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Monday, March 25, 2013

अंग्रेजों का वहशीपन और 'शहादत में ही हमारी जीत है: भगत सिंह'


मुंबई। 23 मार्च 1931 को शाम 7.30 बजे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई थी। भगत सिंह की उम्र वक्‍त महज 23 साल थी, लेकिन इतनी सी उम्र में उन्‍हें पता था कि बिखरे हुए भारत को कैसे एकसाथ खड़ा किया जा सकता है। वो हमेशा कहा करते थे,‘हमारी शहादत में ही हमारी जीत है।’ भारत की आजादी के लिए जो वह सोचते थे उस पर उन्‍हें पूरा भरोसा था और उन्‍होंने बिना हिचक अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। ऐसा नहीं था कि उन्‍होंने जोश में ये कदम उठाया था बल्कि वह जानते थे कि उनकी शहादत से ही देश के लिए आजादी का रास्‍ता खुलेगा। भगत सिंह ने महात्‍मा गांधी का सम्‍मान किया, लेकिन कई मामलों पर उनके मतभेद थे ये बात सभी जानते हैं, लेकिन 23 साल के भगत सिंह उस समय अंग्रेजों के लिए महात्‍मा गांधी से भी बड़ी चुनौती बन गये थे। भगत सिंह ने बिना कोई पद यात्रा किए, बिना हजारों लोगों को जुटाए सिर्फ अपने और चंद साथियों के दम अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया था। शायद यही कारण रहा कि अंग्रेजों ने न केवल उन्‍हें फांसी पर चढ़ाया बल्कि उनके शवों को भी क्षत-विक्षत किया और टुकड़ों में शवों को काटकर अधजली हालत में सतलुज नदी में बहाया गया। आइये जानते हैं 23 मार्च 1931 के दिन आखिर क्‍या हुआ था?      

11 घंटे पहले लिया गया फांसी का फैसला

अंग्रेज सरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने का मतलब अच्‍छी तरह से जानती थी। उसे पता था कि इन तीनों नौजवानों को फांसी देने से पूरा देश उठ खड़ा होगा, लेकिन उसे ये भी पता था कि अगर ये तीनों जिंदा रहे तो जेल में बैठे-बैठे ही क क्रांति का बिगुल बजा देंगे, इसलिए भगत सिंह को फांसी देने के लिए पूरा सीक्रेट प्‍लान तैयार किया गया और 23 मार्च यानी फांसी के दिन से सिर्फ 11 घंटे पहले ये तय किया गया कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को कब फांसी देनी है। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उसी दिन फांसी की खबर दी, जिस दिन उन्‍हें फांसी पर चढ़ाया जाना था।

शाम 7.33 बजे दी गई फांसी 

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहे थे। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फांसी का वक्‍त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले -ठीक है अब चलो।

रात के अंधेरे में शवों के साथ वहशियाना सलूक 

अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी खबर को बहुत गुप्‍त रखा था, लेकिन फिर भी ये खबर फैल गई और लाहौर जेल के बाहर लोग जमा होने लगे। अंग्रेज सरकार को डर था कि इस समय अगर उनके शव परिवार को सौंपे गए तो क्रांति भड़क सकती है। ऐसे में उन्‍होंने रात के अंधेरे में शवों के टुकड़े किये और बोरियों में भरकर जेल से बाहर निकाला गया। शहीदों के शवों को फिरोजपुर की ओर ले जाया गया, जहां पर मिट्टी का तेल डालकर इन्‍हें जलाया गया, लेकिन शहीद के परिवार वालों और अन्‍य लोगों को इसकी भनक लगी तो वे उस तरफ दौड़े जहां आग लगी दिखाई दे रही थी। इससे घबराकर अंग्रेजों ने अधजली लाशों के टुकड़ों को उठाया और सतलुज नदी में फेंककर भाग गये। परिजन और अन्‍य लोग वहां आए और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों को टुकड़ों को नदी से निकालाकर उनका विधिवत अंतिम संस्‍कार किया।

शहादत के बाद भड़की चिंगारी 

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की खबर को मीडिया ने काफी प्रमुखता से छापा। ये खबर पूरे देश में जंगल की आग तरह फैल गई। हजारों युवाओं ने महात्‍मा गांधी को काले झंडे दिखाए। सच पूछें तो देश की आजादी के लिए आंदोलन को यहीं से नई दिशा मिली, क्‍योंकि इससे पहले तक आजादी के कोई आंदोलन चल ही नहीं रहा था। उस वक्‍त तो महात्‍मा गांधी समेत अन्‍य नेता अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, लेकिन भगत सिंह पूर्ण स्‍वराज की बात करते थे, जिसे बाद में गांधी जी ने भी अपनाया और हमें आजादी मिल सकी।

साभार: हिंदी.इन.कॉम

Friday, March 22, 2013

‘खलनायक’ की जिंदगी वो 14 रातें, जो...


