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Monday, February 17, 2014

प्रेम पर क्या लिखूं...


श्रवण शुक्ल
प्रेम पर क्या लिखूं...
सबकुछ तो लिखा जा चुका है
गजलों, नज्मों, शेरों
के रुप में।

मैं तो जरा सा सिपाही हूं
जो प्रेमी भी है,
लड़ता भी है..
ये भी लिख चुके हैं सभी।

मगर दिल नहीं मानता
कहता है कि बोलो कुछ
अरे हद है यार
क्या दादा गिरी...।

कह तो रहे हो लिखने को
लेकिन तुम तो खाली हो
फक्कड़,
जिसमें सिर्फ वो बसी है..
कहो क्या लिखूं
उसका नाम ..?
या चाहतों का पैगाम?

कल भी कोशिस की थी
कि बात कर लूं..
बेहोशी की हालत में सही
लेकिन उस समय मंजर ही बदल गए।

हथियार डाल दिए तुम
और मैं बकबकाया...
फिर साबित हुआ असफल
जो था.. कह न पाया. हूूं औ रहूंगा..
लेकिन कोशिसें जारी रहेंगी
तुम्हें पाने की...

(प्यार से, प्यार को, प्यार के लिए....दिल भरा है, कुछ कहने की हिम्मत नहीं। फिर भी कह ही देता हूं टूटे शब्दों में दिल का हाल)
(C) श्रवण शुक्ल — feeling कोशिसें अभी जारी है तुम्हे पाने की।

Tuesday, February 11, 2014

जेपी आंदोलन और सुनयना की दुनिया

संजय सिंहा
वरिष्ठ मगर संजीदा पत्रकार)
(लेखक आजतक न्यूज चैनल में कार्यरत हैं)

