मुंबई। बात उन 14 दिनों की है, जब पहली बार संजय दत्त जेल गए थे। बॉलीवुड स्टार संजय दत्त को लगा कि जैसे जिंदगी बस खत्म हो गई है। जेल की एक छोटी सी खिड़की से बाहर वो आखिर क्या देखते थे और क्यों जेल में चाय वाले से संजय दत्त रश्क करते थे। 1981 में संजू बाबा की पहली फिल्म रॉकी जब रिलीज हुई तो रिलीज से तीन दिन पहले ही उनकी दोस्त उनकी मां नरगिस इस दुनिया को अलविदा कह गईं। अल्हड़ जिंदगी- हथियारों से लगाव-बिगड़ैलपना, लेकिन फिर भी चेहरे पर मासूमियत। जो भी हो इस फिल्मी खलनायक की जिंदगी उन 14 दिनों में बदल गई जब उसे पहली बार फिल्मी जेल नहीं असली जेल देखी-जब लाइट-कैमरा-एक्शन के बगैर उन्हें सलाखों के पीछे रात-दिन काटने पड़े। जब पहली बार संजय दत्त जेल गए।
1993 में विदेश में शूटिंग से लौटती ही वो पहले 14 दिन जैसे नर्क की तरह थे। एक इंटरव्यू में संजय दत्त ने उस नर्क को पूरी बारीकी के साथ जैसे दोबारा जिया। मुझे बेल नहीं मिलने का बेहद अफसोस था, यकीन नहीं हो रहा था, मैं टूट गया था भीतर तक। वो कुछ घंटे लगा जैसे मेरी जिंदगी खत्म हो गई थी। लगता था जैसे किसी भी तरह इन सलाखों के पीछे से निकल आऊं। संजय दत्त भले ही जिंदगी में अकेलेपन के शिकार रहे हों, और शायद इसी तन्हाई से लड़ने के लिए उन्होंने तीन शादियां कीं। लेकिन अपने पिता के साये से अलग - जेल की कोठरी में अकेले रात दिन रहना - उन्हें भीतर तक हिला गया। इसीलिए सलाखें जैसे काटने लगीं थीं। आसपास घूमते फिरते लोगों को देखकर जैसे संजय दत्त की सासें चलती थीं। मायूसी के अंधेरे में वो डूबने लगे और उसी वक्त रौशनी की किरण जेल की कोठरी में मौजूद एक छोटी सी खिड़की से आई।
संजू जैसे उस एक खिड़की की बलायें लेते हैं। एक छोटी सी खिड़की थी वहां। वहां से आते-जाते लोग दिखते थे मुझे। आती-जाती कारें, एक दुकान से दूसरी दुकान की ओर भागते लोग, खरीदारी करते लोग, उस वक्त यकीनन ये अहसास हुआ कि आजादी क्या होती है। एक ऐसा अभिनेता जो सुबह नींद से उठने से लेकर रात में सोने तक लोगों से घिरा रहता, जिसके नखरे उठाए जाते, जिसे बेतरह लाड पाने की आदत पड़ चुकी थी, उस इंसान को अब एक छोटी सी खिड़की जैसे जिंदगी दे रही थी। शायद इसीलिए संजय दत्त के करीबी उन्हें कभी पीटर पैन कहते जिसमें लड़कपन था। शोखी थी तो कभी एंग्री मैन कहते जो बिगड़ता था तो बस खुद का ही नुकसान करने पर आमादा हो जाता। लेकिन यहां जेल के भीतर न कोई पूछने वाला न कोई परखने वाला। न हर मुश्किल में दीवार की तरह साथ खड़े होने वाले पिता का ही हाथ। ऐसे में एक चाय वाला इस अभिनेता को असली कर्कश जिंदगी में उम्मीद बंधाए रखता-वो भी बिना कुछ बोले या कहे।
संजू बाबा की स्मृतियों में वो इंसान कैद हो गया। 1993 से लेकर शायद आज तक। एक इंसान जेल में रोज मुझे चाय देने के लिए आता था। मैं रोज उसे एक टक देखता और कल्पना करता कि काश मैं वो चायवाला बन जाऊं। मस्त घूमते हुए आऊं, चाय दूं और बाहर चला जाऊं, बाहर जहां आजादी थी, जिंदगी थी। यूं ही दिन बीतते गए - सुबह होती और धीरे धीरे शाम ढल जाती, ये शाम संजय दत्त पर सबसे भारी पड़ती। लोगों से घिरे रहने वाले इस अभिनेता को वो वक्त तन्हाई में गुजारना पड़ता। ये वो वक्त था जब जेल की बैरक के दरवाजों पर ताला जड़ दिया जाता। लेकिन उसी वक्त संजू बाबा के कानों में गाने की आवाजें सुनाई पड़तीं। शायद आजू बाजू के कैदियों को उनकी फिक्र थी। ये वो दौर था जब संजय दत्त की कई सुपरहिट फिल्में रिलीज हो चुकी थीं। जेल में शाम 530 बजे रात का खाना दे दिया जाता था और 6 बजते-बजते बैरक के गेट बंद हो जाते। उसके बाद बैरकों में बंद कैदी गाना गाने लगते। कई बार मेरी फिल्मों के ही गाने होते थे। उस वक्त की मेरी फिल्म सड़क के गाने उन्हें पसंद थे, अक्सर वो ही गाते थे। और मैं आंखें बंद कर लेट जाता और बस वो गीत सुनता रहता।
