तीस वर्ष पूर्व किया। आज पूरी सृष्टि इसी म अक्षर और 3, 10, 13 अंक के इर्द-गिर्द घूम रही है। युगांतरवादी विवादों को निपटाने, एकाधिकार को समाप्त करने और भारत सहित सम्पूर्ण विश्व को स्वर्णिम युग में प्रवेश दिलाने के लिये ही ब्रह्माण्ड में इस 3, 10, 13 अंकों और म अक्षर का प्रक्षेपण किया गया। ब्रह्माण्ड की अधिष्ठात्री मां भगवती महा त्रिपुर सुन्दरी की उपासना स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र, कुबेर, सूर्य, चन्द्र, देव गुरू ब्रहस्पति ने की और सर्वोच्च शिखर पर विराजमान हुए। ऋषि-मुनियों ने माता की साधना के बल पर ही लोक कल्याणकारी कार्य किये। माता का निवास ब्रह्माण्ड स्थित सृष्टि चक्र है। सृष्टिचक्र एक त्रिकोणाकार मंच है और स्वरूप चौकोर है। त्रिपुर सुन्दरी, राज राजेश्वरी, ब्रह्मविद्या, श्रीविद्या, माता के अनेक नाम हैं। श्रीविद्या जब जातक को सिद्ध हो जाती है तो माता त्रिपुर सुन्दरी उस साधक के माथे पर ऊर्द्धमुखी त्रिकोण तथा मुख पर अधोमुखी त्रिकोण का निर्माण करती हैं। माथे का त्रिकोण तीसरा नेत्र और मुख का त्रिकोण आशीर्वाद देने में सक्षम है। महाभारत काल में संजय के माथे पर त्रिकोण था और महाविनाश देख रहा था। दुर्वासा ऋषि के मुख पर तीन काले तिल के त्रिकोण की रचना थी जो आशीर्वाद और श्राप देने में सक्षम थे। कई जन्मों की साधना के बाद जब कभी माता इस तरह के त्रिकोण का निर्माण करती है तो उस साधक को नवसृजन का हिस्सा बनाती है। तीस वर्षों की घोर साधना के बाद ब्रह्मर्षि सागर तिवारी को माता ने आशीर्वाद और मोक्ष वाकसिद्धि के तीस वरदान दिये। उनके मस्तक पर त्रिकोण का निर्माण किया और कुछ समय के बाद मुख पर भी त्रिकोण का निर्माण कर दिया। महर्षि जी ने 1981 में माता के आदेश पर सृष्टि चक्र में म अक्षर और 3, 10, 13 शक्ति ध्रुवों को प्रक्षेपित किया। इसी दिन विश्व की रक्षा के लिये महर्षि जी ने तीस अरब घटनाओं को भी प्रक्षेपित कर दिया। युगों-युगों तक जब-जब धरती पर पाप बढ़ेंगे म प्रभावी मार्च, मई और 10 प्रभावी अक्टूबर और 3 प्रभावी दिसम्बर माह में तानाशाहों, महाभ्रष्टों की कुर्सियां पलटेंगी। राम-रावण युद्ध, कृष्ण-कंस युद्ध और महाभारत की शुरूआत म (महिला) से भगवान ने जब-जब अवतार लिया, महिलाओं पर मुसीबत का पहाड़ टूटा। सीता माता को रावण की कैद में रहना पड़ा। राधा माता को वियोग सहना पड़ा तो देवकी माता को कारावास में रहना पड़ा। माता सीता को वनवास के बाद भी कष्टों को सहते हुए धरती की गोद में समाना पड़ा। इन दारुण घटनाओं के बाद ब्रह्मर्षि सागर तिवारी ने माता त्रिपुर सन्दरी की साधना की और अश्रुपात करके यही मांगा कि मां, एक पापी के नाश के लिये अब किसी माता को कष्ट न सहना पड़े। एक पापी के विनाश के लिये ईश्वर को अवतार न लेना पड़े। मां त्रिपुर सन्दरी ने साधना के बाद ही 3, 10, 13, अंकों और म अक्षर के प्रक्षेपण का अधिकार दिया। कहते है कि महर्षि जी को मां का आशीर्वाद है कि अब पापियों को नाश इसी प्रक्षेपण से हो जाएगा।
