गाँधीजी का हिन्दू वाद और मुस्लिम वाद
------------------------------ -----------
23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद जी की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। स्वामी जी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाया गया था। वे बहुत कमजोर थे। रोग शय्या पर लेटे रहते थे। डाक्टरों ने उन्हें लम्बी बात करने से मना किया था। उनकी से...वा में लगे उनके निष्ठावान सेवक धर्म सिंह को डाक्टरी निर्देश था कि लोगों को उनसे न मिलने दें। ऐसे में कोई अब्दुल रशीद नामक युवक आया। धर्म सिंह ने उसे रोका। उसने बहस की। स्वामी जी ने उस बहस को सुना और अब्दुल रशीद को भीतर आने देने को कहा। अब्दुल रशीद ने कहा कि वह स्वामी जी से इस्लाम मजहब के बारे में चर्चा करने आया है। स्वामी जी ने कहा कि अभी तो कमजोरी के कारण मैं लम्बी बात करने की स्थिति में नहीं हूँ , फिर कभी आइये। तब अब्दुल रशीद ने प्यास मिटाने के लिए पानी माँगा। स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी लाने बाहर भेजा। और तभी स्वामी जी को अकेले पाकर अब्दुल रशीद ने उनके कमजोर शरीर में दो गोलियाँ दाग कर उनकी हत्या कर दी।
स्वामी जी की हत्या का यह वर्णन स्वयँ गाँधीजी ने शब्दबद्ध किया है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या करने के इरादे से ही आया और स्वामी जी ने अपनी सहज उदारता और दयालुता के कारण उसे यह अवसर प्रदान कर दिया। पर क्या अब्दुल रशीद का यह निर्णय अकेले का था? क्या उसकी स्वामी जी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता हो सकती थी? क्योंकि न स्वामी जी उसे जानते थे, न वह उन्हें कभी पहले मिला था।
गाँधीजी ने 30 दिसंबर 1930 के "यंग इंडिया" में "शहीद श्रद्धानंद" शीर्षक से अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि "कोई छह महीने हुए स्वामी श्रद्धानंद जी सत्याग्रह आश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे। बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते हैं जिनमें उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती है।" 9 जनवरी 1927 के "यंग इंडिया" में उन्होंने लिखा कि "उनके शुभचिंतकों ने उन्हें अकेले सफर न करने का आग्रह किया किंतु इस आस्थावान व्यक्ति का उत्तर रहता, "ईश्वर के अलावा और कौन मेरी रक्षा कर सकता है।" उसकी इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं मर सकता। जब तक वह मेरे शरीर से समाज की सेवा कराना चाहेगा मेरा बाल भी बांका नहीं होगा।" गाँधीजी ने माना कि स्वामी जी के शुद्धि आंदोलन के कारण मुसलमान उनसे नाराज थे, जबकि उनका शुद्धि आंदोलन मुसलमानों के तबलीगी आंदोलन का जवाब था। वह मत-परिवर्तन न होकर प्रायश्चित मात्र था। स्वामी जी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे। उनका ख्याल था कि हिन्दू दबा दिये गये हैं और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत की रक्षा करनी चाहिए।
तलवार की तूती
गाँधीजी के उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या व्यक्तिगत कारणों से नहीं करना चाहता था। अपितु वह एक पूरे समाज के सामूहिक आक्रोश का प्रतिनिधित्व कर रहा था। पर उसके लिए स्वामी जी को तर्क से समझाने के बजाय उसने हिंसा का रास्ता क्यों अपनाया? इस प्रश्न का उत्तर भी गाँधीजी के शब्दों में ही पढ़ना उचित रहेगा। गाँधीजी लिखते हैं, "मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" (सम्पूर्ण वाङमय खंड 24 , पृष्ठ 469-70)
