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Saturday, November 16, 2013

सचिन को भारत रत्न, सरकार से पूछने की हिम्मत है आप में???

सचिन अपना सम्मान क्यों स्थगित करें, सरकार से पूछने की हिम्मत है आप में???
नदीम अख्तर
प्रोफेसर-आईआईएमसी
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जो लोग ये कह रहे हैं कि अगर सचिन दादा ध्यानचंद के बाद भारत रत्न सम्मान लेने का फैसला करते हैं तो उनका कद और बढ़ जाएगा, वे किसे बेवकूफ बना रहे हैं. आप सरकार से नहीं पूछेंगे कि उसने दादा ध्यानचंद से पहले सचिन को ये पुरस्कार क्यों दे दिया, सचिन से ये उम्मीद रखेंगे कि वह बड़प्पन दिखाते हुए पुरस्कार लेने से इनकार कर दें. वाह!! क्या कहने. बलिहारी जाऊं आपकी इस अदा पर.

अरे भाई, पहले ये बताइए कि क्या आपने या आपके चैनल के किसी पत्रकार ने उस कांग्रेसी मंत्री से ये सवाल किया जो सुबह से सारे टीवी चैनलों पर उछल-उछल कर सचिन को भारत रत्न दिए जाने की घोषणा की पैरोकारी कर रहा है??!!! उस मंत्री से क्यों नहीं पूछा कि दादा ध्यानचंद से पहले सचिन को भारत रत्न क्यों??? अगर दादा ध्यानचंद के इतने ही बड़े प्रशंसक-हिमायती हैं तो सरकार को क्यों नहीं कटघरे में खड़ा किया आप लोगों ने कि उनसे पहले सचिन को भारत रत्न क्यों और कैसे???!! आधे घंटे का एक शो इस विषय पर क्यों नहीं चलाया टीवी पर??!!

लेकिन नहीं, ये सब आप नहीं करेंगे. हां, सचिन से ये अपेक्षा करेंगे कि वह सम्मान लेना फिलहाल के लिए स्थगित कर दे. क्यों भाई. क्या सचिन ने जाकर हाथ-पैर जोड़कर भारत सरकार से ये सम्मान मांगा था?? जब सरकार ने अपनी मर्जी से दिया है तो वही स्पष्ट करे कि दादा ध्यानचंद से पहले सचिन को ये पुरस्कार किस आधार पर दिया गया. या सरकार ये कहे कि मौजूदा हालात में सचिन तेंडुलकर का कद दादा ध्यानचंद से बड़ा हो गया है. और अगर सरकार ऐसा कहती है तो फिर उसे ध्यानचंद के नाम से खेल के क्षेत्र में दिया जाने वाला Lifetime achievement award भी बंद कर देना चाहिए.

बात सिम्पल है. आप grey area में नहीं रह सकते. या तो आप दादा ध्यानचंद से पहले सचिन को सम्मान दिए जाने को सही मानते हैं या फिर गलत. ये हां-ना टाइप की चीज मत बोला करिए. गोलमोल बात मत करिए. 'सचिन अभी ये एवार्ड ना लें तो अच्छा हो' जैसी बातें कहने का कोई मतलब नहीं.

मेरा स्पष्ट मानना है कि हॉकी के जादूगर दादा ध्यानचंद से पहले सचिन को यह सम्मान देकर भारत सरकार ने एक गलत परम्परा की शुरुआत की है. (सचिन के प्रशंसकों से विनम्र माफी के साथ). आप राजशाही में नहीं हैं कि बादशाह सलामत की दिल जिस पर आ जाए, उसे जागीर-रियासत सौंप देंगे. आप लोकतंत्र में हैं और ये तंत्र जनता चलाती है. देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान को दिए जाने की एक प्रक्रिया और प्रतिष्ठा होती है. एक मर्यादा होती है, मानक होता है. उसे आप पैरों तले रौद कर धूलधूसरित नहीं कर सकते. आपको जवाब तो देना ही पड़ेगा सरकार जी. ये ठीक है कि अभी सचिनमेनिया में ये सवाल शायद दब जाए या दबा दिया जाए लेकिन इतिहास तो ये प्रश्न उठाएगा ही. उसने किसी को नहीं बख्शा है. और पत्रकार बंधुओं से अनुरोध है कि वे सचिन पर इतना बड़ा बोझ ना डालें कि खुद ही भारत रत्न सम्मान को स्थगित करने की घोषणा कर दें. ये उनके साथ नाइंसाफी होगी.