वैसे तो उसका नाम भी रंजना ही था। लेकिन Ranjana Tripathi ने जब ये लिख दिया कि ये दुनिया प्यार नहीं करने देती, कहती है घर- परिवार सब क्या कहेंगे? लड़की सयानी हो गई, उम्र निकलती जा रही है, गैर मर्दों के साथ घूमती है... मां-बाप को कहीं का नहीं छोड़ा। नाक कटवा दी…और फिर शादी के बंधन में बांध दिया जाता है, शादी के बाद बंद कमरे में क्या होता है, ये देखने की फुर्सत किसे है?
तो रंजना का नाम मैं सुनयना कर देता हूं। और आपको लिए चलता हूं सुनयना की दुनिया में। सुनयना मेरे दोस्त की बड़ी बहन। दोस्त की क्या मेरी ही बहन मान लीजिए-
साल 1975, जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरे उफान पर था। स्कूल की दीवारों पर जगह-जगह लिखा था, जयप्रकाश संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। और यहीं जहां जेपी का नाम लिखा था, उसी के बीच सफेद चॉक से दो-तीन जगहों पर लिखा था- सुनयना और संदीप। पूरे शहर में सुगबुगाहट थी जेपी आंदोलन की, लेकिन सुनयना दीदी के घर में चर्चा थी दीवार पर लिखे उस नाम की…संदीप की।
पता नहीं किसने लिखा था, क्यों लिखा था, और जेपी आंदोलन के बीच सुनयना और संदीप का नाम ही क्यों उकेरा था?
मेरा दोस्त रवि भागा-भागा घर आया था, अपनी मां को बता रहा था कि स्कूल की दीवार पर दीदी का नाम और संदीप भैया का नाम लिखा है, सभी उसे छेड़ रहे हैं।
और मां रो-रो कर बेहाल हुई जा रही थी। पंद्रह वर्ष की सुनयना दीदी और उसकी क्लास से एक क्लास उपर पढ़ रहे संदीप भैया के नाम का यूं साथ लिखा जाना कोई बड़ी बात तो नहीं थी, कि मां रो-रो कर जान देने पर उतारू हो जाए।
रवि ने बताने को तो मां को ये बात बता दी थी, लेिकन अब उसे लगने लगा था कि नही ंबतानी चाहिए थी। मां अपना ऐसा हाल कर लेगी, ये तो उसने सोचा भी नहीं था।
सुनयना दीदी के स्कूल जाने पर रोक उसी दिन लग गई। बहुत मुश्किल से प्राइवेट मैट्रिक का इम्तेहान दिलाया गया और फिर हजार पहरे लग गए।
पूरे मुहल्ले की निगाहें सुनयना दीदी पर थीं, और ऐसा लगने लगा था कि ये पंद्रह वर्ष की लड़की संसार की सबसे बड़ी गुनहगार है। आसपास के लोगों ने अपनी बेटियों को सुनयना दीदी से मिलने के लिए मना कर दिया, और फिर एकदिन अचानक सुनयना दीदी की शादी उनसे कोई पंद्रह वर्ष बड़े एक आदमी से कर दी गई।
अफरा-तफरी में हुई इस शादी में ना खुश होने को कुछ था, ना दुखी होने को। सुनयना दीदी को तो पता ही नहीं था कि शादी क्या होती है, और शादी के बाद क्या होगा?
मैं उस शादी में गया था। सुनयना दीदी शादी में तो नहीं रोई थीं, लेकिन शादी के बाद जब उनके घर फिर गया था तो वो मुझसे लिपट-लिपट कर रोई थीं।
बार-बार पूछती थीं कि उनका गुनाह क्या था? मेरे पास कोई जवाब नही ंथा।
फिर सुनयना दीदी एक दिन अपनी मां के पास आई थीं, उन्होंने मां को अपनी पीठ दिखाई थी, उस पर कई निशान थे-मार खाने के निशान।
सुनयना दीदी मां के आगे गिड़िगिड़ा रही थीं, कि मुझे यही ंरहने दो, ससुराल मत भेजो। लेकिन मां नहीं मानी। सुनयना दीदी फिर चली गई थीं। रवि भी कुछ नहीं कर पाया था। वो छोटा जो था।
फिर सुनयना दीदी के बारे में पता चलता रहा, मैं सुनता रहा कि उनके तीन बच्चे हो गए, साल दर साल। बच्चे होते रहे लेकिन पिटाई नहीं थमी। पति पीटते, सास पीटती और कभी-कभी देवर भी।
सुनयना दीदी की मां अक्सर अपने पड़ोसियों से बेटी की खुश खबरी बयां करतीं। कहतीं कि बेटी राज कर रही है। मुहल्ले वाली महिलाएं दंग होकर सारी कहानियां सुनती रहतीं। कहतीं कि अच्छा किया कि बेटी का ब्याह कर दिया, वर्ना उसकी तो शादी ही न होती। पता नहीं किसके साथ नाम जुड़ गया था।
मां बेटी के ससुराल की झूठी तारीफ करती रहीं, और दिल में शायद उसे सच भी मानती रहीं। या फिर उनके लिए उनकी वो झूठी शान बेटी की दुर्गति से ज्यादा अहमियत रखती थी।
बहुत दिन बीत गए। मार खाते-खाते सुनयना दीदी का बदन छलनी-छलनी हो गया। इतना कि दर्द भी उसके पास आने से सहम जाए।
तीन-तीन बच्चों को जैसे-तैसे पालने वाली सुनयना दीदी ने बहुत दिनों बाद अपने पति को छोड़ दिया।
जब मैं छोटा था तो मुझे अक्सर रात में सुनयना दीदी के सपने आते। सोचता काश मैं इतना बड़ा हो जाता कि सुनयना दीदी को पिटने से बचा लेता। सोचता कि काश सुनयना दीदी को अपने घर ले आता। सोचता कि इतनी सुंदर सुनयना दीदी को आखिर उनकी मां और पिताजी ने एक अधेड़ आदमी से क्यों ब्याह दिया? सोचता कि क्या किसी लड़की का नाम किसी लड़के से जोड़ कर कहीं लिख दिया जाए तो उसका ऐसा ही हश्र होगा? सोचता कि अगर वाकई सुनयना दीदी को संदीप भैया अच्छे लगे ही होंगे तो उसकी सजा शादी थी? सोचता कि क्या कभी मैं भी अपनी पत्नी के साथ ऐसे ही पेश आउंगा? सोचता कि क्या मेरी बेटी होगी तो उसका पति भी उसे बेवजह यूं ही पुरुष होने के नाते पीट-पीट कर अपनी मर्दानगी बघारेगा? ये सब सोच कर मेरी नींद उड़ जाती।
आधी रात को खुली हुई नींद के बीच बिस्तर पर बैठ कर मैंने कई रातें यूं ही गुजारी हैं। क्या मां-बाप की इज्जत इतनी बड़ी होती है कि बेटी की चीख उन्हें सुनाई ही न दे? क्या मुहल्ले वालों के तानों का आकार बेटी के प्यार से ज्यादा बड़ा होता है? क्या कोई लड़की किसी से प्यार नहीं कर सकती? और आखिरी सवाल तो आज तक सालता है, कि वहां दीवार पर संदीप भैया का भी नाम लिखा था, तो संदीप भैया को स्कूल जाने से क्यों नहीं रोका गया? संदीप भैया को पकड़ कर उनकी शादी क्यों नहीं करा दी गई? संदीप भैया के बदन पर वैसे ही निशान क्यों नहीं, जैसे सुनयना दीदी के बदन पर हैं?
मुझे समचमुच नहीं पता कि सुनयना दीदी और संदीप भैया के बीच क्या था, लेकिन इतना पता है कि अपनी बेटियों की मुहब्बत की कहानी सुन कर जिन मां-बाप की इज्जत चली जाती है, उन्हें हक नहीं कि वो बेटियों के माता-िपता बनें। जिन मां-बाप की इज्जत इतनी छोटी होती है कि पड़ोसियों के तानों का जवाब अपनी बेटियों को शादी की यातना से देते हैं, उन्हें मां-बाप कहलाने का हक नहीं।
अब सुनयना दीदी की मां नहीं हैं, ना पिता और ना ही पड़ोसी। पर सुनयना दीदी हैं- और तीनों बच्चों को बड़ा कर देने के बाद एकदम अकेली हैं। कभी-कभी मैं उनसे मिलता हूं, तो उनके बदन पर निशान देख कर आज भी सिहर जाता हूं। प्रार्थना करता हूं कि भगवान अगले जनम भी मोहे बिटिया ना कीजो।
............................................................

