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Saturday, November 9, 2013

राजेंद्र यादव को बागी लेखिका का प्रणाम


राजेंद्र यादव के साथ तसलीमा नसरीन व अन्य

राजेंद्र यादव नहीं रहे. सोचकर हैरानी होती है कि वे अब नहीं हैं. दो-चार दिन पहले तक वह इंसान हमारे बीच था. कुछ ही दिन पहले वह मेरे घर पर चंद दोस्तों के साथ अड्डा जमाकर गए थे. एक मैरून रंग का कुर्ता और झीनी सफेद धोती पहनकर आए थे. उम्र बढऩे पर लोग अकसर रंगीन कपड़े पहनना छोड़ देते हैं, पर राजेंद्र जी ने ऐसे संस्कार कभी नहीं माने. वे हमेशा चटख हरे, लाल, नीले या बैंगनी रंग के कपड़े पहनते थे. उस दिन मेरे घर पर उन्होंने शराब पी, खाना खाया, गप्पें लड़ाईं.

लोग कहते थे कि वे बहुत बीमार चल रहे हैं पर मैंने उन्हें कभी बीमार नहीं देखा. उन्हें डायबिटीज था. हजारों लोगों को होता है पर उनकी शुगर अनियंत्रित नहीं थी. जैसे आम तौर पर लोग शराब या खाना देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, वे इस तरह कभी नहीं खाते-पीते थे. उनमें असाधारण संयम था. जहां भी रहें, बाहर या घर पर, कितना पीना है, कितना खाना है, कब इन्सुलिन लेना है, सिगरेट के कितने कश लगाने हैं, कब सोना है, सब बिल्कुल घड़ी के कांटे की तरह तय था.

देखकर बड़ी हैरानी होती थी. इतना नियम मानकर चलना बहुत कम लोगों से ही हो पाता है. एक सिगरेट के दो टुकड़े करने के बाद वे आधा टुकड़ा पीते थे. कई बार उनसे पूरी सिगरेट पीने के लिए कहा. ये कहकर कि कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, पर उन्होंने आधे टुकड़े से ज्यादा कभी नहीं पी. उनके फेफड़ों को लेकर सब जितनी दुश्चिंता करते थे, क्या उनके फेफड़े सचमुच उतने खराब हो चुके थे? जब भी उनसे पूछती थी, ‘‘तबीयत कैसी है?’’ वे कहते, ‘‘बहुत बढिय़ा.’’ तबीयत खराब है या फलां रोग से परेशान हैं, ऐसी बातें वे कभी अपने मुंह पर नहीं लाते थे.

एक बार उनके मयूर विहार के घर उन्हें देखने गई थी. पता चला हर्निया हुआ है, लेटे हुए हैं. वे लेटे-लेटे ही बातें करते रहे, जिंदगी के किस्से सुनाते रहे. बीमारी को लेकर हाय-हाय करना, अवसाद में घिरे रहना, यह सब राजेंद्र जी में बिल्कुल नहीं था. हमेशा हंसते रहते थे. जिंदा रहने में उन्होंने कोई कोताही नहीं की. उनकी उम्र 84 साल थी. अभी और जिंदा रह सकते थे पर मैसिव हार्ट अटैक होने पर और क्या किया जा सकता है! कोई भी चला जाता है. सबसे अच्छी बात जो हुई, वह यह कि राजेंद्र जी को ज्यादा भुगतना नहीं पड़ा. दिनोदिन, सालो-साल बिस्तर पर पड़े-पड़े कराहना नहीं पड़ा. शुक्र है, वैसा दुरूसह जीवन राजेंद्र जी को नहीं मिला.

जिस रात उनका देहांत हुआ, उस रात साढ़े तीन बजे मैं उनके घर पहुंची. मैंने देखा कि बाहर ड्राइंग रूम में जहां सोफा रखा रहता था, वहां एक अद्भुत से इस्पात के डिब्बे में वे लेटे हुए हैं. उनकी बेटी रचना पास ही कुर्सी पर बैठी रो रही थी. मैं बड़ी देर स्तब्ध खड़ी उनकी निस्पंद देह को देखती रही. राजेंद्र जी को कभी सोते हुए नहीं देखा था. लग रहा था कि वे सो रहे हैं. फिर लगा कि जैसे उनकी सांस चल रही हो. लगातार बहुत देर तक देखती रही. अगर जरा भी उनके सांस लेने का आभास मिल जाए तो!

इतनी यथार्थवादी होने के बावजूद भी मैं आज भी मौत को मान नहीं पाती हूं. मेरी मां मेरे सामने गुजरी थीं. पिताजी की मृत्यु के समय मैं वहां नहीं थी. मेरे देश की सरकार ने पिताजी के आखिरी समय में उन्हें एक बार देखने के लिए भी मुझे नहीं जाने दिया. राजेंद्र जी जिस तरह लेटे हुए थे, हो सकता है मेरे पिताजी भी वैसे ही लेटे हुए हों. लग रहा था कि शायद वे सो रहे हैं. जैसे अचानक शोर-शराबे से वे जाग जाएंगे.

