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Saturday, April 13, 2013

बाबा मार्क्स के आंसू : सतीश पेडणेकर


उस दिन कब्रिस्तान के पास से गुजर रहा था तो लगा कोई कब्र में करवटें बदल रहा है ,कराह रहा है फिर रोने की सी आवाज सुनाई दी । तब मुझसे रहा नहीं गया मैं कब्र के पास पहुंचा और पूछा – अरे भाई कौन हो ,तुम्हें कब्र में भी  चैन नहीं । क्या नाम है तुम्हारा ? जब कुछ देर कोई आवाज नहीं आई तो मैंने फिर पूछा – अरे बताओं कौन हो क्या नाम है तुम्हारा ? शायद मैं तुम्हारी मदद कर सकूं ? तब अंदर से जवाब आया –मेरा नाम है मार्क्स।

मैंने पूछा – कौन ,ग्रुचो मार्क्स।

मेरी बात सुनते ही अंदर से झल्लाती हुई आवाज आई – तुम दुनियावाले बहुत एहसान फरामोश  हो । मैंने सारी जिंदगी लाइब्ररियों में माथापच्ची करके  खपा दी और कम्युनिज्म का ऐसा दर्शन दिया जो इस दुनिया क्रांति लेकर आया.लेकिन तुम एहसान फरामोश लोग मुझे भूल गए और लेकिन  वो  हंसोड,नाटक नौंटकी करनेवाला ग्रुचो मार्क्स तुम्हें याद है।

मेरे तो अचरज का पारावार ही नहीं रहा। और मेरे मुंह से निकल गया –बाबा कार्ल मार्क्स आप । आपको कौन नहीं जानता। कभी आप मेरे आदर्श हुआ करते थे। मैं आपके व्यक्तित्व से भी बहुत प्रभावित था खासकर आपकी घनी  सफेद दाढी से  लेकिन  जब दुनियाभर में आपके कामरेड़ो की क्रूरतापूर्ण और मूर्खतापूर्ण  हरकतें देखी तो दिल करने लगा कि वह दाढी नोंच डालूं।  खैर यह तो पुरानी बात हो गई । बताइए आपकी आंखों  में आंसू क्यों हैं ? आपको किस बात का दुख है।

मार्क्स बहुत लंबी सांस लेकर बोले , जिनसे तुम दुखी हो उनसे मैं भी दुखी हूं।यानी कम्युनिस्ट पार्टियों और कामरेड़ो से । तंग आ गया हूं इनकी बेजां और  बेहूदी हरकतों से ।

तब मैंने जानना चाहा कि अचानक ऐसा क्या हो गया जो वे कामरेड़ो से इस कदर दुखी हैं।

गुस्से में तमतमाए हुए  बाबा मार्क्स बोले – अब तो हद हो गई । भारत की मार्क्सवादी पार्टी को ही लो । मैं जिंदगी भर  कहता रहा कि धर्म जनता की अफीम है इससे जनता को दूर रखो  और माकपा अब पार्टी के सम्मेलनों में जीसस  क्राइस्ट की तस्वीर लगाने लगे हैं। मार्क्सवादी नेता कहते हैं – जीसस क्राइस्ट ,मोह्म्मद पैगंबर और भगवान बुद्ध क्रांतिकारी थे । अरे भाई, अगर ये सब क्रांतिकारी थे तो उनके धर्म यानी पार्टीयां क्रांतिकारी पार्टी हुई। जब सैंकड़ों सालों से ये क्रांतिकारी पार्टियां मौजूद हैं तो क्रांति करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत ही क्या है। छोड़ दो पैगंबरो और मसीहाओं के  भरोसे दुनिया को।  इसलिए मैं कहता हूं रास्ते से भटक गई है कम्युनिस्ट पार्टियां।

मैंने उनका गुस्सा शांत करने के लिए कहा – बाबा मार्क्स ,ऐसा कुछ नहीं । डैमोक्रेटीक सेटअप में काम कर रहे हैं बेचारे । वोटरों को लुभाने के लिए ये दंद फंद तो करने ही पड़ते हैं। लोकतंत्र में तो वोटर ही माईबाप होता है । वही तो वोटों से मतपेटियां भर देता है।