मुंबई। बात उन 14 दिनों की है, जब पहली बार संजय दत्त जेल गए थे। बॉलीवुड स्टार संजय दत्त को लगा कि जैसे जिंदगी बस खत्म हो गई है। जेल की एक छोटी सी खिड़की से बाहर वो आखिर क्या देखते थे और क्यों जेल में चाय वाले से संजय दत्त रश्क करते थे। 1981 में संजू बाबा की पहली फिल्म रॉकी जब रिलीज हुई तो रिलीज से तीन दिन पहले ही उनकी दोस्त उनकी मां नरगिस इस दुनिया को अलविदा कह गईं। अल्हड़ जिंदगी- हथियारों से लगाव-बिगड़ैलपना, लेकिन फिर भी चेहरे पर मासूमियत। जो भी हो इस फिल्मी खलनायक की जिंदगी उन 14 दिनों में बदल गई जब उसे पहली बार फिल्मी जेल नहीं असली जेल देखी-जब लाइट-कैमरा-एक्शन के बगैर उन्हें सलाखों के पीछे रात-दिन काटने पड़े। जब पहली बार संजय दत्त जेल गए।
1993 में विदेश में शूटिंग से लौटती ही वो पहले 14 दिन जैसे नर्क की तरह थे। एक इंटरव्यू में संजय दत्त ने उस नर्क को पूरी बारीकी के साथ जैसे दोबारा जिया। मुझे बेल नहीं मिलने का बेहद अफसोस था, यकीन नहीं हो रहा था, मैं टूट गया था भीतर तक। वो कुछ घंटे लगा जैसे मेरी जिंदगी खत्म हो गई थी। लगता था जैसे किसी भी तरह इन सलाखों के पीछे से निकल आऊं। संजय दत्त भले ही जिंदगी में अकेलेपन के शिकार रहे हों, और शायद इसी तन्हाई से लड़ने के लिए उन्होंने तीन शादियां कीं। लेकिन अपने पिता के साये से अलग - जेल की कोठरी में अकेले रात दिन रहना - उन्हें भीतर तक हिला गया। इसीलिए सलाखें जैसे काटने लगीं थीं। आसपास घूमते फिरते लोगों को देखकर जैसे संजय दत्त की सासें चलती थीं। मायूसी के अंधेरे में वो डूबने लगे और उसी वक्त रौशनी की किरण जेल की कोठरी में मौजूद एक छोटी सी खिड़की से आई।
संजू जैसे उस एक खिड़की की बलायें लेते हैं। एक छोटी सी खिड़की थी वहां। वहां से आते-जाते लोग दिखते थे मुझे। आती-जाती कारें, एक दुकान से दूसरी दुकान की ओर भागते लोग, खरीदारी करते लोग, उस वक्त यकीनन ये अहसास हुआ कि आजादी क्या होती है। एक ऐसा अभिनेता जो सुबह नींद से उठने से लेकर रात में सोने तक लोगों से घिरा रहता, जिसके नखरे उठाए जाते, जिसे बेतरह लाड पाने की आदत पड़ चुकी थी, उस इंसान को अब एक छोटी सी खिड़की जैसे जिंदगी दे रही थी। शायद इसीलिए संजय दत्त के करीबी उन्हें कभी पीटर पैन कहते जिसमें लड़कपन था। शोखी थी तो कभी एंग्री मैन कहते जो बिगड़ता था तो बस खुद का ही नुकसान करने पर आमादा हो जाता। लेकिन यहां जेल के भीतर न कोई पूछने वाला न कोई परखने वाला। न हर मुश्किल में दीवार की तरह साथ खड़े होने वाले पिता का ही हाथ। ऐसे में एक चाय वाला इस अभिनेता को असली कर्कश जिंदगी में उम्मीद बंधाए रखता-वो भी बिना कुछ बोले या कहे।
संजू बाबा की स्मृतियों में वो इंसान कैद हो गया। 1993 से लेकर शायद आज तक। एक इंसान जेल में रोज मुझे चाय देने के लिए आता था। मैं रोज उसे एक टक देखता और कल्पना करता कि काश मैं वो चायवाला बन जाऊं। मस्त घूमते हुए आऊं, चाय दूं और बाहर चला जाऊं, बाहर जहां आजादी थी, जिंदगी थी। यूं ही दिन बीतते गए - सुबह होती और धीरे धीरे शाम ढल जाती, ये शाम संजय दत्त पर सबसे भारी पड़ती। लोगों से घिरे रहने वाले इस अभिनेता को वो वक्त तन्हाई में गुजारना पड़ता। ये वो वक्त था जब जेल की बैरक के दरवाजों पर ताला जड़ दिया जाता। लेकिन उसी वक्त संजू बाबा के कानों में गाने की