यह सब जानते-बूझते भी गाँधीजी हिन्दुओं को आत्म-संयम का पाठ देते हुए लिखते हैं, "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"
हिन्दू समाज तो अपनी स्वभावजन्य दुर्बलता के कारण गाँधीजी के बताए रास्ते पर चला। पर मुस्लिम समाज की तरफ से जो प्रतिक्रिया आयी उसने गाँधी को चौंका दिया। गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके पुराने मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत क्षुब्ध हैं। उनका कहना है कि मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा। मजहरूल हक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे इंग्लैंड में गाँधीजी के सहपाठी और मित्र रहे थे, 1948 में चम्पारण आंदोलन में उन्होंने गाँधीजी की सहायता की थी, खिलाफत के प्रश्न पर वे 1920 के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे, उन्होंने पटना में अपनी भू-सम्पत्ति पर सदाकत आश्रम की स्थापना की थी। उनकी ओर से ऐसी प्रतिक्रिया आएगी यह गाँधीजी सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने बहुत दु:खी मन से 1 जनवरी 1927 को मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। यह पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु संपूर्ण गाँधी वाङमय के सम्पादक मंडल की दृष्टि इस पर बहुत देर से गई और यह पत्र खण्ड 97 के अंत में स्थान पा सका। इसलिए शोधकर्ताओं की चर्चा का विषय नहीं बन पाया।
इस पत्र में मजहरूल हक साहब को गाँधीजी लिखते हैं, "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।
अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी 1924 ) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..." गाँधीजी का यह पत्र दृढ़ता और विन्रमता का अद्भुत संगम है।
अहिंसा स्वीकार नहीं
मजहरूल हक साहब को लिखे इस पत्र में गाँधीजी ने फरवरी 1924 में जेल से बाहर आने के बाद अपने लेखन का जिक्र किया है। मार्च 1922 से फरवरी 1924 तक गाँधीजी जेल में बंद थे। असहयोग आंदोलन वापस लेने की वे पहले ही घोषणा कर चुके थे। वैसे भी तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के सत्ता में आने के बाद खिलाफत आंदोलन की हवा निकल चुकी थी और मुस्लिम समाज जिस जोशो खरोश के साथ आंदोलन में उतरा था, उतनी ही फुर्ती से उससे बाहर निकल गया था। हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की जगह पूरा देश मुस्लिम दंगों का शिकार बन गया था। गाँधीजी ने जेल से बाहर आने के बाद 29 मई 1924 के यंग इंडिया में "हिन्दू मुस्लिम तनाव:कारण और उपचार" शीर्षक से एक लम्बा लेख लिखा जो सम्पूर्ण गाँधी वाङमय के खंड 24 में बीस पृष्ठ (139-151) पर छपा है। इस लेख में गाँधीजी ने माना कि मुसलमान लोग मेरी अहिंसा को स्वीकार नहीं करते। वे लिखते हैं, "दो साल पहले तक एक मुसलमान भाई ने मुझसे सच्चे दिल से कहा था, "मैं आपकी अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। मैं तो यही चाहता हूँ कि कम से कम मेरे मुसलमान भाई इसे न अपनाएँ। हिंसा जीवन का नियम है। अहिंसा की जैसी परिभाषा आप करते हैं, वैसी अहिंसा से अगर स्वराज्य मिलता हो तो भी वह मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने शत्रु से अवश्य घृणा करूंगा।" ये भाई बहुत ईमानदार आदमी हैं। मैं इनकी बड़ी इज्जत करता हूँ। मेरे एक दूसरे बहुत बड़े मुसलमान दोस्त के बारे में भी मुझे ऐसा ही बताया गया है। (पृष्ठ 142)