इस पर बाबा मार्क्स और भी भड़क गए और बोले – यही तो मैं कहता हूं एक बार सिद्धांतों से भटकाव शुरू हुआ तो वह कभी खत्म नहीं होता। पहले भारत के कामरेड क्रांति का रास्ता छोडकर संसद के सूअरबाड़े में जा बैठे। वहां  लंबे लंबे भाषण झाड़ रहे हैं। अब चर्च में जाएंगे और भजन करेंगे - तेरा जीसस करेंगे बेड़ा पार उदासी मन काहे को डरे। फिर कालीमाता को क्रांतिमाता कह उसकी आरती उतारंगे। दुर्गासप्तशती गाते हुए दुर्गामाता  से विनति करेंगे –  हम पर क्रपा करो और पूंजीवाद रूपी महिषासुर का वध करो। दास कैपिटल के बजाय बाइबिल का  अखंड पाठ करेंगे। अब इसतरह से होगी क्रांति ? धन्य हो।यह अगर क्रांति है तो प्रतिक्रांति किसे कहेंगे।

यह सुनकर मुझे लगा कि बाबा मार्क्स की बातों में दम है। लेकिन मैं चाहता था कि वे ज्यादा दुखी न हो इसलिए उन्हें थोड़ा ढाढस बंधाने के लिए मैंने कहा- आपकी ये आशंकाएं निराधार हैं – मार्क्सवादियों का क्रांति के बारे में दिमाग बहुत साफ  है। बहुत ज्यादा पढ़े लिखे हैं हमारे देश के कामरेड । कभी कभी तो लगता है कि किताबों की दुनिया में रहते हैं  वही जीते मरते हैं। किताबें ही ओढ़ते बिछाते हैं। किताबों की दुनिया से कभी बाहर ही नहीं आना चाहते । इसलिए उनकी भाषा  लोगों समझ में नहीं आती। इसलिए  अब धार्मिक  मायथोलाजी का सहारा ले रहे हैं। शायद उसके जरीये कम्युनिज्म लोगों को समझ में आ जाए। आपने  केरल माकपा द्वारा लगाई गई वो पेटिंग देखी कि नहीं जिसका शीर्षक था – लास्ट सपर आफ कैपिटलिज्म : सीपीएम इज ओनली होप  – क्या खूब पेंटिग थी। एकदम झकास आइडिया। पूंजीवाद पर हल्ला बोल कि अब उसका अंत नजदीक है। विश्व पूंजीवाद के रहनुमा अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत की पूंजीवादी पार्टीयों  कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के साथ आखिरी महाभोज कर रहे है । इसके बाद  तो उन्हें सूली चढ़ना ही है। पूंजीवाद आखिर कबतक खैर मनाएगा। पूंजीवाद के खत्म होने पर लोगों के सामने एकमात्र होप एकमात्र उम्मीद है सीपीएम। बडा बवाल हो रहा है इस पेंटिंग पर प्रेस में  । चर्चवाले अलग से परेशान हैं कामरेड हमारी मायथोलाजी पर कब्जा जमा रहे हैं। आपको इस कमाल की  पेंटिंग की दाद देनी पड़ेगी।

मुझे लगा था मेरी बात सुनकर मार्क्स खुशी से फूले नहीं समाएंगे। उनका दुख थोड़ा कम होगा लेकिन हुआ उल्टा ही। वो पहले की तरह  गुस्सा उगलते हुए बोले , कम्युनिस्ट होने की पहली शर्त यह है कि उसे आब्जेक्टीव तरीके से सोचना चाहिए सब्जेक्टीव तरीके से नहीं।

ये पेंटिंग तो सफेद झूठ है यह बात मन ही मन में हर कम्युनिस्ट जानता है। आज की दुनियां को देखकर तो लगता है कि मत्यु के पहले का महाभोज पूंजीवादी नहीं कम्युनिस्ट खा रहे हैं।सोवियत संघ,पूर्वी यूरोप ,बाल्कान में साम्यवादी साम्राज्य ताश के पत्तों की तरह ढह गया। दूसरी सबसे बड़ा कम्युनिस्ट देश चीन पूंजीवादी हो गया है बाजारू अर्थव्यवस्था के शरण में चला गया है। वहां बोर्ड कम्युनिज्म का लगा रखा है और  माल पूंजीवाद का बिक रहा है। यह तो साम्यवादी विचारधारा की जड़ों पर कुठाराघात  हुआ। अमेरिका को धूल चटा देनेवाला हो ची मिन्ह का  वियतनाम अब अमेरिका के सामने मदद के लिए कटोरा फैला रहा है। इसके बाद भी यदि कम्युनिस्टों को लगता है कि कम्युनिज्म नहीं पूंजीवाद खत्म हो रहा है तो वे मुंगेरीलाल के हसीन सपने देख रहे हैं। तुमने सोचा है कितने बुरे दिन आ गए हैं कि जिन्हें मैंने क्रांति का हिरावल दस्ता मना करता  था वे मजदूर तो कम्युनिज्म के नाम से ही दूर भाग रहे हैं। क्यों न भागें जो उन्हें कम्युनिज्म देने का वादा करता था उससे कहीं ज्यादा तो  शोषक पूंजीवाद ने दे दिया। अब तो यह भी अपील नहीं की जा सकती कि दुनिया के मजदूरों एक हो जाओं तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। क्योंकि पश्चिमी देशों में  कई पूंजीवादी व्यवस्थाओं ने उनका शोषण करने के बावजूद भी मालामाल कर दिया । वहां मजदूर पहले की तरह कड़का नहीं रहा। उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है फ्लैट है ,गाडी है ,टीवी ,फ्रीज है ,एसी है ,मोटी बीमा पालिसियां है। जब मनी हो और हनी हो तो  फिर भला वो क्रांति ,भ्रांति के चक्कर में क्यों पड़ेगा। वह तो पूंजीवाद के समृद्ध  नरक में ही खुश है।