ज्योतिषाचार्य जी के अनुसार अयोध्या विवाद के समाधान के प्रमुख बिंदु --
- ज्योतिषशीय गणनाओ में यह फैसला ३ अंक को केंद्रविंदु में रख आने से ही हल हो सकता था आइये अयोध्या फैसले के कुछ प्रमुख बिन्दुओ के बारे में जाने जो अंक ३ से प्रभावित अंक ३ से पहले अंक २ दो आता है लेकिन ज्योतिष शास्त्र के मुताबिक धर्म राजनीति के साथ सामाजिक त्रिकोण से जुड़े मुद्दे है वो अंक दो की वजह से अपने अंतिम विन्दु तक नहीं पहुच पाए ----यहाँ २ और ३ के प्रभावों का वर्णन किया जा रहा है -
- श्री राम लला की मूर्ती वहां लाइ गई –तारीख-२२/१२/१९४९, जोड़ा जाए तो १९८३ जो कि ३ के गुणक के रूम में है तथा ३ से भाज्य है
- इस भूमि को १८५७ के बाद दो बागों में बांटा गया जोकि तीन से भाज्य है भूमि २ भागो में बनती थी इसलिए अंतिम तक इसका क्रियान्वयन नहीं हो पाया.
- शुरू में २ पक्ष थे इसलिए कोई फैसला नहीं आ पाया यहाँ तीसरे पक्ष के रूप में नोर्मोही अखय सामने आया जिसके पक्ष में १/३ भाग जमीन न्यायलय के फैसले के बाद आई है - निर्मोही अखाड़े ने अपनी अर्जी दिसबर १७/१९५९ को दाखिल कि जिसके शुरू के दो भाग दिन और माह के - १२ और १७ को शुरू के दोनों पक्षों की आहुति तीसरे के द्वारा होने का कारण भी ज्योतिष के अनुसार फैसला आने पर अपनी मुहर लगता है यहाँ पहले दो पक्षों को आन्केतिक रूप से १७+१२ =२७ को तीसरे पक्ष जोकि निर्मोही अखाड़े का है आन्केतिक रूप से छिनना भिन्न करके अपने ३रा पकद बनाने हेतु काटता है जिसके बाद इसका तीसरा भाग यानी १९५९ बचता है जोकि फैसला होने पर अपने मुहर लगता है गणितीय रूप से यह ३ से भाज्य है ..
- यहाँ २ और ३ के आपसी द्वन्द को देखा जाए तो बाद में एक फाइल और आई जिससे कि मामलो की संख्या बढ़कर ४ हो गई जिसके कारण मामला उलझता गया इसे तीसरे पक्ष यानी न राजनैतिक पक्ष और ना ही सामाजिक पक्ष वरन तीसरे पक्ष यानी न्यायिक पक्ष द्वारा राड कर दिया यहाँ जबतक मामला २ के गुणन याकि कि ४ केसों के बीच था तबतक कोई फैसला नहीं आया, वही ४थे मामले को तीसरे पक्ष द्वारा खारिज करके ३ बनने के साथ ही न्यायलय यानी की ३सरे पक्ष ने अपना फैसला सुनाया.
- मस्जिद को ६/१२/१९९२ को ढहाया गया इस तिथि के तीनो पक्ष यानी तारीख ६, महीना १२ और वर्ष १९९२ था तीन पक्ष थे साथ ही ३नो ३ से भाज्य भी थे ढहाने वाले लोग भी ३ पक्षों से जुड़े थे . इस समय यहाँ सुरक्षा व्यवस्था त्रिस्तरीय थी..
- यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि आज से २१ साल पहले न्यायिक प्रकिया के तहत न्याय के तृतीय स्तर नीचे से तहसीलस्तर पर तहसील न्यायलय में, उसके बाद जिला स्तर जिला जज के पास, उसके बाद तृतीय स्तर यानी कि उच्च न्यालय में एक विशेष पीठ गठित की गई थी. २१ अंक ३ से भाज्य है .