दोनों समाजों के चरित्र और मानसिकता का अंतर बताते हुए गाँधीजी लिखते हैं, "मुझे रत्ती भर भी शक नहीं कि ज्यादातर झगड़ों में हिन्दू लोग ही पिटते हैं। मेरे निजी अनुभव से भी इस मत की पुष्टि होती है कि मुसलमान आमतौर पर धींगामुश्ती करने वाला (बुली) होता है और हिन्दू कायर होता है। रेलगाड़ियों में, रास्तों पर तथा ऐसे झगड़ों का निपटारा करने के जो मौके मुझे मिले हैं उनमें मैंने यही देखा है। क्या अपने कायरपन के लिए हिन्दू मुसलमानों को दोष दे सकते हैं? जहाँ कायर होंगे वहाँ जालिम होंगे ही। कहते हैं, सहारनपुर में मुसलमानों ने घर लूटे, तिजोरियाँ तोड़ डालीं और एक जगह हिन्दू महिला को बेइज्जत भी किया। इसमें गलती किसकी थी? यह सच है कि मुलसमान अपने इस घृणित आचरण की सफाई किसी तरह नहीं दे सकते। पर, एक हिन्दू होने की हैसियत से मैं तो मुसलमानों की गुंडागर्दी के लिए उन पर गुस्सा होने से अधिक हिन्दुओं की नामर्दी पर शर्मिंदा हूँ। जिनके घर लूटे गए, वे अपने माल- असवाब की हिफाजत में जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनों की बेइज्जती हुई उनके नाते रिश्तेदार उस वक्त कहाँ गये थे? क्या उस समय उनका कुछ भी कर्तव्य नहीं था? मेरे अहिंसा धर्म में खतरे के वक्त अपने कुटुम्बियों को अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में मुझे यदि किसी एक को पसंद करना पड़े तो मैं हिंसा को ही पसंद करूंगा। (पृष्ठ 145-146)
गाँधीजी आगे लिखते हैं, "मैं मानता हूँ कि अगर हिन्दू लोग अपनी हिफाजत के लिए गुंडों को संगठित करेंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी। उनका यह आचरण खाई से बचकर खंदक में गिरने जैसा होगा। बनिये और ब्राह्मण अपनी रक्षा अहिंसात्मक तरीके से न कर सकते हों तो उन्हें हिंसात्मक तरीके से ही आत्मरक्षा करना सीखना चाहिए। लोगों को बड़ी शान के साथ कहते सुना गया है कि अभी हाल में एक जगह अछूतों की हिफाजत में (क्योंकि उन अछूतों को मौत का भय नहीं था) हिन्दुओं का एक जुलूस मस्जिद के सामने से (धूमधाम के साथ गाते-बजाते हुए) निकल गया और उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
वही स्थिति, वही प्रश्न
गाँधीजी के उस लम्बे लेख में से यह लम्बा उद्धरण अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े करता है। यह दोनों समाजों की प्रकृति और मानसिकता में भारी अंतर दिखाता है। अहिंसा के आदर्श के उपासक हिन्दू समाज की अहिंसा कायरता बन गयी है। कायर अहिंसा से हिंसा स्वागत योग्य है। पूरा हिन्दू समाज कायरता से ग्रस्त नहीं है, उसका एक वर्ग निर्भीक और बहादुर है। अत: हिन्दू समाज की अन्तर्रचना का सूक्ष्म अध्ययन करना आवश्यक है।
गाँधीजी के इस लेख की व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। गाँधीजी को बड़ी संख्या में देश भर से पत्र पहुँचे। इसमें एक लम्बा पत्र प्रख्यात दार्शनिक एवं स्वाधीनता सेनानी डॉ. भगवान दास ने 5 जून, 1924 को वाराणसी से गाँधीजी को लिखा। उसमें उन्होंने अनेक प्रश्न उठाए। गाँधीजी ने उस पूरे पत्र को यंग इंडिया में प्रकाशित किया (सम्पूर्ण वाङमय, खंड 24 में पृ. 602-606) पर यह पत्र उपलब्ध है। गाँधीजी ने "हिन्दू क्या करें? शीर्षक से उस पत्र में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर 19 जून 1924 के यंग इंडिया में देने की कोशिश की (वही 24 पृष्ठ 276-278) दो श्रेष्ठ हिन्दू मनीषियों के इस पत्र व्यवहार का अध्ययन भारत की वर्तमान स्थिति और हिन्दू समाज के अंतद्र्वंद्व को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।