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वैसे उम्मीद तो नहीं है लेकिन फिर भी सोचता हूं कि क्या आज न्यूज चैनलों-अखबारों की न्यूज मीटिंग में किसी पत्रकार-प्रोड्यूसर-रिपोर्टर ने संपादक के सामने ये बात रखी होगी कि आखिर सचिन को दादा ध्यानचंद से पहले भारत रत्न कैसे?? इस पर सवाल उठाते हुए क्या एक स्टोरी करनी चाहिए??

अगर किसी बंधु ने ऐसा किया होगा तो मेरे दिल में आपके लिए आपार सम्मान है. बधाई. टीवी न्यूज चैनलों का तो आज हाल देख लिया. अब कल के अखबार देखने हैं. बड़े और सम्मानित सारे. देखना है कि सम्पादक का कोना अभी वहां कितना बाकी है. शुभ रात्रि.


अनाथ होने की सजा!

शायक आलोकपत्रकार/कवि/कहानीकार

पता नहीं यह कब की बात है जब काले सागर के आसपास के किसी बंदरगाह शहर में जाकिया नाम का एक बूढा रहता था .. अपनी ज़िन्दगी के आखिरी दिन गिनता वह अकेला बूढा प्रायः अपनी स्मृतियों में लौट जाता और फिर किसी लालच में आसमान की ओर सर उठा कहता- 'अह ! काश वह एक दिन लौट आता' ..

बूढा आँखें मूंदे मंत्र की तरह कोई माफीनामा बुदबुदाता रहता - 'मुझे माफ़ कर दो .. क्षमा क्षमा !' ..

चिलम फूंकता बूढा तो रौशनदान पर धुंए की एक सुरंग बन जाती - उस सुरंग से गुजरता बूढा अपने यौवन के दिनों में अपने गाँव अपने घर पहुँच जाता .. फिर एक बार जोर से खांसता और स्मृति फिर उसे उसकी गुजरती उम्र में उसके इस कमरे में ला पटकती ..

इसी बंदरगाह शहर में राकिया नाम का अनाथ युवक काले सागर को अपने आंसू सौंपता उससे पिता का पता पूछता..

अपने अपने हालात से उब गए जाकिया और राकिया एक बार समंदर किनारे मिले तो दोनों ने कुछ दिनों के लिए अपनी उम्र आपस में बदल लेने का फैसला किया ..

युवक हुआ जाकिया भाग कर अपने गाँव लौटा और जहाजी होने के लिए छोड़ आये अपनी गर्भवती पत्नी का पता ढूँढने लगा.. पर समय कब रुका है आखिर .. किसी ने उसके बुढ़िया होकर मर जाने की बात कही तो किसी ने उसके किसी और के साथ चले जाने की बात कही .. उम्र से हारा जाकिया उम्मीद से भी हार गया तो वापस लौट आया..

समंदर किनारे दोनों फिर अपनी उम्र बदलने ही वाले थे कि राकिया ने उम्र वापस देने से इनकार कर दिया .. राकिया ने अपनी अंतिम सांस भी तभी ली.. राकिया के हाथ में एक चिट्ठी थी - 'तुम्हारे अनाथ होने का दोष अपने पिता को देना जो जहाज के लिए हमें छोड़ गया ' .. पत्र के पृष्ठ पर राकिया के शब्द थे - ' मेरी उम्र तुम्हें सौंप मेरे अनाथ होने की सजा तुम्हें दे रहा हूँ पिता, तुम जहाज के लिए मुझे छोड़ गए' ..

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शायक

Friday, November 15, 2013

सच सिर्फ एक... Content is king

TRP नहीं कंटेंट बनाता है न्यूज चैनल की पहचान, एनडीटीवी इंडिया ने ये साबित किया
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Nadeem S Akhtar
Sr Journalist

अभी खबर आई कि गुमनामी के अंधेरे में पड़ा एक और चैनल -न्यूज नेशन- टीआरपी की रेस में प्रतिस्थापित हो गया है. मुबारक. जितने ज्यादा योद्धा, उतनी ही तीखी लड़ाई. एक से भले दो और दो से भले चार-आठ-बारह. लेकिन टीआरपी से मैं किसी चैनल के अच्छे या बुरे होने की तुलना नहीं करता, ना ही उसके बारे में कोई राय बनाता हूं. भाई साहब, जब चैनल आपको साक्षात् टीवी पर दिख रहा है तो उसके कंटेंट को देखकर अपने अनुभव से राय बनाइए ना. ये टीआरपी टैम वाले टामियों के लिए छोड़ दीजिए ताकि बाजार का गुणा-भाग चलता रहे.