लेकिन मेरे पिताजी नींद से नहीं जगे. राजेंद्र जी भी नींद से नहीं जगे. हम लोग जो जिंदा हैं, जो अभी राजेंद्र जी के लिए शोकग्रस्त हैं, एक दिन इसी तरह हम सब भी मर जाएंगे. पर हममें से कितने लोग जी पाएंगे, राजेंद्र जी जैसा विविध जीवन.

वे हमेशा अपने घर पर बौद्धिक लोगों की महफिल जमाते थे. उस महफिल में हर उम्र की महिला व पुरुष होते. वे प्रतिभावान नौजवान और नवयुवतियों के साथ समय गुजारते थे. जिनके साथ वे विचारों का आदान-प्रदान करते, उन्हें लिखने का उत्साह देते थे. वे औरतों के जीवन के अनुभवों को, उनके प्रतिवादों को, उनके नजरिए और उनकी भाषा को ज्यादा महत्व देते थे. वे अंधेरों को टटोलकर हीरों के छोटे-छोटे टुकड़े बीन लाते थे.

बंगाल से खदेड़ दिए जाने के बाद जबसे मैंने स्थायी तौर पर दिल्ली में रहना शुरू किया, जब बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं ने डर के मारे अपने आपको सिमटाकर संकुचित कर लिया. सिवा मेरे सबको छपने का अधिकार था, यहां तक कि जनसत्ता ने भी जब मेरे लेखों को बहुत पैना कहकर खारिज कर दिया, तब राजेंद्र जी ने मुझे अपनी पत्रिका हंस के लिए नियमित रूप से लिखने के लिए कहा. उन्होंने मुझे दूसरे संपादकों की तरह कभी नहीं कहा कि धर्म की निंदा करना, सरकार को बुरा-भला कहना, भारतीय परंपराओं को हेय बताना या धर्म व्यवसायी बाबाओं के बारे में कटु बातें कहना नहीं चलेगा. किसी भी विषय में, कुछ भी लिखने की स्वतंत्रता दी थी राजेंद्र जी ने मुझे. दूसरी पत्रिकाओं के संपादक अरे-रे-रे कहकर भाग जाते हैं. धर्म की किसी भी तरह की आलोचना कोई नहीं बर्दाश्त करता है. लेख काट देते हैं, नहीं तो सेंसर की कैंची चलाकर सत्यानाश कर देते हैं. राजेंद्र जी ने मेरे किसी भी लेख को अप्रिय सत्य रहने के अपराध में खारिज नहीं किया. उस पर कैंची नहीं चलाई. वे ठीक मेरी तरह बोलने की आजादी पर 100 फीसदी विश्वास करते थे. राजेंद्र जी की काफी उम्र हो चुकी थी. पर उससे क्या? वे बहुत ही आधुनिक इंसान थे. उनको घेरे रहने वाले जवान लड़के-लड़कियों से भी कहीं ज्यादा  मॉडर्न और सबसे ज्यादा  मुक्त मन के इंसान.

कुछ समय पहले उन्होंने हंस पत्रिका के वार्षिक उत्सव में गालिब ऑडीटोरियम में ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’’ को लेकर एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया था. तय हुआ कि मैं वहां बोलूंगी पर सुरक्षा कारणों से मैं अंततः वहां जा नहीं पाई. कार्यक्रम के बीच से उन्होंने कई बार मुझे फोन किया. बहुत अनुरोध किया. इस बात पर वे बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे कि मुझे मारने के लिए चारों तरफ मुसलमान कट्टरपंथी तैयार बैठे हैं. मैं भी नहीं करती हूं. अब अभी भी लोगों की भीड़ देखते ही, यादों का एक वीभत्स झुंड मुझे जकड़ लेता है. किसी भी समय, कोई भी कट्टरपंथी कुछ भी अनिष्ट कर देगा. और यह धक्का न संभाल पाने पर अगर सरकार बोल बैठे कि देश छोड़ो. मैंने बंगाल को खोया है. भारत को खोने का दर्द मैं नहीं सह पाऊंगी.

