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Saturday, October 4, 2014

यूं ही नहीं मुस्कराते हम बेवजह..

यूं ही नहीं मुस्कराते हम
बेवजह.. पता है।
उसके लिए निकली आह भी
दूरियों को खींचती लकीर बन जाती है
वो खुश है, किसी के झूठ को सच समझ
हम ही बेचैन हैं उसकी यादों संग
तभी तो कहीं भी
यूं गुमसुम हो बैठ
जैसे फ़कीर बन जाते हैं...
यूँ तो गुजारी है जिंदगी हमने
इश्क की तड़प में ही
नहीं चाहा..उसे पास रखना
वरना रकीब ही बन जाते
क्योंकि आदत है हमें... दुश्मनों को पास रखने की
ऐसा ही हूं मैं

Friday, October 3, 2014

लड़ाइयां ...Fights

श्रवण शुक्ल
बचपन में लड़ाइयां तो खेल का हिस्सा थी
स्कूल में गए तो सहपाठियों से लड़ाई
घर आये तो भाई से लड़ाई
पड़ोस में गए तो पडोसी से लड़ाई
गांव में गए तो गांववालों से लड़ाई
बाजार गए तो लड़ाई
मेले में गए तो लड़ाई
लेकिन उन लड़ाइयों में भी प्यार था
कभी भाई के लिए लड़ाई
तो कभी दोस्त के लिए लड़ाई
कभी मम्मी की कसम पे लड़ाई तो कभी गुरुजी को लेकर लड़ाई
कभी जिसे अपना मान लिया उसके लिए लड़ाई
तो कभी दुश्मन के लिए भी लड़ाई
कि कैसे मेरे दुश्मन को किसी और ने मार दिया।
वो भी क्या दिन थे..
जब मोहब्बत हर मोड़ पर हो जाया करती थी
और सच्ची दोस्ती भी
आज भी सब मिलते हैं
लेकिन अब वो प्यार कहाँ
दोस्तों में गर्मजोशी कहां
अब तो मोहब्बत भी अच्छे-बुरे का तोल- मोल करती है
इसीलिए सुन लो दुनियावालों
अकेले रहता हूँ.. इसी में खुश हूं..
पता है क्यों?
खुशियों से नफरत जो हो गई है
और बचपन की आदत है..दुश्मन को करीब रखने की
ऐसा ही हूँ मैं।
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