आवाजें सुनाई पड़तीं। शायद आजू बाजू के कैदियों को उनकी फिक्र थी। ये वो दौर था जब संजय दत्त की कई सुपरहिट फिल्में रिलीज हो चुकी थीं। जेल में शाम 530 बजे रात का खाना दे दिया जाता था और 6 बजते-बजते बैरक के गेट बंद हो जाते। उसके बाद बैरकों में बंद कैदी गाना गाने लगते। कई बार मेरी फिल्मों के ही गाने होते थे। उस वक्त की मेरी फिल्म सड़क के गाने उन्हें पसंद थे, अक्सर वो ही गाते थे। और मैं आंखें बंद कर लेट जाता और बस वो गीत सुनता रहता।
जाहिर है कैद के उन 14 दिनों ने संजय दत्त को एक नया इंसान बना डाला। एक ऐसा इंसान जो शायद पहली बार उस अकेलेपन में खुद अपने आप से मिला जिसने दूसरे इंसानों, उनकी मजबूरियों, उनके जज्बातों को बेहद करीब से देखा। जो अपने परिवार से अलग-अपने ही देश में उनसे जुदा रहा, न सितारों की फौज, न कैमरा न लाइट, यहां तो अंधेरा था - असली, ठंडी सलाखें थीं और आम कैदी की जिंदगी थी। शायद इसी मजबूरी ने संजय दत्त को धर्म की ओर मोड़ दिया। मैं ईश्वर में यकीन रखता हूं, लेकिन मैं व्रत रखना या चालीसा पढ़ने वाला भक्त नहीं था। लेकिन मैंने जेल में शिव चालीसा पढ़ी, अब भी पढ़ता हूं। अब मैं हनुमान चालीसा पढ़ता ही नहीं हूं, हर सोमवार-शनिवार को व्रत भी रखता हूं। इतना ही नहीं मैं हनुमान मंदिर भी जाता हूं। मुझे अब लगता है जैसे मैं पहले से ज्यादा मजबूत हूं। लगता है जैसे कोई मेरी रक्षा कर रहा है अब। लगता है जैस अब मेरे साथ कुछ और बुरा नहीं होगा, लेकिन शायद 1993 के उस दौर में संजय दत्त को इस बात का अहसास तक नहीं था कि बुरे दौर की तो शुरुआत थी, उनकी जिंदगी हिचकोलों से भरी थी और आने वाले बीस सालों तक ये उठापटक जारी रहेगी। मगर, उस वक्त तो संजू बाबा को अपनी मां की याद आती थी - वो पहले 14 दिन जेल में काटकर निकलने के बाद दिए पहले और इकलौते इंटरव्यू में उन्होंने साफ कहा कि अगर मां जिंदा होतीं तो न जाने क्या करतीं।
मां को पता चलता तो बहुत दुख होता उन्हें, वो तो पूरी दुनिया सिर पर उठा लेतीं। उन्होंने मेरे लिए जिंदगी में सब कुछ किया था। वो सीधी-सपाट महिला थीं जो लाग-लपेट नहीं करती थीं। जो कुछ भी बोलतीं मुंह पर बोलती थीं, उन्हें जो लोग पसंद थे वो बस पसंद थे और जो नापसंद वो उनकी नजरों में कभी टिक नहीं सकते थे। कई बार तो वो लोगों को बाहर भगा देतीं थीं और हमें बड़ी शर्मिंदगी महसूस होती थी। लेकिन वो ऐसी ही थीं और मेरे पिता तो मेरी प्रेरणा रहे हमेशा। उऩ 14 दिनों में संजय दत्त शायद कई साल बड़े हो गए। वो ऐसा अनुभव था जिसने उन्हें और मजबूत बनाया और शायद और ज्यादा जिम्मेदार, जिम्मेदार अपने अपनों के प्रति, जिम्मेदार अपने परिवार और करियर के प्रति। मैं अपनी किस्मत को दोष नहीं देता हूं। ये नहीं सोचता हूं कि मैं ही क्यों। जो होना है वो तो होगा ही। अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं खुद को किस तरह देखता हूं, तो मैं सिर्फ यही कहूंगा - मैं खुद को संजू बाबा की तरह ही देखता हूं। सिर्फ संजू बाबा। आखिर अंधेरा छंटा और 14 दिन बाद संजय दत्त को बेल मिली और वो जेल से बाहर निकले। बाहर उनकी फिल्मों ‘सड़क’ और ‘साजन’ के गीत बज रहे थे और कुछ वक्त बाद खलनायक के डॉयलॉग धूम मचा रहे थे। खलनायक रिलीज हो गई लेकिन फिल्मी पर्दे में भी इस हीरो पर खलनायक का ठप्पा लग चुका था।