यह सब कहते हुए बाबा मार्क्स का गला भर आया था। फिर वे भारत के कम्युनिस्टों की तरफ मुड़े बोले - उनके बारे में कुछ भी कहना बेकार है। लेकिन क्या करूं बात निकलती  है तो कहे बिना भी रहा नहीं जाता। पश्चिम बंगाल और केरल में शर्मनाक हार के बाद तो  भारत में कम्युनिज्म ही मत्युशैय्या पर पड़ा है। आखिरी सांसे गिन रहा है। फिर कुछ व्यंग्य करते हुए कहने लगे असल में उस कामरेड पेंटर को पेंटिंग कुछ ऐसी बनाना चाहिए थी कि बिग ब्रदर माकपा नेता प्रकाश कारत अपने वाममोर्चे की अन्य पार्टियों के छुटभैय्ये नेताओं के साथ आखिरी महाभोज ,लास्ट सपर खाने में मशगूल हैं क्योंकि  जनता अब इन्हें नहीं बख्शनेवाली है। इतनी नाकारा है कि प्रकाश कारत एंड कंपनी की वो तो गनीमत है कि भारत में लोकतंत्र है इसलिए जनता ने पशिचम बंगाल में  उन्हें चुनाव के जरिये उखाड़ फेका नहीं तो जनता को प्रतिक्रांति करनी पड़ती।

फिर लंबी सांस लेते हुए कहा, क्या लिखा है पेंटिग पर सीपीएम इज ओनली होप  मुझे लगता है उस पेंटर को शीर्षक देना चाहिए था –कम्यनिज्मस् लास्ट सपर -सीपीएम इज होपलैस । वैसे यह केवल माकपा की ही नहीं सारे कम्युनिस्टों की हकीकत है।

यह कहते हुए बाबा मार्क्स की आंखें नम हो गईं । बोले ,बस अब और मत छेडो मेरी दुखती रग को । इतना कहते हुए वे  फिर अपनी कब्र में सो गए कराहते हुए करवटें बदलते हुए।।

- सतीश पेडणेक. यह लेख आज़ादी.मी पर प्रकाशित हो चुका है, वहीँ से साभार!

वामपंथ का पूरा सच भारत के कम्युनिस्टों ने नहीं पढ़ाया: राजपूत


भारत से वामपंथ को विदा करने की सही राह पश्चिम बंगाल की तेजतर्रार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पकड़ी है। ममता ने लम्बे संघर्ष के दौरान पश्चिम बंगाल की जनता को वामपंथ का कलुषित चेहरा दिखाया और उसे पश्चिम बंगाल की सत्ता से बेदखल किया। ममता बनर्जी को साधुवाद है इतिहास की पुस्तकों में से मार्क्स और लेनिन के अध्याय हटाने के लिए। शुक्र की बात यह है कि ममता भारतीय जनता पार्टी की नेता नहीं हैं। वरना हमारे तमाम बुद्धिजीवी और सेक्युलर जमात 'शिक्षा का भगवाकरण-भगवाकरण' चिल्लाने लगते। आखिर हम गांधी, सुभाष, दीनदयाल, अरविन्द, विवेकानन्द, लोहिया और अन्य भारतीय महापुरुषों, चिंतकों और राजनीतिज्ञों की कीमत पर मार्क्स और लेनिन को क्यों पढ़े? हम अपने ही महापुरुषों के बारे में अपने नौनिहालों को नहीं बता पा रहे हैं ऐसे में मार्क्स और लेनिन के पाठ उन पर थोपने का तुक समझ नहीं आता। अगर किसी को मार्क्स और लेनिन को पढऩा ही है तो स्वतंत्र रूप से पढ़े, उन्हें पाठ्यक्रमों में क्यों घुसेड़ा जाए। जबकि वामपंथियों ने यही किया। उन्हें पता है कि शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से अपनी विचारधारा को किस तरह विस्तार दिया जा सकता है।