जाहिर है कैद के उन 14 दिनों ने संजय दत्त को एक नया इंसान बना डाला। एक ऐसा इंसान जो शायद पहली बार उस अकेलेपन में खुद अपने आप से मिला जिसने दूसरे इंसानों, उनकी मजबूरियों, उनके जज्बातों को बेहद करीब से देखा। जो अपने परिवार से अलग-अपने ही देश में उनसे जुदा रहा, न सितारों की फौज, न कैमरा न लाइट, यहां तो अंधेरा था - असली, ठंडी सलाखें थीं और आम कैदी की जिंदगी थी। शायद इसी मजबूरी ने संजय दत्त को धर्म की ओर मोड़ दिया। मैं ईश्वर में यकीन रखता हूं, लेकिन मैं व्रत रखना या चालीसा पढ़ने वाला भक्त नहीं था। लेकिन मैंने जेल में शिव चालीसा पढ़ी, अब भी पढ़ता हूं। अब मैं हनुमान चालीसा पढ़ता ही नहीं हूं, हर सोमवार-शनिवार को व्रत भी रखता हूं। इतना ही नहीं मैं हनुमान मंदिर भी जाता हूं। मुझे अब लगता है जैसे मैं पहले से ज्यादा मजबूत हूं। लगता है जैसे कोई मेरी रक्षा कर रहा है अब। लगता है जैस अब मेरे साथ कुछ और बुरा नहीं होगा, लेकिन शायद 1993 के उस दौर में संजय दत्त को इस बात का अहसास तक नहीं था कि बुरे दौर की तो शुरुआत थी, उनकी जिंदगी हिचकोलों से भरी थी और आने वाले बीस सालों तक ये उठापटक जारी रहेगी। मगर, उस वक्त तो संजू बाबा को अपनी मां की याद आती थी - वो पहले 14 दिन जेल में काटकर निकलने के बाद दिए पहले और इकलौते इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा कि अगर मां जिंदा होतीं तो न जाने क्या करतीं।
मां को पता चलता तो बहुत दुख होता उन्हें, वो तो पूरी दुनिया सिर पर उठा लेतीं। उन्होंने मेरे लिए जिंदगी में सब कुछ किया था। वो सीधी-सपाट महिला थीं जो लाग-लपेट नहीं करती थीं। जो कुछ भी बोलतीं मुंह पर बोलती थीं, उन्हें जो लोग पसंद थे वो बस पसंद थे और जो नापसंद वो उनकी नजरों में कभी टिक नहीं सकते थे। कई बार तो वो लोगों को बाहर भगा देतीं थीं और हमें बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी। लेकिन वो ऐसी ही थीं और मेरे पिता तो मेरी प्रेरणा रहे हमेशा। उऩ 14 दिनों में संजय दत्त शायद कई साल बड़े हो गए। वो ऐसा अनुभव था जिसने उन्हें और मजबूत बनाया और शायद और ज्यादा जिम्मेदार, जिम्मेदार अपने अपनों के प्रति, जिम्मेदार अपने परिवार और करियर के प्रति। मैं अपनी किस्मत को दोष नहीं देता हूं। ये नहीं सोचता हूं कि मैं ही क्यों। जो होना है वो तो होगा ही। अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं खुद को किस तरह देखता हूं, तो मैं सिर्फ यही कहूंगा - मैं खुद को संजू बाबा की तरह ही देखता हूं। सिर्फ संजू बाबा। आखिर अंधेरा छंटा और 14 दिन बाद संजय दत्त को बेल मिली और वो जेल से बाहर निकले। बाहर उनकी फिल्मों ‘सड़क’ और ‘साजन’ के गीत बज रहे थे और कुछ वक्त बाद खलनायक के डॉयलॉग धूम मचा रहे थे। खलनायक रिलीज हो गई लेकिन फिल्मी पर्दे में भी इस हीरो पर खलनायक का ठप्पा लग चुका था।
इस लेख को लिखने का मकसद किसी के ज़िन्दगी के उन पहलुओं को दर्शाना था, जिसे वास्तव में सबको जानना चाहिए.! शायद यह सब जानकार उनमें कुछ परिवर्तन आ सके..पढने के लिए शुक्रिया: जीवन एक संघर्ष-'द टीम'!
साभार: आईबीएन-7
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