इधर सुरक्षाकर्मियों ने मुझे फिर से सावधान किया है कि भीड़ के बीच, किसी भी मंच पर मैं न जाऊं. राजेंद्र जी ने मुझे कार्यक्रम में जाने का आमंत्रण दिया था. मैंने वादा भी किया था कि मैं जाऊंगी. पर मैं उनकी बात रख न सकी. उन्हें बहुत दुख पहुंचा. कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र पर वे मेरा नाम देना चाहते थे. मैंने नाम न देने का अनुरोध किया था. कहा था कि अचानक ही आ जाऊंगी. उन्होंने मेरी बात रखी और निमंत्रण-पत्र पर मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया. उन्हें विश्वास था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मेरा वक्तव्य मूल्यवान होगा. लिखने की वजह से ही पूर्व और पश्चिम बंगाल से मेरा निर्वासन हुआ. बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में मैं एक निषिद्ध नाम हूं. कई किताबें प्रतिबंधित हुई हैं. मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगाने और मुझे मृत्युदंड देने के लिए शहर में लाखों लोगों का जुलूस निकला था. उसी निषिद्ध इंसान को अपने जीवन के अंतिम कार्यक्रम में राजेंद्र जी सम्मान देना चाहते थे. निषिद्ध लेखक को देखकर, दूसरे लेखकों को, बुद्धिजीवियों को, डर से दूर जाते देखा है, पर राजेंद्र जी फूलों की माला हाथों में लेकर आगे आए थे. राजेंद्र जी निश्चित रूप से सबसे अलग थे.

राजेंद्र जी को लेकर आखिरी दिनों में मैंने तरह-तरह की बातें सुनी थीं. बिहार से आई ज्योति कुमारी नाम की लड़की को उन्होंने नौकरी दी, लिखने का अवसर और सुविधाएं दीं. उसकी किताब प्रकाशित करवाने में मदद की  और लाड-दुलार में उसे सिर पर चढ़ा लिया था. इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि तरह-तरह के विवाद खड़े होने लगे. ज्योति कुमारी और राजेंद्र जी को लेकर लोग तरह-तरह की अशोभनीय बातें कहने लगे.

उधर दूसरे दल के लोग कहते फिर रहे थे कि लड़की अच्छी नहीं है. इस पुरुषतांत्रिक देश में लड़कियों के बारे में बुरी बातें बोलने वाले लोगों की कमी नहीं है. राजेंद्र जी जैसे जिंदादिल इंसान को मैं बाहर के लोगों की बातें सुनकर दोष नहीं दे सकी, या फिर लोगों की बातें सुनकर उस लड़की को भी ‘‘वह अच्छी लड़की नहीं है,’’ नहीं कह सकी. राजेंद्र जी ने बहुत-सी लड़कियों से स्नेह किया है. बहुतों को प्यार भी किया है, पर किसी लड़की की अनुमति के बगैर उस पर कोई दबाव डाला हो या उसका स्पर्श भी किया हो, ऐसा उनके शत्रुओं ने भी नहीं कहा है.

जिस दिन मेरे घर पर उनसे मेरी आखिरी मुलाकात हुई थी, उस दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘लेखक सुनील गंगोपाध्याय के विरुद्ध मेरे अभियोग की क्या वजह थी?’’ मैंने कहा, ‘‘सुनील का मैं बहुत सम्मान करती थी पर एक दिन अचानक उन्होंने मेरी अनुमति के बिना मेरे शरीर को छुआ था. विरोध करना उचित था, इसीलिए विरोध किया. दूसरी लड़कियों के जीवन में यौन शोषण होने पर विरोध करती हूं तो अपने जीवन में घटने पर मुंह बंद करके क्यों रहती?’’ राजेंद्र जी मुझसे सहमत थे. उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि सुनील के खिलाफ मेरा शिकायत करना उचित नहीं था.

जवान युवक-युवतियां राजेंद्र जी को हमेशा घेरे रहते. वे बहुत श्रद्धा से उन्हें याद करते थे. मैंने उन लोगों को कहते सुना है कि हमने पिता खो दिया है. राजेंद्र जी द्वारा स्नेहधन्य कवि और लेखक, राजेंद्र जी की तरह आजाद विचारों के विश्वासी हों. किसी भी अप्रिय सत्य को बोलने में उन्हें कोई हिचकिचाहट न हो. क्या बनेगा कोई ऐसा?

जैसे मैंने अपनी आत्मकथा लिखते समय कुछ भी नहीं छुपाया, हाल ही में उनकी लिखी हुई, स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार किताब में राजेंद्र जी ने भी अपने बारे में कुछ भी नहीं छुपाया है. उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में लिखा, अपने सारे संबंधों के बारे में लिखा. उन्होंने, समाज की नजरों में जो वैध है, अवैध है, वह सबकुछ लिख डाला. लोग क्या कहेंगे इसके बारे में नहीं सोचा. क्या, कभी, कोई हो सकेगा उनके जैसा निष्कपट? क्या जिन्हें वे छोड़ गए हैं, वे सब उन्हीं की तरह अपने विचारों को खुलकर कहने की आजादी पर विश्वास करते हैं? :तसलीमा नसरीन
Tribute to Rajendra Yadaw by Taslima Nasrin
सौजन्य से: आजतक/इंडिया टुडे
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