वामपंथियों का मार्क्स, लेनिन और अन्य कम्युनिस्ट नेताओं के प्रति कितना दुराग्रह है इसकी झलक सन् २०११ में त्रिपुरा राज्य में देखने को मिली। यहां की कम्युनिस्ट सरकार ने कक्षा पांच के सिलेबस से सत्य-अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की जगह घोर कम्युनिस्ट, फासीवादी, जनता पर जबरन कानून लादने वाले लेनिन (ब्लाडिमिर इल्या उल्वानोव) को शामिल किया है। भारतीय संदर्भ में जहां-जहां वामपंथी ताकत में रहे शिक्षा का सत्यानाश होता रहा। शिक्षा व्यवस्था में सेंध लगाकर ये भारतीयों के मानस पर कब्जा करने का षड्यंत्र रचते रहे हैं। केरल के कई उच्च शिक्षित नागरिकों को विश्व शांति का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी और अयांकलि के समाज सुधारक श्रीनारायण गुरु सहित अन्य स्वदेशी विचारकों के संदर्भ में उचित जानकारी नहीं होगी। क्योंकि केरल की कम्युनिस्ट पार्टी ने वहां स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रमों में इन्हें स्थान ही नहीं दिया। बल्कि उन्होंने मार्क्सवादी संघर्ष के इतिहास से किताबों के पन्ने काले कर दिए। केरल के ही महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के एमए राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम में भारतीय राजनीतिक विचारधारा में गांधीजी, वीर सावरकर और श्री अरविन्दों को हटाया गया, इनकी जगह मार्क्सवादी नेताओं को रखा गया।

पत्रकार और सांसद अरुण शौरी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'एमिनेण्ट हिस्टोरियन्स' में 'शुद्धो-औशुद्धो' के संदर्भ में पश्चिम बंगाल के अध्यादेश का उदाहरण दिया है। यह अध्यादेश १९८९ को हायर सेकण्डरी स्कूलों को जारी किया गया था। इसमें इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के लेखकों और प्रकाशकों को कहा गया था कि उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक औशुद्ध (गलतियां) हो तो वे आगामी संस्करण में उन्हें ठीक कर लें। एक लम्बी सूची भी दी गई जिसमें बताया गया कि क्या-क्या गलत है और उसमें क्या संसोधन करना है। इस तरह पश्चिम बंगाल ने कम्युनिस्टों ने भारत के इतिहास में मनमाफिक फेरबदल किया। पश्चिम बंगाल में लम्बे समय तक कम्युनिस्ट सरकार रही। इस दौरान उन्होंने जबर्दस्त तरीके से शिक्षा व्यवस्था में घुसपैठ की। इसके चलते पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, केरल के प्राथमिक विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक के अधिकांश शिक्षक, शिक्षक न होकर माकपा के सक्रिय कार्यकर्ता अधिक रहे हैं। वामपंथियों की मंशानुरूप ये शिक्षक इतिहास, भूगोल, साहित्य सहित अन्य विषयों को तोड़-मड़ोरकर प्रस्तुत करते रहे हैं।

वामपंथियों ने अपनी थोथी राजनीति की दुकान चलाने के लिए शिक्षा व्यवस्था को तो जार-जार किया ही इसके माध्यम से राष्ट्रीय भावना को भी तार-तार किया। ऐसे में शिक्षा व्यवस्था में ममता सरकार की ओर से किए जा रहे सार्थक प्रयासों का स्वागत किया जाना चाहिए। वर्षों से कम्युनिस्टों ने जो गड़बडिय़ां की, उन्हें ठीक किया ही जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार ने कक्षा ११वीं और १२वीं के इतिहास के सिलेबस में बदलाव करने का फैसला लिया है। सिलेबस बनाने वाली कमेटी की ओर से तैयार किए गए नए प्रारूप में पुराने अध्यायों को हटाया गया है। हटाए जाने वालों में मार्क्स और लेनिन के अध्याय भी हैं। पाठ्यक्रम तैयार करने वाली कमेटी के चेयरमैन अभिक मजूमदार ने बताया कि इतिहास में ऐसे कई अध्याय हैं जिन्हें किताबों में बेवजह शामिल किया गया था, जबकि इनकी कोई जरूरत नहीं है। इन्हें हटाने की सिफारिश की गई है। उन्होंने कहा कि जब चीन का इतिहास पाठ्यक्रम में शामिल है तो अलग से मार्क्स और लेनिन को पढऩे की जरूरत क्या है? नए प्रारूप में महिला आंदोलन, हरित क्रान्ति और पर्यावरण से जुड़े अध्याय शामिल हैं। मजूमदार ने बताया कि हमने किसी विषय को जबरन थोपने की कोशिश नहीं की है।