इस लेख को लिखने का मकसद किसी के ज़िन्दगी के उन पहलुओं को दर्शाना था, जिसे वास्तव में सबको जानना चाहिए.! शायद यह सब जानकार उनमें कुछ परिवर्तन आ सके..पढने के लिए शुक्रिया: जीवन एक संघर्ष-'द टीम'!
साभार: आईबीएन-7

Monday, March 11, 2013

'ह्यूगो शावेज, जिसने बदल डाली दक्षिणी अमरीकी इतिहास की धारा'


गहरे शोक और दु:ख के साथ सारी दुनिया ने ह्यूगो शावेज फ्रिआस के निधन की खबर सुनी है। दो वर्ष से ज्यादा कैंसर से लड़ने के बाद अंतत: 5 मार्च को वेनेजुएला की राजधानी कराकास में इस घातक रोग ने उनके प्राण ले लिए। दुनिया भर की प्रगतिशील ताकतों ने एक ऐसा करिश्माई नेता खो दिया है जिसने पिछले दशकों में इतिहास की धारा को और खासतौर पर लातीनी अमरीका में इतिहास की धारा को बदला था। उन्होंने व्यवहार में यह दिखाया था कि खुद पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में भी, नवउदारवाद का और आर्थिक नीतियों की उसकी दिशा का विकल्प हो सकता है। और उन्होंने यह अमरीका के पिछवाड़े में कर दिखाया था और इस तरह वर्चस्व की उसकी मुहिम को विचारधारात्मक सतह पर भी और आर्थिक सतह पर भी, चुनौती दी थी। इस सिलसिले में उनका भावपूर्ण तरीके से समाजवाद के रास्ते पर चलना खासतौर पर महत्वपूर्ण है। उनका विश्वास था कि वह जिन जनहितकारी तथा साम्राज्यवादविरोधी नीतियों को लागू कर रहे थे, समाजवाद की ओर ले जाएंगी। अपनी अंतिम सांस तक वह क्यूबाई क्रांति और उसकी उपब्धियों से प्रेरणा ले रहे थे।
 ह्यूगो शावेज ने उदाहरण कायम करने के जरिए लातिनी अमरीका में राजनीतिक प्रक्रियाओं पर गहरा असर डाला था। इसके नतीजे में ही तमाम लातिनी अमरीकी देशों में साम्राज्यवादविरोधी जनउभार सामने आया है। बोलीविया में इवो मोरालेस की जीत ने खासतौर पर शावेज के हाथ मजबूत किए थे और क्यूबा के साथ मिलकर उन्होंने लातिनी अमरीका के मूलगामी प्रगतिशील रूपांतरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया था। इसका नतीजा लातिनी अमरीकी देशों के बहुमत में चुनावों में प्रगतिशील, अमरीकीसाम्राज्यवादविरोधी ताकतों की जीत के रूप में सामने आया है। शावेज ने विश्व मंचों, विश्व व्यापार संगठन, पर्यावरण परिवर्तन मंच आदि पर, विकसित देशों के बोलबाले के खिलाफ लड़ाई के लिए विकासशील देशों को गोलबंद करने में सक्रिय भूमिका अदा की थी और ब्रिक्स, इब्सा नाम आदि विकासशील देशों के संगठनों के स्तर पर उनसे सक्रिय रूप से सहयोग किया था। इस तरह वह दुनिया के पैमाने पर साम्राज्यवादविरोध का प्रतीक बन गए थे।
 ह्यूगो शावेज ने स्पष्ट रूप से यह पहचाना था कि वेनेजुएला में उनसे पहले एक के बाद एक जो सरकारें आयी थीं, उनकी लागू की नवउदारवादी नीतियां ही, जनता को बड़े पैमाने पर वंचित रखे जाने के लिए जिम्मेदार थीं। इन नीतियों के खिलाफ विरोध की आवाजों को जिस नृशंसता से दबाया जाता था, इसका भी उनके रुख पर गहरा असर पड़ा था। वेनेजुएला का राष्ट्रपति चुने जाने के बाद, शावेज ने करीब-करीब पहला ही काम यह किया था कि उन्होंने संविधान सभा के चुनाव के लिए कदम उठाए, ताकि देश के लिए