श्रवण शुक्ल.. पता नहीं कैसे लिखा आपने... ये आपकी सुनयना दीदी की कहानी नहीं है.. मेरी मां की भी कहानी है। मेरी मां का नाम किसी दीवार पे नहीं लिखा गया... लेकिन उच्चा जाति का दंश और खानदान की इज्जत के नाम पर उन्हें नागपुर शहर से सुल्तानपुर जैसी जगह पटक दिया गया.. और फिर किसी ने पलटकर देखा भी नहीं। बाकी कहानी वही है। मैं यहां पिछले 10 सालों से मां के साथ ही हूं.. मां ने भी अपनी दुनिया कुर्बान कर दी अपने बच्चों के लिए। लेकिन सुनयना दीदी और मेरी मां में एक अंतर ये रहा कि उन्होंने कभी कुछ कहा ही नहीं अपने साथ बीते पलों के बारे में..सिवाय मेरे। और यही वजह है कि जब से समझदार हुआ हूं... 5 मामा और 4 मौसियों के परिवार में किसी से नहीं मिला। नफरत है सबसे...मेरे लिए तो मेरी दुनिया मां तक ही है.. लेकिन ऐसे हर समाज से नफरत है जो बेटियों को बोझ समझकर कहीं भी पल पल मरने को छोड़ जाते हैं। और कुछ नहीं कहना... कई राते जागा हूं..और वो रात तो अमिट है जब हमने घर छोड़ा। आपसे काफी कुछ कहने-सुनने की हिम्मत मिलती है।... पता नहीं क्यों..ऐसा लगता है कि हां.. थोड़ा दिल हल्का हो गया... शायद औरों को भी सबक मिले और वो ऐसा कोई कदम न उठाए कि फिर से कोई सुनयना, रंजना या उषा जैसी जिंदगी जिए..