जो स्थिति हिन्दू समाज के सामने 1924 में खड़ी थी वही 1941 में सुनियोजित पाकिस्तानी दंगों के कारण उत्पन्न हुई। उस समय भी गाँधीजी, कन्हैयालाल माणिकलाल .मुंशी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जैसे शीर्ष नेताओं के सामने प्रश्न था कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला क्या कांग्रेस की अहिंसा से संभव है? यही प्रश्न 1947 में विभाजन के समय खड़ा था और यही आज भी खड़ा है।
------------------------------
23 दिसंबर 1926 को स्वामी श्रद्धानंद जी की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। स्वामी जी लम्बे समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली लाया गया था। वे बहुत कमजोर थे। रोग शय्या पर लेटे रहते थे। डाक्टरों ने उन्हें लम्बी बात करने से मना किया था। उनकी से...वा में लगे उनके निष्ठावान सेवक धर्म सिंह को डाक्टरी निर्देश था कि लोगों को उनसे न मिलने दें। ऐसे में कोई अब्दुल रशीद नामक युवक आया। धर्म सिंह ने उसे रोका। उसने बहस की। स्वामी जी ने उस बहस को सुना और अब्दुल रशीद को भीतर आने देने को कहा। अब्दुल रशीद ने कहा कि वह स्वामी जी से इस्लाम मजहब के बारे में चर्चा करने आया है। स्वामी जी ने कहा कि अभी तो कमजोरी के कारण मैं लम्बी बात करने की स्थिति में नहीं हूँ , फिर कभी आइये। तब अब्दुल रशीद ने प्यास मिटाने के लिए पानी माँगा। स्वामी जी ने धर्म सिंह को पानी लाने बाहर भेजा। और तभी स्वामी जी को अकेले पाकर अब्दुल रशीद ने उनके कमजोर शरीर में दो गोलियाँ दाग कर उनकी हत्या कर दी।
स्वामी जी की हत्या का यह वर्णन स्वयँ गाँधीजी ने शब्दबद्ध किया है। इस वर्णन से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या करने के इरादे से ही आया और स्वामी जी ने अपनी सहज उदारता और दयालुता के कारण उसे यह अवसर प्रदान कर दिया। पर क्या अब्दुल रशीद का यह निर्णय अकेले का था? क्या उसकी स्वामी जी से कोई व्यक्तिगत शत्रुता हो सकती थी? क्योंकि न स्वामी जी उसे जानते थे, न वह उन्हें कभी पहले मिला था।
गाँधीजी ने 30 दिसंबर 1930 के "यंग इंडिया" में "शहीद श्रद्धानंद" शीर्षक से अपने श्रद्धांजलि लेख में लिखा है कि "कोई छह महीने हुए स्वामी श्रद्धानंद जी सत्याग्रह आश्रम में आकर दो-एक दिन ठहरे थे। बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि उनके पास जब-तब ऐसे पत्र आया करते हैं जिनमें उन्हें मार डालने की धमकी दी जाती है।" 9 जनवरी 1927 के "यंग इंडिया" में उन्होंने लिखा कि "उनके शुभचिंतकों ने उन्हें अकेले सफर न करने का आग्रह किया किंतु इस आस्थावान व्यक्ति का उत्तर रहता, "ईश्वर के अलावा और कौन मेरी रक्षा कर सकता है।" उसकी इच्छा के बिना घास का एक तिनका भी नहीं मर सकता। जब तक वह मेरे शरीर से समाज की सेवा कराना चाहेगा मेरा बाल भी बांका नहीं होगा।" गाँधीजी ने माना कि स्वामी जी के शुद्धि आंदोलन के कारण मुसलमान उनसे नाराज थे, जबकि उनका शुद्धि आंदोलन मुसलमानों के तबलीगी आंदोलन का जवाब था। वह मत-परिवर्तन न होकर प्रायश्चित मात्र था। स्वामी जी मुसलमानों के दुश्मन नहीं थे। उनका ख्याल था कि हिन्दू दबा दिये गये हैं और उन्हें बहादुर बनकर अपनी और अपनी इज्जत की रक्षा करनी चाहिए।
तलवार की तूती