चालाक कम्युनिस्टों ने भारत में मार्क्स, लेनिन व अन्य वामपंथी विचारकों को पढ़ाने में भी ईमानदारी नहीं दिखाई। वामपंथ का पूरा सच भारत के कम्युनिस्टों ने कभी नहीं पढ़ाया। वामपंथ का साफ-सुथरा और लोक-लुभावन चेहरा ही प्रस्तुत किया गया। कम्युनिस्ट मार्क्सवाद के पीछे छिपा अवैज्ञानिकवाद, फासीवाद, अधिनायकवाद, हिंसक चेहरा कभी सामने लेकर नहीं आए। इससे वे हमेशा कन्नी काटते नजर आए। कम्युनिस्टों ने कभी नहीं पढ़ाया या स्वीकार किया कि रूस में लेनिन और स्टालिन, रूमानिया में चासेस्क्यू, पोलैंड में जारू जेलोस्की, हंगरी में ग्रांज, पूर्वी जर्मनी में होनेकर, चेकोस्लोवाकिया में ह्मूसांक, बुल्गारिया में जिकोव और चीन में माओ-त्से-तुंग ने किस तरह नरसंहार मचाया। इन अधिनायकों ने सैनिक शक्ति, यातना-शिविरों और असंख्य व्यक्तियों को देश-निर्वासन करके भारी आतंक का राज स्थापित किया। मार्क्सवादी रूढि़वादिता ने कंबोडिया में पोल पॉट के द्वारा वहां की संस्कृति के विद्वानों मौत के घाट उतार दिया गया। जंगलों और खेतों में उन्हें मार गिराया गया। रूस और मध्य एशिया के गणराज्यों में भी हजारों गिरजाघरों और मस्जिदों को बंद कर दिया गया। स्टालिन के कारनामों से मार्क्सवाद का खूनी चेहरा जग-जाहिर हुआ।

हालांकि इन फासीवादी ताकतों को धूल में मिलाने में जनता ने अधिक समय नहीं लगाया। जल्द ही उक्त देशों से कम्युनिज्म उखाड़ फेंका गया। रूस में तो लेनिन और स्टालिन के शवों को बुरी तरह पीटा गया। इतना ही नहीं वहां कि जनता ने उन सब चीजों को बदलने का प्रयास किया जिन पर कम्युनिज्म ने अपना ठप्पा लगा दिया था। इतिहास की पुस्तकों से वे पन्ने निकाल दिए गए, जो कम्युनिस्ट के काले रंग से रंगे थे। सेंट पीटर्सबर्ग नगर कम्युनिस्टों के शासनकाल में 'लेनिनग्राड' हो गया था। कम्युनिज्म के ध्वस्त होते ही लेनिनग्राड वापिस सेंट पीटर्सबर्ग हो गया। भारत में भी कम्युनिस्टों ने समय-समय पर अपना रंग दिखाया है। महात्मा गांधी के आंदोलन भारत छोड़ो के खिलाफ षड्यंत्र किए, अंग्रेजों का साथ दिया, कम्युनिस्टों ने सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिन्द फौज के खिलाफ दुष्प्रचार किया, पाकिस्तान बनाने की मांग को वैध करने और भारत में अनेक स्वायत्त राष्ट्र बनाने का समर्थन किया। १९६२ के युद्ध में चीन की तरफदारी की, क्योंकि वहां कम्युनिस्ट सरकार थी। कम्युनिस्टों के लिए सदैव राष्ट्रहित से बढक़र स्वहित रहे हैं। कम्युनिस्टों ने भारत की संस्कृति, राष्ट्रीय चरित्रों, राष्ट्रीय आदर्शों और परम्पराओं से नफरत करना सिखाया। मार्क्स, लेनिन, माओ, फिदेल कास्त्रो, चे ग्वारा सबके सब उनके लिए आदर्श बने रहे, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. हेडगेवार सभी बुर्जुआ, पुनरुत्थानवादी कहे जाते रहे। कितनी बेशर्मी से कम्युनिस्ट इस देश में रहकर ही इस देश के महापुरुषों को दरकिनार करते रहे और विदेश से प्रेरणा लेते रहे। ऐसे कम्युनिज्म को तो इस देश से खुरच-खुरच कर बाहर फेंक देना चाहिए।