- इस पीठ में ३ न्यायाधीश शामिल थे यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि तीनो न्यायाधीशों में से एक जस्टिस ओ पी श्रीवास्तव की जगह जस्टिस सुधीर अग्रवाल आये थे जो कि इस बेंच के तीसरे न्यायमूर्ति थे वो १२वी बंच से आये थे जिसका योग ३ बैठता था है
- यह पीठ ३ न्यायाधीशों की थी.
- फैसले पर मुख्य रूप से ६ बिंदु उभरकर सामने आये जोकि ३ और २ दोनों से भाज्य है. ३ से भाज्य होने के कारण निष्कर्ष निकला वही २ से भाज्य होने के कारण इसमें कुछ तृतीय रह गई जिसे कोई भी पक्ष साफ़ नहीं रख पाया.यहाँ ३ पक्षों से आशय हिंदू पक्ष, मुश्लिम पक्ष . तथा तीस्ता यानी यानी कि न्यायिक पक्ष से है . न्यायिक पक्ष यानी कि ३रे पक्ष के सामने बाकी दोनों पक्ष यह साफ़ नहीं कर पाए कि वास्तव में सचाई क्या है? जिसके कारण यहाँ थोरा मतभेद बना रह गया इसके वावजूद सारे घटना के २ और ३ के बीच ही सिमटने के मह्भीद होने के वाबजूद शांति और व्यवस्था बनी रही.
- यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक पक्ष ने ३३ गवाह पेश किये जिन्होंने इस केस में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई . ३३ पूरी तरह से ३ से भाज्य है .
- यहाँ इलाहाबाद की २१वी नंबर की बंच ने फैसला सुनाया जोकि ३ से भाज्य है जिसके कारण देश में आशांति और अव्यवस्था का माहौल नहीं नहीं बना.
- फैसला ३०/०९/२०१० को आया यहाँ ध्यान दीजिए ऊपर संक्षेप में कही बातो की जोकि २०१० में सम्पूर्व विश्व में होने बदलाव का संकेत करती है वही ३० और ९ पूरी तरह से ३ से भाज्य है जबकि २०१० का सम्पूर्ण योग भी ३ बनता है .. यह भी ज्योतिषीय गणित में एकदम सही गणना है यहाँ २+०+१+० + ३ होता है
- जमीन को तीन भागो में भिभाजित किया जाना है ज्योतिष शतर के अनुसार यह पहले से ही निश्तित था यकीन न आये तो आप महर्षि कि वेबसाइट पढ़ सकते है .
- फैसला ३ पक्षों के बीच ३ मामलो पर आया ४था केस खारिश कर दिया गया ३रे पक्ष के द्वारा . तीसरा पक्ष न्यायिक पक्ष है .
- फैसला ३.३० मिनट पर ३० तारीख ३रा महीना सन २०१० को आया. इस दौरान यह सभी ३ से भाज्य थे
- फैसले के दौरान ज्योतिष शास्त्र जोकि तीसरे पक्ष के द्वारा न तो जीव न ही ईश्वर वरन तीसरे पक्ष यानी ग्रहों की चाल पर अपनी गणनाए करता है उसमे भी ३ अंक का महत्वपूर्ण योगदान रहा. इसी क्रम में --
१- ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि आजकल चंद्रमा मिथुन राशि में है, जो तीसरे स्थान पर आती है।
२- तीन अंक के स्वामी बृहस्पति हैं और गुरुवार को बृहस्पति भी कहा जाता है। यह फैसला इसी दिन आया है।
३- बृहस्पति इस समय 12वें स्थान पर मीन राशि में है और 12 का कुल योग भी तीन ही बनता है।
उपरोक्त सारी गणनाए ज्योतिषगुरु पंडित ब्रम्हर्षि सागर तिवारी जी ने कई वर्षों पूर्व ही कर दी थी आप ज्योतिषीय परामर्श के लिए उनसे sagartiwari_mtr@yahoo.in संपर्क कर सकते है.
श्रवण शुक्ल के द्वारा संपादित एवं पुनर्संकलित..
