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Monday, September 7, 2015

आरक्षण: सिख और पारसी समाज से सीख लेने की जरुरत

हम आज कुछ और सुनें न सुने "आरक्षण" शब्द खूब सुन रहे है। देश में जहां देखो वहीँ आरक्षण को लेकर बात-चीत,चर्चा विवाद चरम स्तर पर शुरू है। अखबारों से लेकर मैगजीनों तक,इंटरनेट से लेकर टेलीविज़न चैनलों तक..हर जगह। इसमें भी कोई पटेल जाति को लेकर आरक्षण चाह रहा है तो कोई जाट समुदाय को लेकर,कोई मुस्लिम समुदाय को लेकर आरक्षण चाह रहा है तो कोई बैंसला समुदाय को लेकर! आंदोलन तक हो रहें है आज तो बड़े स्तर पर! ऐसा लगता है जैसे आरक्षण एक अधिकार न होकर एक अध्याय ही बन गया है।लगता है जैसे एक इतिहास लौट कर आ रहा है।
ज्ञानरंजन झा, युवा पत्रकार


इसकी सबसे पहली वजह ये है कि इसका इतिहास पुराना है। आरक्षण के इतिहास पर नज़र डालें तो ये बात सामने आती है कि इसे एक छोटे स्तर पर प्रयोग के तौर पर शुरू किया गया था। इसे लेकर आज़ादी तक बहुत आंदोलन भी हुए। अम्बेडकर जी को इस शब्द को प्रचलित करने का श्रेय भी जाता है। दूसरी वजह ये है कि ये बात एक समुदाय विशेष यानी कम्युनिटी के हित से जुडी है इसलिए भी इस पर ज्यादा दवाब से बात होती है। अगर किसी विशेष समुदाय को अधिकार ज्यादा मिले तो समझिये आरक्षण का फेर है। लाभ हर स्थान पर प्राप्त होता है इसलिए यह अधिकार कारगर माना जाता है निजी हितों के लिए।

पर जब आरक्षण पर ज्यादा बात होती ही है तब हम उस समय हर बार ये सोचना क्यों भूल जाते है कि जो 'समुदाय' आज सच मायनों में आरक्षण के हकदार है जब वो इसकी मांग नहीं कर रहे तो आखिर दूसरे क्यों इस पर जबरन अड़े है?

हम ये इतिहास जरूर जानना चाहिए कि जब अंग्रेज देश छोड़ कर जा रहे थे तब उन्होंने पार्लियामेंट के सामने ये प्रस्ताव दिया था कि पारसी समाज को अल्पसंख्यक होने के नाते इस दायरे में रखा जाये मगर पारसियों ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने कहा कि अपने ही मुल्क ईरान से अलग होने के बाद जिस देश ने हमें हज़ारों वर्षों तक संभाला वहाँ हम अपने लिए आरक्षण की मांग कैसे कर सकते हैं। उन्होंने अंग्रेजों से इतना ही कहा था कि आप बस ये मुल्क छोड़ कर चले जाइए हमें आरक्षण की कोई जरुरत नहीं है।

ठीक यही हाल सिख समुदाय का भी है,वो भी देश में कभी आरक्षण को लेकर शोर मचाते नहीं दिखाई पड़ते। ये लोग चाहते तो आज तक बहुत कुछ मांग सकते थे देश से।

होता ये है कि आरक्षण को लेकर सबसे ज्यादा तेज़ी उन्हें ही होती है जिनके पास आज अपने ऊपर कोई उम्मीद नहीं है। वो बस इसी के सहारे टिके हैं। मेहनत आज उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने में नाकाम है।

सबसे रोचक पहलु ये है कि क्या हम इन पारसियों और सिख समुदायों से सीख नहीं ले सकते! क्या हम ये नहीं सोच सकते कि जब ये इतनी कम तादाद में होकर भी आरक्षण नहीं मांग रहे तो दूसरे क्यों इसकी चाह में हैं?  ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आरक्षण के लिए चीख-पुकार करने वालों को ये दिखाई नहीं देते, देते तो जरूर होंगे मगर फिर भी ये नहीं सीखते और ख़ास बात ये कि इस आरक्षण के खत्म होने से जब बहुत सारे मुद्दे सुलझ सकते है फिर आखिर ये क्यों बंद नहीं होता ?

हम आज काबिलियत पर भरोसा करना क्यों भूलते जा रहे हैं। हर एक इंसान के अंदर काबिलियत होती है बस उसका मापन उसी से होना चाहिए। जाति और धर्म के नाम पर बटवारा आखिर कितनी देर तक चलेगा?  माना परिस्थितियां उस वक़्त इसके माकूल थी मगर अब तो बदलाव आ गया है ना ! हमें इस पहलु को समझना चाहिए। हम देश को विकासशील होते नहीं देख सकते हमें इसे विकसित बनाना है। ऐसे में जरुरी है ये पूर्ण रूप से खत्म हो। जब मुद्दा अस्तित्व में ही नहीं रहेगा तो लोग मांग ही नहीं करेंगे।ये तुरंत नहीं हो सकता मगर इसके लिए एक मजबूत एवं बड़ा प्रयास तो हो ही सकता है न!

इसके लिए इस मुद्दे का गैर-राजनीतिकरण होना सबसे आवश्यक है।इसकी ही वजह से आज तक ये मुद्दा बड़ा फुला-फला है।अपने फायदे के लिए इस शब्द का खूब इस्तेमाल हुआ है।ये जहाँ खत्म हुआ समझिये आरक्षण खत्म।

एक बात ये कि माना हम आज की परिस्थितयों से सीख नहीं ले सकते मगर इतिहास से तो ले सकते है न ! इसलिए हमें सीख लेनी चाहिए।आरक्षण जैसे मुद्दे का हल होना बहुत जरुरी है आज देश में ! इसे खात्मे के बाद देश जरूर एक नए उजाले का सवेरा देखेगा।

युवा ज्ञानरंजन झा जुझारू पत्रकार हैं। पढ़ाई के साथ ही समसामयिक मुद्दों पर की-बोर्ड घिसते ही रहते हैं। ज्ञानरंजन से फेसबुक(क्लिक करें) पर भी संपर्क किया जा सकता है।

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