जिस कम्युनिज्म की अर्थी उसके जन्म स्थान से ही उठ गई, उसे भारत में दुल्हन की तरह रखा गया। रूस में मार्क्सवाद का प्रारंभ भीषण नरसंहार, नागरिकों की हत्याओं, दमन और सैनिक गतिविधियों से हुआ। १९९१ में इसका अंत व्यापक भ्रष्टाचार, आर्थिक कठिनाइयों और देशव्यापी भुखमरी के रूप में हुआ। ऐसे कम्युनिज्म का भारत में बने रहने का कोई मतलब नहीं है। ममता बनर्जी की तरह औरों को भी आगे आना होगा। साथ ही इस तरह के सुधारों का स्वागत किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं अगर किसी भी स्तर पर वामपंथियों की ओर से विरोध जताया जाता है तो उसका सबको मिलकर मुकाबला करना चाहिए।

लेखक लोकेंद्र सिंह राजपूत पत्रिका, ग्‍वालियर में सब एडिटर हैं, यह लेख मीडिया की मशहूर वेबसाइट www.bhadas4media.com में छप चुका है, वहीं, से साभार लेकर इस ब्लॉग पर प्रकाशित.

Thursday, April 11, 2013

यकीन दिला दूंगा कि मैं बुरा था, मगर इतना भी नहीं


श्रवण शुक्ल: बस जो दिल को छू जाए...
लाइफ है बॉस..झटके खाने के लिए..



यादों में कितने दफा
तुम्हारी गली, तुम्हारा दर्द पुकारता रहा
मगर क्या करूं? मुझसे ही आया न गया
एक गम जो मैंने दिया था तुम्हे
मुझसे भुलाया न गया
उस रोज मैं यहां से गया था, यह सोचकर, कि लौट आऊंगा
एक वादा जो किया था तुमसे, वो निभा जाऊंगा
मगर शायद उस वक्त ज़िन्दगी को यह मंजूर नहीं था
वरना मैं इस कदर भी मजबूर नहीं था
अभी भी वक्त है .. हां वक्त है अभी
लेकिन यह वादा है खुद दे
कि एक दिन तुम्हारे सामने आऊंगा
तुमने जो किया था, वह हर शिकवा मिटा जाऊंगा
यकीन दिला दूंगा कि मैं बुरा था, मगर इतना भी नहीं
वरना तुम्हारा हर इलज़ाम अपने सर उठा लूंगा
जो कर पाया अगर इतना भी नहीं

तेरे बिन, तेरे बिन डर सहा
लम्हा –लम्हा कैसे कटा
साथ चले पर राह में पिछड़े
मैं कहा तू कहा आ आ आ आ
तेरे बिन तेरे बिना तेरे लिए
तेरे बिन तेरे बिन ऐसे जिए
गम और ख़ुशी, लेके कभी
जी लिए, मर लिए
देरे न, देरे न देरे न....

Roman hindi.. I just luv this track
Yaado me Kitni dafa
Tumhari Gali Tumhara Dard Pukarta Raha
Magar Kya karoo Mujhse hi aaya na gaya
Ek gum jo maine diya tha tumhe
Mujhse bhulaya na gaya
Us roz main yaha se gaya tha ye sochkar ki laut aaunga
Ek wada jo kiya tha tumse wo nibha jaunga
Magar shayad us waqt zindagi ko ye manzoor nahi tha
Warna main is kadar bhi majboor nahi tha
Abhi bhi waqt hai... haa waqt hai abhi
Lekin ye wada hai khud se
Ki ek din tumhare saamne aaunga
Tumne jo kiya tha wo her shikwa mita jaaunga
Yakeen dila dunga ki main bura tha magar itna bhi nahi
Warna tumhara her ilzaam apne sir utha lunga
Jo kar paya aagar itna bhi nahi.
Tere Bin tere bin dard saha
Lamha lamha kaise kata
Saath chale per raah me bichre
Main kaha tu kaha aa aa aaa
Tere bin tere bin tere liye
Tere bin tere bin aise jiye
Gum or khushi leke kabhi
Ji liye mar liye
Dere na dere naa aa

Monday, April 8, 2013

अखबार के मालिक और मेरी भिड़ंत: अरुणेश सी. दवे


अख़बारों के नजरिए में पाठक, बोले तो-रै बेवकूफ़ भारतीय आम आदमी..आगे पढ़ें....