Wednesday, September 29, 2010
पत्रकारिता में वेश्यावृत्ति की उपजती प्रवृत्ति : सामयिक ज्वलंत मुद्दा
पहले मै अपने बारे में बता दू कि मै एक छात्र हू तथा पढ़ाई करने के साथ पत्रकारिता की ABCD सीख रहा हूँ। मै पिछले ६ महीनों से एक बेहद मजबूत मीडियाहाउस में अपनी पत्रकारिता की ट्रेनिंग कर रहा हूँ। कहने के लिए मै पत्रकारिता की ट्रेनिंग ले रहा हू लेकिन असली वाकया कुछ और ही है जिसके बारे में फिर कभी विस्तार से भड़ास निकालूँगा.। लेकिन अभी मुद्दे पर चलना ज्यादा उचित होगा।
यु तो पत्रकारिता में वेश्यावृत्ति की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है देखा जाए तो जो काम आज हम कर रहे हैमेहनत यही काम शुरू में वो भी करते थे जो आज बड़े एडिटर बन गए है। बड़े एडिटर बनते ही अपने पुराने दिनों को भूल कर जो लूट खसोट क धंधा इन्होने किया तथा लोगो को डरा धमकाकर जो पैसा इन्होने बनाया आज उसी कि बदौलत यह महान संपादकों में शुमार किये जाने लगे है। एक वक्त होता था जब प्रभु चावला जी पैदल चलकर रिपोर्टिंग करने जाते थे.।।ऐसा मै कम उम्र के होने के नाते सिर्फ दावा नहीं कर रहा हूँ बल्कि उन्ही के एक पुराने सहयोगी रहे एक सज्जन जिन्होंने अपना नामरामप्रताप सिंह बताया वो कहते है.। बात अभी गोस्वामी जी की ही करते है जो हाल ही में पिटे है दैनिक जागरण के महान संपादक महोदय (बड़े पत्रकार) जो अपने आखिरी समय में भी वही जवानी वाला काम करने से बाज नहीं आये इसी वजह से गार्डो से पिट गए.।।जिंदगी भर लोगो से उगाही करते रहे और अपनी आलीशान कोठी को बहुत ही बेहतरीन बना लिए।।अपनी शुरुआत साइकिल से रिपोर्टिंग करके की थी.।।।।।बस समय बीतने के साथ धाक जमाते गए.जिंदगी भर समिति के फंड क पैसा खाकर तथा समिति के लिए आबंटित कोठी को अपनी निजी कोठी कि तरह इस्तेमाल करने रहे।।।दबंगई तो उनकी पुराणी आदत में शुमार था ही.।अंतिम समय में भद्दगी हो गई.।। यह तो एक दो छोटे उदाहरण मात्र भर है.।।
यहाँ पत्रकारिता की वेश्यावृत्ति के बारे में बताता हू.।यहाँ पत्रकारिता करने के नाम पर आज हर कचहरी में दो-चार कथित पत्रकार भाई आपको मिल ही जायेंगे.।।जो पैसे लेकर खबर छपवाने और बदनाम करने क काम व्यापक पैमाने पर कर रहे है. यकीन न हो तो पास के किसी भी कचहरी में जाकर किसी को एक थप्पर मार दो.पुलिस वाले को समझा दो.। मामला जब खतम होने लगेगा तभी यह कथित पत्रकार लोग आपकी रिपोर्टिंग शुरू कर देंगे.।थोरे पैसे मांगेंगे कि हम न्यूज़ रुकवा देंगे.।।कुछ इस तरह हो रहा है पत्रकारिता को वेश्यावृति के धंधे का रूप देने का घटिया खेल.।
अब हो जाए बात एक दो मीडिया हाउस में चलने वाले इससे भी शर्मनाक खेल का ।यहाँ जिस लड़की ने पत्रकारिता की पढ़ाई भी नहीं की हो जिसे खेल के नाम पर लुखाछिपी खेलने के अलावा कुछ न आता हो उसे खेल वाली बुलेटिन का एंकर बना दिया गया और जो लोग योग्य थे उन्हें दरकिनार कर दिया गया.। ऐसी बाते मेरे सामने आई है। वजह वो लड़की उन कथित मीडिया हाउस के मालिकों के साथ पार्टिया अटेण्ड करती है साथ ही उनकी ही माह्नगी गाडियों में उनके साथ घूमकर उनका शोभा बढाने के साथ लोगो पर रौब झाड़ने की एक वजह बनती है। यह एक अलग तरीके से मीडिया कर्मी होने का फायदा उठाना ही हुआ.।।इसे भी हम उसी श्रेणी में खडे कर सकते है।।