गाँधीजी के उपरोक्त कथनों से स्पष्ट है कि अब्दुल रशीद स्वामी जी की हत्या व्यक्तिगत कारणों से नहीं करना चाहता था। अपितु वह एक पूरे समाज के सामूहिक आक्रोश का प्रतिनिधित्व कर रहा था। पर उसके लिए स्वामी जी को तर्क से समझाने के बजाय उसने हिंसा का रास्ता क्यों अपनाया? इस प्रश्न का उत्तर भी गाँधीजी के शब्दों में ही पढ़ना उचित रहेगा। गाँधीजी लिखते हैं, "मुसलमानों को अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। इसमें कोई शक नहीं कि छुरी और पिस्तौल चलाने में उनके हाथ जरूरत से ज्यादा फुर्तीले हैं। तलवार वैसे इस्लाम का मजहबी चिन्ह नहीं है मगर इस्लाम की पैदाइश ऐसी स्थिति में हुई जहाँ तलवार की ही तूती बोलती थी और अब भी बोलती है। मुसलमानों को बात-बात पर तलवार निकाल लेने की बान पड़ गयी है। इस्लाम का अर्थ है शांति। अगर अपने नाम के अनुसार बनना है तो तलवार म्यान में रखनी होगी। यह खतरा तो है कि मुसलमान लोग गुप्त रूप से इस कृत्य का समर्थन ही करें। मुसलमानों को सामूहिक रूप से इस हत्या की निंदा करनी चाहिए।" (सम्पूर्ण वाङमय खंड 24 , पृष्ठ 469-70)
यह सब जानते-बूझते भी गाँधीजी हिन्दुओं को आत्म-संयम का पाठ देते हुए लिखते हैं, "क्रोध दिखलाकर हिन्दू अपने धर्म को कलंकित करेंगे और उस एकता को दूर कर देंगे जिसे एक दिन अवश्य आना ही है। आत्मसंयम के द्वारा वे स्वयँ को अपने उपनिषदों और क्षमामूर्ति युधिष्ठिर के योग्य सिद्ध कर सकते हैं।" यहाँ तक तो ठीक है पर गाँधीजी आगे लिखते हैं कि "एक व्यक्ति के पाप को सारी जाति का पाप न मानकर हम अपने मन में बदला लेने की भावना न रखें।"
हिन्दू समाज तो अपनी स्वभावजन्य दुर्बलता के कारण गाँधीजी के बताए रास्ते पर चला। पर मुस्लिम समाज की तरफ से जो प्रतिक्रिया आयी उसने गाँधी को चौंका दिया। गाँधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई ने गाँधीजी को बताया कि आपके पुराने मित्र मजहरूल हक आपका लेख पढ़कर बहुत क्षुब्ध हैं। उनका कहना है कि मैं गाँधी को ऐसा नहीं समझता था अब मैं उन पर विश्वास नहीं करूंगा। मजहरूल हक कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे इंग्लैंड में गाँधीजी के सहपाठी और मित्र रहे थे, 1948 में चम्पारण आंदोलन में उन्होंने गाँधीजी की सहायता की थी, खिलाफत के प्रश्न पर वे 1920 के असहयोग आंदोलन में कूद पड़े थे, उन्होंने पटना में अपनी भू-सम्पत्ति पर सदाकत आश्रम की स्थापना की थी। उनकी ओर से ऐसी प्रतिक्रिया आएगी यह गाँधीजी सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने बहुत दु:खी मन से 1 जनवरी 1927 को मजहरूल हक साहब को पत्र लिखा। यह पत्र ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, किंतु संपूर्ण गाँधी वाङमय के सम्पादक मंडल की दृष्टि इस पर बहुत देर से गई और यह पत्र खण्ड 97 के अंत में स्थान पा सका। इसलिए शोधकर्ताओं की चर्चा का विषय नहीं बन पाया।
इस पत्र में मजहरूल हक साहब को गाँधीजी लिखते हैं, "यदि महादेव ने सचमुच आपके कथन को ठीक से समझा है तो स्वामी श्रद्धानंद पर मेरे लेख के कारण आपने मुझ पर विश्वास करना बंद कर दिया है। उसने मुझे बताया कि आपके अविश्वास का कारण मेरे लेख का केवल यह वाक्य है कि "छुरी और पिस्तौल का इस्तेमाल करने में मुसलमानों को कहीं ज्यादा आजादी प्राप्त है।" यदि मैं अपने यकीन के आधार पर कुछ लिखता हूँ तो मुझ पर विश्वास क्यों न हो? क्या मैं अपने मित्रों का विश्वास टिकाए रखने के लिए, जो वे करें उसे मान लूँ? यदि मेरे वक्तव्य में कुछ गलत है तो आपको विरोध करना चाहिए और सहानुभूतिपूर्वक मुझे उससे दूर करना चाहिए, किंतु जब तक आप यह मानते हैं कि मैं किसी पंथ या जाति के प्रति पक्षपात नहीं रखता तब तक आपको मेरा विश्वास करना चाहिए।