एक नया, जनहितकारी संविधान तैयार किया जा सके। समाज के वंचित तबकों को अधिकारसंपन्न बनाने वाले इस बोलीवारीय संविधान से लैस होकर, शावेज अपने देश की जनता की जिंदगी संवारने के काम में जुट गए। इस सिलसिले में एक महत्वपूर्ण काम उन्होंने यह किया कि वेनेजुएला के तेल व गैस उत्पादन का राष्ट्रीयकरण कर दिया। शावेज ने किया यह कि उन्होंने देश की तेल उत्पादक कंपनी पीडीवीएसए से आने वाला पैसा, विभिन्न समाज कल्याण कार्यक्रमों की ओर मोड़ दिया। दूसरे शब्दों में उन्होंने राष्ट्रीय संपदा का देशवासियों के हित पूरे करने के लिए इस्तेमाल सुनिश्चित किया। और जब धनपति घरानों ने, जिनकी आर्थिक ताकत का मुख्य स्रोत ही इस तरह सूख गया था तोड़फोड़ का रास्ता अपनाया, शावेज ने सफलता के साथ सरकार के कदमों के पक्ष में मजदूरों को गोलबंद किया। पुन: जनता के बीच शावेज की लोकप्रियता का ही कमाल था, शावेज का तख्तापलट करने की साजिश रचने वालों को अपने पांव पीछे खींचने पड़े और और उन्हें विफल तख्तापलट के बाद दोबारा राष्ट्रपति बनाया गया।
 नौकरशाहीपूर्ण शासकीय तंत्र के शिकंजे को तोड़ने के लिए और भागीदारीपूर्ण जनतांत्रिक व्यवस्था के तहत जनता की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए, शावेज ने विशेष कार्यक्रमों का विकास किया, जिन्हें 'मिशन' का नाम दिया गया। वेनेजुएला के साधारण नागरिकों की चिंता के विभिन्न क्षेत्रों को लेकर 19 से ज्यादा मिशन शुरू किए गए।
 इन मिशनों का स्वास्थ्य तथा शिक्षा के क्षेत्रों में खासतौर पर जबर्दस्त असर दिखाई दिया। 2006 तक वेनेजुएला से निरक्षरता पूरी से मिटाई जा चुकी थी। समाजवादी क्यूबा ही लातिनी अमरीका का ऐसा दूसरा देश है, जो इस लक्ष्य को हासिल कर पाया है। क्यूबा के डाक्टरों की मदद से शावेज ने अपने देश में सभी नागरिकों लिए बुनियादी स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित कीं। इसी प्रकार, इन मिशनों के माध्यम से ही उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों तथा संकट के दौर में भी, आम जनता को सस्ता खाद्यान्न हासिल हो। पिछले ही साल वेनेजुएला की सरकार ने एक सचमुच क्रांतिकारी कानून बनाया था, जिसके तहत मजदूरों को बहुत सारे अधिकार दिए गए थे। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस 1 मई पर मजदूरों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए हर साल न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोतरी किए जाने की व्यवस्था लागू की गयी है, फिर भी शावेज को इसका भी एहसास था कि मजदूर वर्ग की जिंदगियों का रूपांतरण करने के लिए इसके बाद भी बहुत कुछ करने को रहता था। वेनेजुएला के देहात के मामले में भी शावेज ने भूमि सुधार को लागू कराने तथा भूमि इजारेदारियों को तोड़ने के लिए कदम उठाए थे। भूस्वामी वर्ग के भारी विरोध के बावजूद, उन्होंने भूमि सुधार कानून लागू कराया था।