शाम के वक्त एक साहित्य प्रेमी अमीर मित्र का फ़ोन आया। उनके फ़ार्म हाउस में वाईन एंड डाईन का न्योता था।  मुफ़्त में पैग लगाने की खुशी में हम दनदनाते पहुंच गये। वहां एक सज्जन और विराजमान थे। मित्र ने मेरा उनसे परिचय करवाया। वे मध्य भारत के सबसे बड़े अखबार के मालिक और संपादक थे। उन्होने ससम्मान मुझसे हाथ मिलाया। मित्र ने मेरा परिचय दिया- "भाईसाहब बड़े अच्छे व्यंग्य कार हैं।" यह सुनते ही सज्जन के चेहरे पर तिरस्कार के भाव उभरे। मन ही मन उन्होने अनुमान लगाया कि जरूर इस लेखक की चाल होगी। पार्टी के बहाने अपने लेख पढ़वायेगा। पर टेबल पर रखी शीवाज रीगल की बोतल देख, उनकी नाराजगी कुछ कम हो गयी। मन मार कर बोले- "चलिये इसी बहाने आपसे मुलाकात हो गयी।"
मैने भी मन ही मन सोचा, भाड़ में जाये मुझे इनसे क्या लेना देना। अपन तो पैग लगाओ। यहां वहां की चर्चा होती रही। और अखबार के  मालिक साहब इंतजार करते रहे कि कब मै अपनी रचना उन्हे दिखाउंगा । दो राऊंड होने के बाद भी जब लेख प्रकाशित करने की कोई चर्चा न हुई। तो मालिक साहब का माथा ठनका। पांच राउंड होने के बाद तो सब गहरे मित्र बन जाते हैं। ऐसे में बात टालते न बनेगी।  मालिक साहब ने बात मेरे लेखन पर मोड़ी बोले- "भाई साहब, कोई रचना साथ लाये हैं क्या। मैने पूछा- "किस लिये श्रीमान।" हकबकाये मालिक साहब ने कहा- " अखबार में छपवाने के लिये और क्यों।"  मैने पूछा- "किस अखबार में छपवाने के लिये ?" वे बोले- अरे भाई, मैं छापूंगा तो अपने अखबार मे ही ना। लगता है आप मेरी बात कुछ समझे नही।" मैने कहा- "आप तो कोई अखबार निकालते ही नहीं हैं श्रीमान।"  मालिक साहब ने असहाय भाव से मित्र की ओर देखा। मानो कह रहें हो कैसे आदमी के साथ बैठा दिया दो पैग में ही लग गयी है।

मालिक साहब ने याद दिलाया- "अरे भाई मै  फ़लां अखबार का मालिक संपादक हूं, भूल गये क्या आप।" मैने पलट कर जवाब दिया- "वो तो अखबार है नही, सत्तारूढ़ पार्टी का मुखपत्र है। भाट और चारण जैसे चाटूकारिता करने वाला। अंतर यही है कि सरकार की छोटी मोटी गलतिया छाप दी जाती है । हां कभी कभी उसमे मंहगाई का जिक्र जरूर कर दिया जाता है।" मालिक साहब बैकफ़ुट पर थे- "आप गलत समझ रहे हैं। हमारा अखबार दूसरो से अलग है। हम किसी के दबाव में नही आते।" मैने कहा- "आम जनता को टोपी पहनाईगा मालिक साह्ब, हमे नही। सरकार के हर विभाग में खुला कमीशन बट रहा है। घपले हो रहे हैं। और आपके पत्रकार भी भीख मांगते वहीं पाये जाते हैं। कभी छापा आपने ?  क्या छापते हैं आप-  "अन्ना हजारे ने अपने भांजे को कांग्रेस में भरती किया" "बाबा रामदेव खुद को राम कह रहे हैं।" शांती भूषण नजर आ रहा है आपको। भ्रष्टाचार का प्रदूषण नही।  सलवा जुड़ूम के नाम पर हो रहा अत्याचार तो खैर आपको मालूम ही न होगा। नक्सलवाद की चक्की पर पिस रहे आदिवासियो के बारे में क्या किया आपने ? कुछ नही। छापते क्या हैं आप- "चमत्कारी अंगूठी", "फ़र्जी बाबाओ के विज्ञापन"। और तो और  वो लिंगवर्धक यंत्र का कभी उपयोग किया है आपने क्या मालिक साहब जो दूसरो को बतलाते हो 

बात बिगड़ती देख, मालिक साहब ने समझौते का प्रयास किया- "आप इतने जोशीले आदमी हैं। लेख भी जानदार लिखते होंगे।" मैने कहा- "लिखता तो हूं, पर छापने की हिम्मत आपमे न होगी।  छाप पायेंगे उन कंपनियो की काली करतूत। जिनके शेयर आपने सस्ते दामो में ले रखे हैं। जिनके करोड़ो रूपये के एड आपके मुखपत्र को मिलते हैं। आप तो छापिये दलित लड़की से बलात्कार, सड़क हादसे, ब्लागरो से चुराये हुये लेख।" फ़िर हमने हाथ होड़ कर कहा- " हे फ़्री प्रेस के चाचा, फ़्री मे ब्लागरो के लेख पाओ और जनता को दिखाने के लिये बड़े नाम की तारे और मच्छर पर घटिया तुकबंदी छपवाओ। पर अपने को अखबार बस मत कहो।" आज भारत का चौथा स्तंभ न  बिकता, तो मजाल है भारत में ये भ्रष्टासुर पैदा हो जाता।"