यहाँ ३ री बात.। पत्रकार होकर किसी के पास एड के नाम पर उगाही कोई नई बात नहीं है.। स्टिंग आपरेशन के नाम पर उगाही का खेल तो पुराना है इसे लगभग पूरी दुनिया जानती है यहाँ पैसे लेकर छोटे छोटे न्यूज़ पेपर में खबर बनाने उसे खारिज करने का काम पुराना है.। यह एक कड़ाई सच्चाई है लेकिन आप सबके सामने इसलिए बयान कर रहा हू कि यह भी धंधे बाजी वाली ही कारस्तानियो में शुमार होता है.।
हर कोई सिर्फ वही पहुचता है जहा कुछ पैसे मिलने की उम्मीद हो.।कोई किसी गरीब के मामले को नहीं उठाता सिर्फ B4M इसका अपवाद है इस लिंक के जरिये देख सकते है।यहाँ सिर्फ और सिर्फ यशवंत जी जैसे महान आदमी ने मेरा साथ दिया..अपने दम पर चार जमानती भी भर चुके है। कुछ काम अभी भी बाकी है - http://www.bhadas4media.com/dukh-dard/6564-journalist-help.html ।।यहाँ देख चुका हू कि कोई किसी के मदद को सामने नहीं आता खासकर छोटे पत्रकारों के।जिससे कि वो भी उन्ही कामो कि तरफ बढ़ जाते है जो उनके वसूलो के खिलाफ होते है।। जिन्हें वो घृणा दृष्टि से शुरू में देखते थे उन्ही के कदमो का पीछा करना उनकी मजबूरी बन जाती है।। अभी तक मेरी दिक्कत खतम नहीं हुई है इससे हो सकता है कि आज मै जो बाते लिख रहा हू दूसरों के बारे में वही खुद भी करू.।स्टिंग आपरेशन करके मै भी ४०.०००० रुपये बना सकता हू।।लेकिन तब क्या होगा?।।।आओ खुद सोचिये अगर मै सिर्फ एक स्टिंग आपरेशन से ४०.००० कमा कर अपने भाई को छुडा सकता हू तो इस बात की क्या गारंटी है कि मै आगे से वो काम नहीं करूँगा? अगर मै यह काम करता हू तो यह भी पत्रकारिता की दलाली के साथ अपने जमीर की साथ ही खुदकी भी दलाली होगी. । मगर मै ऐसा नहीं करूँगा। मै ताल ठोककर कहता हू, हाँ मै पत्रकारिता सीख रहा हू लेकिन मै कभी पत्रकारिता की दलाली करके अपना घर नहीं भरूँगा।.
आज पत्रकारिता के नाम पर खुद को बुद्धजीवी कहलाने वाला एक नया वर्ग भी तैयार हो गया जो कम्युनिज्म के नाम पर नक्सलियों के साथ खड़े रहने का दंभ भर रहा है एक ऐसे ही सज्जन से मुलाकात हो गई.।।बोले पिछले १२ वर्षों से पत्रकारिता में हू।।कई जगहों पर नौकरी कर चुका लेकिन आजतक अपनी संपत्ति के नामपर कुछ भी नहीं बना पाया इसकी वजह उन्होंने बताई कि मै ठहरा अपने शर्तों पर जीने वाला इंसान सो किसी से पाटी नहीं गरीबो का शोषण सहन के खिलाफ था साथ ही उन्होंने मीडिया की वेश्यावृत्ति की कुछ परते भी खोली कि मीडिया हाउस में पत्रकारों का शोषण हो रहा है फिर भी कोई आवाज़ नहीं उठाता क्योकि सबको अपने नौकरी जाने का डर सताता रहता है, चुपचाप कड़वे खूंट पीकर काम करना सबको उचित लगता है , सो अब यही सोचा हू ।साथ ही उन्होंने बताया कि मै बिहार और पश्चिम बंगाल में अपनी सेवाए डे चूका हू।।।यार वहां मेरा जमा नहीं.।क्युकी वह नक्शालियो के बीच रहकर कुछ करना संभव ही नहीं था अगर वह रहो तो नक्सलियों के साथ आवाज़ मिलकर उठाओ।।लेवी में से कुछ कमीशन वगैरह मिलने की भी बात उन्होंने स्वीकार की.।