मैं तो खालिस एक दर्शक की तरह चैनल देखता हूं. अपनी पसंद का और चैनलों की इस भीड़ में अगर कोई चैनल मुझे content wise ठीक-ठाक लगता है तो वह एनडीटीवी इंडिया है. लगता है वहां पत्रकारों को अपने मन से जनहित में कंटेंट पर काम करने की आजादी अभी भी है. एक छोटा सा उदाहरण देता हूं. अभी पिछले दो दिनों से जब सारे चैनल सचिनमय हो गए थे और लग रहा था कि पूरा देश सिर्फ सचिन-शैचिन्न कर रहा है (हालांकि देश में ऐसा था नहीं, सिर्फ टीवी स्क्रीन पर ही ये भेड़चाल थी), तब एनडीटीवी इंडिया ने वह किया, जो शायद ही किसी हिन्दी चैनल पर देखने को मिले. यहां रात 9 बजे सुलझे हुए पत्रकार रवीश कुमार एक शो लेकर आते हैं- प्राइम टाइम. इस शो में किसी गर्मागरम मुद्दे पर बातचीत होती है, रवीश कुमार स्टाइल में. 

मुझे यह देखकर आशचर्य नहीं हुआ कि जब दूसरे हिन्दी चैनल सचिन गाथा में लगे हुए थे, तो परसों रवीश के प्रोग्राम में डिबेट का विषय आज के समाज की जातिवादी हकीकत बयां करता मुद्दा था. बैंगलोर में एक हाउसिंग सोसायटी फोकस में थी, जिसके लिए विज्ञापन निकाला गया था कि सिर्फ ब्राह्मण इस सोसायटी में घर ले सकते हैं. इस छोटे से विषय को लेकर रवीश ने स्क्रीन पर जादू रच दिया. उस सोसायटी का कर्ताधर्ता भी प्रोग्राम में मौजूद था, उससे जवाब देते नहीं बन रहा था और वह बार-बार सनातन संस्कृति की दुहाई देने के अलावा कुछ नहीं बोल पा रहा था. रवीश की ये बहस ऐसे समय में हो रही थी, जब दूसरे चैनल सिर्फ और सिर्फ सचिन चला रहे थे. 

बीता हुआ कल भी सचिनमय था लेकिन कल भी रवीश के प्रोग्राम में सचिन को लेकर चर्चा नहीं हुई. कम से कम कल मैं इसकी उम्मीद कर रहा था कि रवीश आज सचिन को सब्जेक्ट में रखेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हां, IBN 7 वाले Ashutosh Ashu ने सचिन पर एक सार्थक चर्चा की अपने प्रोग्राम में कि सचिन भगवान क्यों और कैसे बन गए. राजदीप भी थे. अच्छा ये रहा कि इसमें सचिन के महिमामंडन की बजाय उसके भगवान बनने की प्रक्रिया का पोस्टमार्टम हुआ पर जाते-जाते राजदीप सरदेसाई सचिनमेनिया से नहीं बच सके. आशुतोष Times of India के एक लेख की कॉपी दिखाते हुए बोले कि राजदीप, आज से 24-25 साल पहले जब सचिन स्टार नहीं बने थे, तब आपने इस लेख में ये लिखा था कि भारतीय क्रिकेट में आज एक नयापन टाइप की चीज महसूस हुई. क्या आपको अंदाजा हो गया था कि सचिन इतने महान खिलाड़ी बनेंगे. राजदीप गदगद हो गए और कहा हां, मुझे लग गया था कि ये बहुत आगे जाएगा. 

खैर बात एनडीटीवी इंडिया की हो रही थी. मुझे नाउम्मीदी हाथ लगी क्योंकि कल रवीश के प्रोग्राम में भी सचिन पर कोई बहस नहीं हुई. कल भी एक -जरा हट के- विषय पर बहस हुई. फोकस में थे आईएएस अफसर अशोक खेमका और उनके तबादले का विवाद. अमूमन खेमका पर बहस में Times Now पर अर्नव गोस्वामी के साथ ही देखता हूं पर एक पूरा शो खेमका विवाद को समर्पित, वह किसी हिन्दी चैनल पर, यह कल पहली बार देखा. और ये बता दूं कि इस बहस में कहने-सुनने को ज्यादा नहीं था लेकिन वह तो रवीश कु्मार जैसे एंकर थे कि बहस को खींच ले गए. शुरु में ही मेहमानों ने ये कह दिया कि तबादला एक तकनीकी मामला है, इसलिए इस पर कुछ नहीं बोलेंगे. अब रवीश क्या करते लेकिन अपनी सूझबूझ से वह बहस को बढ़ा ले गए और ईमानदारी-नौकरशाही-राजशाही के इर्द-गिर्द बुने भारतीय समाज का एक आईना दिखाने की कोशिश की. खेमका ने भी अपनी बात मजबूती से रखी.