अब मैं अपने वक्तव्य को लेता हूँ। जिस दिन से मैंने मुसलमानों को जाना है उनके बारे में मेरी निश्चित धारणा बनी है। उसके कारण ही, मैंने जेल (फरवरी 1924 ) से बाहर आने के बाद बिना उनके बारे में बिना कुछ पढ़े वे सब बातें लिखीं। वे सब मेरे लम्बे निजी अनुभव और मित्रों के पूर्वाग्रह रहित मतों पर आधारित हैं। ये मित्र भी उतने ही पूर्वाग्रह रहित हैं, जितना मैं आपको समझता हूँ। वास्तव में अनेक मुसलमानों ने मजहब के नाम पर हिंसा का बेझिझक इस्तेमाल किया है। अब आप ही बताइए कि मैं अपनी आँखों पर और ऐसे मित्रों पर, जिन पर मुझे विश्वास है, कैसे अविश्वास करूँ। इस सबके बावजूद मैं मुसलमानों को प्रेम करता हूँ। गलती उनकी नहीं, उनकी परिस्थितियों की है।..." गाँधीजी का यह पत्र दृढ़ता और विन्रमता का अद्भुत संगम है।
अहिंसा स्वीकार नहीं
मजहरूल हक साहब को लिखे इस पत्र में गाँधीजी ने फरवरी 1924 में जेल से बाहर आने के बाद अपने लेखन का जिक्र किया है। मार्च 1922 से फरवरी 1924 तक गाँधीजी जेल में बंद थे। असहयोग आंदोलन वापस लेने की वे पहले ही घोषणा कर चुके थे। वैसे भी तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के सत्ता में आने के बाद खिलाफत आंदोलन की हवा निकल चुकी थी और मुस्लिम समाज जिस जोशो खरोश के साथ आंदोलन में उतरा था, उतनी ही फुर्ती से उससे बाहर निकल गया था। हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे की जगह पूरा देश मुस्लिम दंगों का शिकार बन गया था। गाँधीजी ने जेल से बाहर आने के बाद 29 मई 1924 के यंग इंडिया में "हिन्दू मुस्लिम तनाव:कारण और उपचार" शीर्षक से एक लम्बा लेख लिखा जो सम्पूर्ण गाँधी वाङमय के खंड 24 में बीस पृष्ठ (139-151) पर छपा है। इस लेख में गाँधीजी ने माना कि मुसलमान लोग मेरी अहिंसा को स्वीकार नहीं करते। वे लिखते हैं, "दो साल पहले तक एक मुसलमान भाई ने मुझसे सच्चे दिल से कहा था, "मैं आपकी अहिंसा में विश्वास नहीं रखता। मैं तो यही चाहता हूँ कि कम से कम मेरे मुसलमान भाई इसे न अपनाएँ। हिंसा जीवन का नियम है। अहिंसा की जैसी परिभाषा आप करते हैं, वैसी अहिंसा से अगर स्वराज्य मिलता हो तो भी वह मुझे नहीं चाहिए। मैं तो अपने शत्रु से अवश्य घृणा करूंगा।" ये भाई बहुत ईमानदार आदमी हैं। मैं इनकी बड़ी इज्जत करता हूँ। मेरे एक दूसरे बहुत बड़े मुसलमान दोस्त के बारे में भी मुझे ऐसा ही बताया गया है। (पृष्ठ 142)
दोनों समाजों के चरित्र और मानसिकता का अंतर बताते हुए गाँधीजी लिखते हैं, "मुझे रत्ती भर भी शक नहीं कि ज्यादातर झगड़ों में हिन्दू लोग ही पिटते हैं। मेरे निजी अनुभव से भी इस मत की पुष्टि होती है कि मुसलमान आमतौर पर धींगामुश्ती करने वाला (बुली) होता है और हिन्दू कायर होता है। रेलगाड़ियों में, रास्तों पर तथा ऐसे झगड़ों का निपटारा करने के जो मौके मुझे मिले हैं उनमें मैंने यही देखा है। क्या अपने कायरपन के लिए हिन्दू मुसलमानों को दोष दे सकते हैं? जहाँ कायर होंगे वहाँ जालिम होंगे ही। कहते हैं, सहारनपुर में मुसलमानों ने घर लूटे, तिजोरियाँ तोड़ डालीं और एक जगह हिन्दू महिला को बेइज्जत भी किया। इसमें गलती किसकी थी? यह सच है कि मुलसमान