कहते है कि बिहार में आज जो भी लोग बड़े पत्रकार होने का दंभ भरते नहीं थकते उन्होंने हमेशा नक्शालियो के साथ कदल ताल की है.।।वरना जहा नक्शली आम लोगो से धन ऐठ्कर अपना सारा काम काज चला रहे है व्ही इन महान पत्रकारों कि हवेली शान से खड़ी है कभी किसी नक्सली ने आँख उठाकर भी नहीं देखी.।यह भी कड़वा सच उन्होंने स्वीकार किया.।।साथ ही उन्होंने बताया की साथी लोग अक्सर किसी न किसी का स्टिंग आपरेशन करने के नाम पर नक्सलियों के साथ धन की उगाही करते थे.।
तो यह रहे पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति में तब्दील करने कुछ सीधे-साधे तथ्य।।बाकी भी बहुत सारे कारस्तानिया आई है सामने जो कम्मेंट्स में आगे आते रहेंगे.।
हमारे यहाँ आज पत्रकारिता के नाम पर सिर्फ एक दुसरे की टाँगे खीची जा रही है जो कतई उचित नहीं है। मै यहाँ किसी की भी टांगो की खिचाई करने के लिए अपना लेख नहीं लिख रहा हू.।लेकिन मुझे जो उचित लगा मैंने वही लिखा है। मै न तो कम्युनिस्ट हूँ और न ही कांग्रेसी, भाजपाई भी नहीं हू और न ही समाजवादी.।।मै सिर्फ और सिर्फ भारतीय हू जो हमेशा रहूँगा। इन सब बातो का सबूत भी दे सकता हू।।
आप मुझसे फेसबुक पर इन सारी बातो पर अपनी राय भी रह सकते है ,कमेंट्स का विकल्प है है आपके पास.।।http://www.facebook.com/realfigharआगे भी इसी तरह लेख मिलते रहेंगे। --जय हिंद
श्रवण शुक्ल
९७१६६८७२८३
shravan.kumar.shukla@gmail.com
पत्रकारिता में वेश्यावृत्ति की उपजती प्रवृत्ति : सामयिक ज्वलंत मुद्दा
पहले मै अपने बारे में बता दू कि मै एक छात्र हू तथा पढ़ाई करने के साथ पत्रकारिता की ABCD सीख रहा हूँ। मै पिछले ६ महीनों से एक बेहद मजबूत मीडियाहाउस में अपनी पत्रकारिता की ट्रेनिंग कर रहा हूँ। कहने के लिए मै पत्रकारिता की ट्रेनिंग ले रहा हू लेकिन असली वाकया कुछ और ही है जिसके बारे में फिर कभी विस्तार से भड़ास निकालूँगा.। लेकिन अभी मुद्दे पर चलना ज्यादा उचित होगा।
यु तो पत्रकारिता में वेश्यावृत्ति की प्रवृत्ति बहुत पुरानी है देखा जाए तो जो काम आज हम कर रहे हैमेहनत यही काम शुरू में वो भी करते थे जो आज बड़े एडिटर बन गए है। बड़े एडिटर बनते ही अपने पुराने दिनों को भूल कर जो लूट खसोट क धंधा इन्होने किया तथा लोगो को डरा धमकाकर जो पैसा इन्होने बनाया आज उसी कि बदौलत यह महान संपादकों में शुमार किये जाने लगे है। एक वक्त होता था जब प्रभु चावला जी पैदल चलकर रिपोर्टिंग करने जाते थे.।।ऐसा मै कम उम्र के होने के नाते सिर्फ दावा नहीं कर रहा हूँ बल्कि उन्ही के एक पुराने सहयोगी रहे एक सज्जन जिन्होंने अपना नामरामप्रताप सिंह बताया वो कहते है.। बात अभी गोस्वामी जी की ही करते है जो हाल ही में पिटे है दैनिक जागरण के महान संपादक महोदय (बड़े पत्रकार) जो अपने आखिरी समय में भी वही जवानी वाला काम करने से बाज नहीं आये इसी वजह से गार्डो से पिट गए.।।जिंदगी भर लोगो से उगाही करते रहे और अपनी आलीशान कोठी को बहुत ही बेहतरीन बना लिए।।अपनी शुरुआत साइकिल से रिपोर्टिंग करके की थी.।।।।।बस समय बीतने के साथ धाक जमाते गए.जिंदगी भर समिति के फंड क पैसा खाकर तथा समिति के लिए आबंटित कोठी को अपनी निजी कोठी कि तरह इस्तेमाल करने रहे।।।दबंगई तो उनकी पुराणी आदत में शुमार था ही.।अंतिम समय में भद्दगी हो गई.।। यह तो एक दो छोटे उदाहरण मात्र भर है.।।