एक दर्शक के बतौर आपको रवीश कुमार के इस प्रोग्राम में कुछ नया नहीं लगेगा लेकिन अगर आप टीवी की दुनिया में काम कर चुके हैं तो डिबेट के लिए रवीश का चुना गया सब्जेक्ट और उसे चैनल पर दिखाया जाना अनूठा है. मैं तो कहूंगा कि मौजूदा टीआरपी की रेस और सचिनमेनिया को देखते हुए यह अकल्पनीय था कि प्राइम टाइम में चैनल का मंजा हुआ एंकर सचिन को छोड़कर भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था और अशोक खेमका पर चर्चा करे. और दाद देता हूं कि यह एनडीटीवी इंडिया ही जैसा चैनल है, जिसने रवीश को इतनी आजादी दी कि वह -सचिन की आंधी- में खड़े होकर उससे अलग Real issues पर बात करें. समाज की पत्रकारिता करें, TRP की नहीं.

मुझे नहीं मालूम कि रवीश के प्रोग्राम की कितनी टीआरपी आती है लेकिन अपने अनुभव से बता सकता हूं कि अच्छी टीआरपी आती होगी. पब्लिक को मूर्ख मत समझिए. काम की चीज वह देख लेती है. आप दिखाने का माद्दा तो रखिए. और सबसे बड़ी बात चैनल की पॉलिसी में इतनी आजादी हो कि एक पत्रकार वहां experiment कर सके. एनडीटीवी इंडिया में मुझे वह आजादी दिखती है.

ठीक इसी तरह जब एबीपी न्यूज पर -प्रधानमंत्री- कार्यक्रम शुरु हुआ था तो लोग कह रहे थे कि सठिया गए हैं एबीपी वाले. सलमान के जमाने में गुजरे प्रधानमंत्रियों की कहानी दिखाएंगे-देश के हालात बताएंगे. कौन देखेगा??? और यकीन मानिए, आज टीवी की दुनिया में टीआरपी की जैसी समझ बनाई गई है, उसमें ज्यादातर लोग यही कहेंगे कि ऐसा प्रोग्राम नहीं चलने वाला. लेकिन दाद दीजिए एबीपी के मुखिया शाजी जमां का, जो ऐसा प्रोग्राम देश के सामने लेकर आए और टीआरपी की रेस में भी अपने फैसले को सही साबित किया. 

सो Content is king. ये आज भी सच है और कल भी रहेगा. देर-सबेर दर्शक उसी चैनल पर आएंगे, जिसका content rich होगा. अगड़म-बगड़म बहुत हुआ. खजाना-आसाराम-सचिन, ये सब तो बुलबुले हैं. टिकेगा वहीं, जो अपना ठोस आधार पैदा करेगा, विश्वसनीयता बनाएगा. -आज तक- चैनल अगर आज भी पॉपुलर है तो इसकी सबसे बड़ी वजह है इसकी विश्वसनीयता जो एसपी के जमाने में बनी. तब 20 मिनट के बुलेटिन में इसके तेवर, इसका कंटेंट और खबरों का प्रेजेंटेशन सरकारी दूरदर्शन के जमाने में हवा के किसी ताजा झोंके की तरह था. सो कंटेंट होगा तो टीआरपी भी आएगी. अनवरत आएगी. बिना ड्राइवर वाली कार और स्वर्ग की सीढ़ी बार-बार नहीं चलती-लगती.

Nadim S. Akhter के फेसबुक वाल से साभार

Thursday, November 14, 2013

यह लोकतंत्र है या यूपी सरकार की टेढ़ी नाक!



अनिल सिंह
(पत्रकार: भड़ास4 मीडिया में कंटेंट एडिटर के पद पर
कार्यरत रहे अनिल सिंह ने ढ़ेर सारे पत्र-पत्रिकाओं
के प्रकाशन में सक्रिय भूमिका निभाई।
फिलहाल लखनऊ समेत 7 जगहों से प्रकाशित
डीएनए अख़बार में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं)
लखनऊ की रात लगातार सर्द होती जा रही है. देर शाम जब आफिस से निकला हूं तो ठंडी हवाएं नसों में बहती हुई प्रतीत होने लगती हैं. बगल से निकलती कोई सनसनाती कार हवाओं को रूह तक पैबस्‍त कर देती है. विधानसभा के गुंदब को देखकर लोकतंत्र जिंदा होने का एहसास तो होता है, लेकिन ठंड पर इस एहसास का कोई असर नहीं पड़ता. पर चंद मीटर आगे चलने के बाद ही ठंड सिहरन में बदलने लगती है. ठंडी हवाएं फिसलकर आत्‍मा के भीतर तक समाती हुई सी लगने लगती हैं. बेधड़क. इंसान और जानवर होने के बीच का फर्क भी हर सेकेंड के साथ खतम होता चला जाता है. आजादी के साढ़े छह दशक. फिर भी इंसान और जानवर के बीच फर्क की महीन लकीर नहीं खिंच सकी है. अजीब सा विरोधाभास यूपी विधानसभा की देहरी से कुछ दूर बाहर ही एक दूसरे को मुंह चिढ़ाता नजर आता है. 