अब तक चार राउंड हो चुके थे। मालिक साहब भी क्रोध में आ चुके थे । वे  जोर से चिल्लाये- "रै बेवकूफ़ भारतीय आम आदमी। इसके जिम्मेदार खुद तुम लोग हो। तुमको हर चीज फ़ोकट में चाहिये पैसा जेब से एक न निकलेगा। बस दुनिया मुफ़्त में तुम्हारी रक्षा करे। दो रूपये किलो वाला सस्ता चावल जैसे २ रूपये में सस्ता अखबार चाहिये। तो कनकी ही मिलेगा बासमती नही। बीस रूपया महिना खर्चा कर एक पत्रिका तो खरीदना नही है। कहां से रूकेगा भ्रष्टाचार। कागज का दाम मालूम है ? अखबार के खर्चे कैसे पूरे होते होंगे कभी सोचा है? तुम खुद पैसा कमाओ तो ठीक और हम लोग तुम्हारे लिये भूखा मरें। बात ध्यान से सुन - "हम लोग तुझको अखबार बेचते नहीं है। सस्ते दाम में तुझे अखबार देकर तुझको खरीद लेते हैं।"  फ़िर हम तुझे बेचते हैं उन कंपनियो को। जो हमे तुम्हारा सही दाम देती हैं। उन नेताओ को जो तुम्हारे पैसे मे ऐश करते हैं और हमे भी करवाते हैं । पैसा देकर तुम्हारी तरह फ़ोकट नही। और सुन तुझे और लोग भी खरीदते हैं सी आई ए से लेकर तमाम विदेशी। ताकि वे अपने हिसाब का लेख छपवा कर भारत में मन माफ़िक जनमत तैयार करवाएं और अपना माल खपाएं। किसी पेपर में पढ़ता है क्या कि अमेरिकी विमान रूस के समान विमान से डेढ़ गुनी कीमत के पड़ते हैं। या परमाणू रियेक्टर की कीमतो का तुलनात्मक अध्ययन। नही न क्यों क्योंकि तुम लोग पैसा नही देते उन लोग देते हैं।" फ़िर मालिक साहब ने हमारी ही तर्ज पर हमे हाथ जोड़ कहा- तो हे फ़ोकट चंद भिनभिनाना बंद कर और चैन से मुझे पैग लगाने दे।"

मैने फ़जीहत से बचने के लिये अपने मित्र की ओर देखा। पर वह तो चैन से मजा ले रहा था। अब मुझे समझ में आया। ये सारा युद्ध प्रायोजित था  मै और मालिक साहब रोमन ग्लेडिएटर की तरह उसके मजे के लिये लड़ रहे थे। मैने प्रतिरोध किया-" मालिक साहब देशभक्ती भी कोई चीज है कि नहीं। मालिक साहब बोले- "है क्यो नही दवे जी। हम लोग दाल में नमक की तरह उसको भी इस्तेमाल करते हैं। तभी तो ये देश आज बचा हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले मे हम कोई समझौता नही करते। अरे भाई अगर देश ही नही रहेगा तो फ़िर तो हम ऐश कैसे करेंगे। पर भाई लोगो को जब इंडिया टीवी मे भूत प्रेत देखने में मजा आ रहा है तो कोई क्यो खोजी पत्रकारिता कर अपना जीवन बरबाद करे।"

 अब तक पांच राउंड हो चुके थे और हम और मालिक साहब  गहरे मित्र भी बन चुके थे। मालिक साहब बोले- यार वैसे तू बंदा बड़ा जोशीला है। तुझे व्यस्त न किया गया और सरकारी माल न दिया गया तो  नक्सली नेता बन जायेगा और फ़ोकट में मारा जायेगा। एक काम कर भाई  कल से मेरे आफ़िस आजा। दिन भर यहां वहां से सामग्री चुराना और जरा जोश भर के उसमे हेर फ़ेर कर देना। तू भी खुश रहेगा और मुझे भी चैन से पीने और जीने देगा।"

 मालिक साहब के विदा होने के बाद मैने दोस्त को धिक्कारा- " धुर कमीना है तू। अपने ही दोस्तो को इनवाईट कर आपस में लड़ा कर मजा लेता है।  मित्र भी दार्शनिक बन गया- " मालिक साहब की बात भूल गया। कोई भी चीज फ़ोकट में नही मिलती बेटा।  दारू का खर्चा मैने किया था तो मजे लेने के लिये ही न।"

अरुणेश जी के ब्लॉग से साभार: ब्लॉग पर जाने के लिए यहां क्लिक करें.

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