यहाँ पत्रकारिता की वेश्यावृत्ति के बारे में बताता हू.।यहाँ पत्रकारिता करने के नाम पर आज हर कचहरी में दो-चार कथित पत्रकार भाई आपको मिल ही जायेंगे.।।जो पैसे लेकर खबर छपवाने और बदनाम करने क काम व्यापक पैमाने पर कर रहे है. यकीन न हो तो पास के किसी भी कचहरी में जाकर किसी को एक थप्पर मार दो.पुलिस वाले को समझा दो.। मामला जब खतम होने लगेगा तभी यह कथित पत्रकार लोग आपकी रिपोर्टिंग शुरू कर देंगे.।थोरे पैसे मांगेंगे कि हम न्यूज़ रुकवा देंगे.।।कुछ इस तरह हो रहा है पत्रकारिता को वेश्यावृति के धंधे का रूप देने का घटिया खेल.।
अब हो जाए बात एक दो मीडिया हाउस में चलने वाले इससे भी शर्मनाक खेल का ।यहाँ जिस लड़की ने पत्रकारिता की पढ़ाई भी नहीं की हो जिसे खेल के नाम पर लुखाछिपी खेलने के अलावा कुछ न आता हो उसे खेल वाली बुलेटिन का एंकर बना दिया गया और जो लोग योग्य थे उन्हें दरकिनार कर दिया गया.। ऐसी बाते मेरे सामने आई है। वजह वो लड़की उन कथित मीडिया हाउस के मालिकों के साथ पार्टिया अटेण्ड करती है साथ ही उनकी ही माह्नगी गाडियों में उनके साथ घूमकर उनका शोभा बढाने के साथ लोगो पर रौब झाड़ने की एक वजह बनती है। यह एक अलग तरीके से मीडिया कर्मी होने का फायदा उठाना ही हुआ.।।इसे भी हम उसी श्रेणी में खडे कर सकते है।।
यहाँ ३ री बात.। पत्रकार होकर किसी के पास एड के नाम पर उगाही कोई नई बात नहीं है.। स्टिंग आपरेशन के नाम पर उगाही का खेल तो पुराना है इसे लगभग पूरी दुनिया जानती है यहाँ पैसे लेकर छोटे छोटे न्यूज़ पेपर में खबर बनाने उसे खारिज करने का काम पुराना है.। यह एक कड़ाई सच्चाई है लेकिन आप सबके सामने इसलिए बयान कर रहा हू कि यह भी धंधे बाजी वाली ही कारस्तानियो में शुमार होता है.।
हर कोई सिर्फ वही पहुचता है जहा कुछ पैसे मिलने की उम्मीद हो.।कोई किसी गरीब के मामले को नहीं उठाता सिर्फ B4M इसका अपवाद है ।यहाँ देख चुका हू कि कोई किसी के मदद को सामने नहीं आता खासकर छोटे पत्रकारों के।जिससे कि वो भी उन्ही कामो कि तरफ बढ़ जाते है जो उनके वसूलो के खिलाफ होते है।। जिन्हें वो घृणा दृष्टि से शुरू में देखते थे उन्ही के कदमो का पीछा करना उनकी मजबूरी बन जाती है।। अभी तक मेरी दिक्कत खतम नहीं हुई है इससे हो सकता है कि आज मै जो बाते लिख रहा हू दूसरों के बारे में वही खुद भी करू.।स्टिंग आपरेशन करके मै भी ४०.०००० रुपये बना सकता हू।।लेकिन तब क्या होगा?।।।आओ खुद सोचिये अगर मै सिर्फ एक स्टिंग आपरेशन से ४०.००० कमा कर अपने भाई को छुडा सकता हू तो इस बात की क्या गारंटी है कि मै आगे से वो काम नहीं करूँगा? अगर मै यह काम करता हू तो यह भी पत्रकारिता की दलाली के साथ अपने जमीर की साथ ही खुदकी भी दलाली होगी. । मगर मै ऐसा नहीं करूँगा। मै ताल ठोककर कहता हू, हाँ मै पत्रकारिता सीख रहा हू लेकिन मै कभी पत्रकारिता की दलाली करके अपना घर नहीं भरूँगा।.