 शावेज ने इस सचाई को पहचाना था कि आवास की कमी और अपराध, दो ऐसी गंभीर समस्याएं हैं जिनका वेनेजुएला को सामना करना पड़ रहा था। असहयोगपूर्ण रुख अपना रही नौकरशाही द्वारा खड़ी की जा रही मुश्किलों को वह पहचान रहे थे और नौकरशाही का भी रूपांतरण करना चाहते थे ताकि इसे मजदूर वर्ग तथा समाज के वंचित तथा दबे हुए तबकों के हितों को आगे बढ़ाने के अनुकूल ढाला जा सके।
 ह्यूगो शावेज एक पक्के साम्राज्यवादविरोधी थे। वह विकासशील देशों के हितों के पैरोकार थे। उनकी बराबर यह कोशिश रहती थी कि विकासशील देशों के बीच रिश्ते बढ़ें। वह दक्षिण-दक्षिण सहयोग को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाने के लिए काम करते थे। अमरीका ने ''प्लान कोलंबिया'' के नाम से इसकी योजना बनायी थी कि समूचे लातीनी अमरीका पर उसके प्रभुत्व और उसके द्वारा आगे बढ़ायी जा रही नवउदारवादी नीतियों का दबदबा थोपा जाए। इसकी काट करने के लिए, क्यूबा के साथ मिलकर शावेज ने एल्बा यानी लातिनी अमरीका के लिए बोलीवारीय विकल्प को आगे बढ़ाया था। लातिनी अमरीकी देशों के इन रिश्तों को आगे बढ़ाने के लिए विकासशील दुनिया के बैंक की स्थापना करने और समूचे क्षेत्र के एक ही मुद्रा, सुक्रे को चलाने के लिए, जो शावेज का सपना था, इन देशों की बहुत सारी बैठकें अब तक हो भी चुकी हैं।
 साम्राज्यवाद व वित्तीय पूंजी की उनकी तीखी आलोचना और विकासशील देशों के संसाधनों पर नियंत्रण हथियाने के लिए उनके छेड़े लूट के युद्धों की उनकी तीव्र भर्त्सना, संयुक्त राष्ट्र संघ में उनके चर्चित भाषण में सामने आयी थी, जो उन्होंने जार्ज बुश के फौरन बाद दिया था। अपने भाषण में साम्राज्यवाद को शैतान करार देते हुए, उन्होंने इस विश्व मंच से विश्व व्यवस्था को जनतांत्रिक बनाए जाने के लिए आवाज उठायी थी और अपना वर्चस्व थोपने की साम्राज्यवाद की कोशिशों की भर्त्सना की थी।
 शावेज के निधन से ऐसा शून्य पैदा हुआ है, जिसे भरना संभव नहीं है। फिर भी उनकी विरासत एक ऐसी पूंजी है जो दुनिया भर में साम्राज्यवादविरोधी जनउभारों को प्रेरित करती रहेगी तथा उत्साहित करती रहेगी। ये बढ़ते संघर्ष ही विश्व जनगण के विशाल बहुमत के मुक्तिदाता के रूप में समाजवाद की शावेज की कल्पना का जमीन पर उतरना सुनिश्चित करेंगे। इन संघर्षों को मजबूत करना ही ह्यूगो शावेज के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
 यही संकल्प कराकास में दिखाई दिया है, जहां ''शावेज अमर हैं, संघर्ष जारी है'' के नारों के साथ हजारों लोग सड़कों पर निकल आए और उन्होंने यह कसम ली कि वेनेजुएला का पूंजीपति वर्ग मीराफ्लोरेस पैलेस में ''दोबारा कभी नहीं लौटेगा''। शावेज के उत्तराधिकारी (चुनाव अगले महीने होने हैं) उपराष्ट्रपति निकोलस मडुरो ने कहा है: ''हम जो शावेज के प्रति वफादार हैं, अपनी जिम्मेदारियां निभाते रहेंगे, जिससे जनता का एक भी कार्यक्रम रुके नहीं। हमारी जनता को देश की पूंजीवादी लूट दोबारा कभी भी नहीं झेलनी पड़ेगी।'' मडुरो ने आगे यह भी जोड़ा : ''जनता और शावेज के साथ दगा करने से तो मर जाना बेहतर है।''

                                                                      सीताराम येचुरी..साभार: देशबंधु
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