Monday, February 3, 2014

Last moments ...आखिरी पल

( फिर आया दीवाना)
आखिरी पल (C) @ श्रवण शुक्ल

जितने करीब आ रहे हैं...
दिल की धड़कने बढ़ रही हैं
बेताबी बढ़ रही है
तुझपे प्यार आ रहा है
इन पलों में क्या करुं... बस यही सोच रहा हूं
सोचता हूं, क्या हम फिर मिलेंगे
लेकिन कब ?
शायद कभी नहीं
ये विदाई की बेला है
जिसे कोई टाल नहीं सकता
लेकिन मिटा तो सकता है ?
खुद को  ?
तो कोशिसें जारी हैं
खुद को मिटानें की
खुद को सताने की
लेकिन वो पल बड़ा अजीब होगा
जब डोली उठेगी मेरे सामने
घर जाएगी मेरे या किसी और के
ये सोटने की बात नहीं
लेकिन उस सफर के बाद
क्या अजीब मंजर होगा
शायद मैं न रहूं..
ये देखने के लिए
दोस्तों... मैं रहूं या न रहूं
मेरी मय्यत पे एक तस्वीर डाल देना
उसकी डोली उठने से पहले की
शायद तब मैं सुकून से जा सकूं
वहां..
जहां से कोई वापस नहीं आता..
कुछ इस तरह चाहत है मेरी
आखिरी पल जितने करीब आ रहे हैं..
धड़कनें बढ़ रही हैं मेरी
समां रहा हूं धड़कनों में अपनीं..
जहां तेरा वास है..
ऐ मोहब्बत..।





Sunday, February 2, 2014

तुम्हारा प्यार

श्रवण शुक्ल
(दिल का मरीज)
तुम्हारा प्यार ही तो है, जीने की वजह
तुम्हारा प्यार ही तो है, लंबे इंतजार की वजह

तुम्हारा प्यार ही तो है, जो उम्मीदें देता है
जो प्यार जगाए हुए है औरों के लिए भी
तुम्हारा प्यार ही तो है, जिनसे उम्मीदें थी
जिसके लिए हूं मैं, तुमसे दूर होकर भी

तुम्हारा प्यार ही तो है, मेरे समर्पण की वजह
तुम्हारा प्यार ही तो है, जो जिंदा रखे हुए है सबकुछ
वर्ना जीने को था ही क्या ?
तुम्हारा प्यार ही तो है, जो जा रहा है 
तुम्हारा प्यार ही तो है, जो मेरा था, लेकिन किसी और की किस्मत में लिख गया
तुम्हारा प्यार ही तो है, जिसके लिए अब भी जिंदा रहूंगा
...जैसे अबतक था
तुम्हारा प्यार ही तो है, जिसके लिए आउंगा..
अगले जन्म भी
तुम्हारा प्यार ही तो है, जो शायद अब भी मिले
आखिरी बार ही सही
तुम्हारा प्यार ही तो है, जो सुल्तानपुर से शुरु..
और जाने कहां रुकेगा .. कारवां
शायद कभी नहीं
क्योंकि...कहने वालों ने कहा है..
लिखने वालों ने लिखा है..
प्यार कभी खत्म नहीं होता...
तो उम्मीदें भी खत्म नहीं होंगी...
क्योंकि जिंदगी में जो चाहिए..
वो है मेरे पास..
पूछो क्या... 
तुम्हारा प्यार।

तुम्हारा प्यार (C) copyright श्रवण शुक्ल



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