अपने इस घृणित आचरण की सफाई किसी तरह नहीं दे सकते। पर, एक हिन्दू होने की हैसियत से मैं तो मुसलमानों की गुंडागर्दी के लिए उन पर गुस्सा होने से अधिक हिन्दुओं की नामर्दी पर शर्मिंदा हूँ। जिनके घर लूटे गए, वे अपने माल- असवाब की हिफाजत में जूझते हुए वहीं क्यों नहीं मर मिटे? जिन बहनों की बेइज्जती हुई उनके नाते रिश्तेदार उस वक्त कहाँ गये थे? क्या उस समय उनका कुछ भी कर्तव्य नहीं था? मेरे अहिंसा धर्म में खतरे के वक्त अपने कुटुम्बियों को अरक्षित छोड़कर भाग खड़े होने की गुंजाइश नहीं है। हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में मुझे यदि किसी एक को पसंद करना पड़े तो मैं हिंसा को ही पसंद करूंगा। (पृष्ठ 145-146)
गाँधीजी आगे लिखते हैं, "मैं मानता हूँ कि अगर हिन्दू लोग अपनी हिफाजत के लिए गुंडों को संगठित करेंगे तो यह बड़ी भारी भूल होगी। उनका यह आचरण खाई से बचकर खंदक में गिरने जैसा होगा। बनिये और ब्राह्मण अपनी रक्षा अहिंसात्मक तरीके से न कर सकते हों तो उन्हें हिंसात्मक तरीके से ही आत्मरक्षा करना सीखना चाहिए। लोगों को बड़ी शान के साथ कहते सुना गया है कि अभी हाल में एक जगह अछूतों की हिफाजत में (क्योंकि उन अछूतों को मौत का भय नहीं था) हिन्दुओं का एक जुलूस मस्जिद के सामने से (धूमधाम के साथ गाते-बजाते हुए) निकल गया और उसका कुछ नहीं बिगड़ा।
वही स्थिति, वही प्रश्न
गाँधीजी के उस लम्बे लेख में से यह लम्बा उद्धरण अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े करता है। यह दोनों समाजों की प्रकृति और मानसिकता में भारी अंतर दिखाता है। अहिंसा के आदर्श के उपासक हिन्दू समाज की अहिंसा कायरता बन गयी है। कायर अहिंसा से हिंसा स्वागत योग्य है। पूरा हिन्दू समाज कायरता से ग्रस्त नहीं है, उसका एक वर्ग निर्भीक और बहादुर है। अत: हिन्दू समाज की अन्तर्रचना का सूक्ष्म अध्ययन करना आवश्यक है।
गाँधीजी के इस लेख की व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। गाँधीजी को बड़ी संख्या में देश भर से पत्र पहुँचे। इसमें एक लम्बा पत्र प्रख्यात दार्शनिक एवं स्वाधीनता सेनानी डॉ. भगवान दास ने 5 जून, 1924 को वाराणसी से गाँधीजी को लिखा। उसमें उन्होंने अनेक प्रश्न उठाए। गाँधीजी ने उस पूरे पत्र को यंग इंडिया में प्रकाशित किया (सम्पूर्ण वाङमय, खंड 24 में पृ. 602-606) पर यह पत्र उपलब्ध है। गाँधीजी ने "हिन्दू क्या करें? शीर्षक से उस पत्र में उठाए गए प्रश्नों का उत्तर 19 जून 1924 के यंग इंडिया में देने की कोशिश की (वही 24 पृष्ठ 276-278) दो श्रेष्ठ हिन्दू मनीषियों के इस पत्र व्यवहार का अध्ययन भारत की वर्तमान स्थिति और हिन्दू समाज के अंतद्र्वंद्व को समझने के लिए बहुत उपयोगी है।
जो स्थिति हिन्दू समाज के सामने 1924 में खड़ी थी वही 1941 में सुनियोजित पाकिस्तानी दंगों के कारण उत्पन्न हुई। उस समय भी गाँधीजी, कन्हैयालाल माणिकलाल .मुंशी, डॉ.राजेन्द्र प्रसाद जैसे शीर्ष नेताओं के सामने प्रश्न था कि मुस्लिम हिंसा का मुकाबला क्या कांग्रेस की अहिंसा से संभव है? यही प्रश्न 1947 में विभाजन के समय खड़ा था और यही आज भी खड़ा है।
1 comment:
gare murde ukharne se koi faida nahi .is waqt zarurat hai hamen ek saath milkar rehne ki...rahi baat muslimon ke dehshat failane ki to mai ek hi baat kahonga ki dehshatgard bhi julm ki kokh se paida hota hai...chahe woh kio kum ka ho..jai hind
Post a Comment