आज पत्रकारिता के नाम पर खुद को बुद्धजीवी कहलाने वाला एक नया वर्ग भी तैयार हो गया जो कम्युनिज्म के नाम पर नक्सलियों के साथ खड़े रहने का दंभ भर रहा है एक ऐसे ही सज्जन से मुलाकात हो गई.।।बोले पिछले १२ वर्षों से पत्रकारिता में हू।।कई जगहों पर नौकरी कर चुका लेकिन आजतक अपनी संपत्ति के नामपर कुछ भी नहीं बना पाया इसकी वजह उन्होंने बताई कि मै ठहरा अपने शर्तों पर जीने वाला इंसान सो किसी से पाटी नहीं गरीबो का शोषण सहन के खिलाफ था साथ ही उन्होंने मीडिया की वेश्यावृत्ति की कुछ परते भी खोली कि मीडिया हाउस में पत्रकारों का शोषण हो रहा है फिर भी कोई आवाज़ नहीं उठाता क्योकि सबको अपने नौकरी जाने का डर सताता रहता है, चुपचाप कड़वे खूंट पीकर काम करना सबको उचित लगता है , सो अब यही सोचा हू ।साथ ही उन्होंने बताया कि मै बिहार और पश्चिम बंगाल में अपनी सेवाए डे चूका हू।।।यार वहां मेरा जमा नहीं.।क्युकी वह नक्शालियो के बीच रहकर कुछ करना संभव ही नहीं था अगर वह रहो तो नक्सलियों के साथ आवाज़ मिलकर उठाओ।।लेवी में से कुछ कमीशन वगैरह मिलने की भी बात उन्होंने स्वीकार की.।कहते है कि बिहार में आज जो भी लोग बड़े पत्रकार होने का दंभ भरते नहीं थकते उन्होंने हमेशा नक्शालियो के साथ कदल ताल की है.।।वरना जहा नक्शली आम लोगो से धन ऐठ्कर अपना सारा काम काज चला रहे है व्ही इन महान पत्रकारों कि हवेली शान से खड़ी है कभी किसी नक्सली ने आँख उठाकर भी नहीं देखी.।यह भी कड़वा सच उन्होंने स्वीकार किया.।।साथ ही उन्होंने बताया की साथी लोग अक्सर किसी न किसी का स्टिंग आपरेशन करने के नाम पर नक्सलियों के साथ धन की उगाही करते थे.।
तो यह रहे पत्रकारिता को वेश्यावृत्ति में तब्दील करने कुछ सीधे-साधे तथ्य।।बाकी भी बहुत सारे कारस्तानिया आई है सामने जो कम्मेंट्स में आगे आते रहेंगे.।
हमारे यहाँ आज पत्रकारिता के नाम पर सिर्फ एक दुसरे की टाँगे खीची जा रही है जो कतई उचित नहीं है। मै यहाँ किसी की भी टांगो की खिचाई करने के लिए अपना लेख नहीं लिख रहा हू.।लेकिन मुझे जो उचित लगा मैंने वही लिखा है। मै न तो कम्युनिस्ट हूँ और न ही कांग्रेसी, भाजपाई भी नहीं हू और न ही समाजवादी.।।मै सिर्फ और सिर्फ भारतीय हू जो हमेशा रहूँगा। इन सब बातो का सबूत भी दे सकता हू।।
आप मुझसे फेसबुक पर इन सारी बातो पर अपनी राय भी रह सकते है ,कमेंट्स का विकल्प है है आपके पास.।।http://www.facebook.com/realfigharआगे भी इसी तरह लेख मिलते रहेंगे। --जय हिंद
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