हजरतगंज जीपीओ के फुटपाथ पर जिंदगी की मुश्किलें फटी चादरों और ठंड से ठिठुरते बदन में दिखती है तो सड़क के दूसरी तरह गुलजार जिंदगी नजर आता है. इस तरफ दूसरे के शरीर से लिपटकर गर्मी पाने की असफल कोशिशें दिखती हैं तो दूसरी तरफ दुधिया रौशनी में जिंदगी का रंगीन और परेशानियों से बेखबर नजारा दिखता है. पूरे प्रदेश के लिए तरक्‍की की तस्‍वीर बनाने वाले विधानसभा के साए में ही दोनों नजारे दिखते हैं, लेकिन उस दनदनाती सड़क से हों हों करती गुजरने वाली नीली-लाल-पीली बत्‍ती लगी गाडि़यों के शीशे से जीपीओ का फुटपाथ नजर नहीं आता, ठीक वैसे ही जैसे विधानसभा की देहरी में पहुंचने वाले लोगों को गरीब. कभी कभी तो सड़कों के आवारा कुत्‍ते भी फुटपाथ पर पसरे इंसानों के चादरों के आसपास पसरे नजर आते हैं. अब पता नहीं वो गर्मी लेने आते हैं या गर्मी देने आते हैं, लेकिन यहां संवेदनशीलता को वो चरम पैमाना दिखता है, जो लोकतंत्र की देहरी से गायब हो चुका है. सरकार की नाक के नीचे हरजतंगज ही क्‍या लखनऊ की कई फुटपाथें गरीबों के आशियाने के रूप में गर्मी तो गर्मी सर्दी की रात में भी गुलजार रहती है. डीएम आवास के सामने भी फुटपाथ का नजारा यहां से कुछ अलग नहीं होता है. यह सब सरकार की नाक के नीचे ही है, पर शायद सरकार की नाक सीधी नहीं है. 


लखनऊ की तमाम फुटपाथों पर बाहर से कमाने के लिए आए रिक्‍शेवाले, फेरी वाले, खोमचे वाले, ठेले वाले इन्‍हीं की तरह कई और वाले एक एक पैसे को बचाने के लिए खुद को हर रोज सर्द रातों की आगोश में तड़पने के लिए छोड़ देते हैं ताकि उनके परिवार के लोगों के हिस्‍से रोटी की कुछ गर्मी तो आ सके. अफसोस की मैं इनको देखकर खुद को भी नकारा मान लेता हूं. चाहता हूं कि कुछ करूं, पर समझ नहीं आता कि इनके लिए क्‍या किया जा सकता है. सरकारें कुछ नहीं कर सकतीं, पर हमे कुछ तो करना चाहिए. कुछ शुरुआत तो होनी चाहिए. कोई तो बताए कैसे हम इन्‍हें भी इंसान होने का एहसास करा सकें. कोई बताए तो. प्‍लीज.

Wednesday, November 13, 2013

कविता कैसे...

Shayak Alok
कविता सीखो !
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कई युवा फेसबुक मित्रों के मैसेज आये इन दिनों कि शायक हमें भी लिखना बताइये .. हम भी लिखना चाहते हैं आपकी तरह .. तो इस पोस्ट से एक साझा संवाद दे देता हूँ ..

[१] सबसे पहले समझिये कि आजकल की कविता क्या है .. आज की कविता है वाक्य विन्यास की कलात्मकता .. उसके अन्दर विचार को पिरोना .. और बिम्ब .. अब एक उदाहरण लीजिये .. जैसे मैंने यह पंक्ति चुनी - '' एक लड़की कोने वाले घर की खिड़की पर खड़ी '' .. अब इसे वाक्य विन्यास की कलात्मकता से आप सजायें तो अलग अलग पंक्तियाँ बनेंगी .. जैसे [अ] एक कोने वाला घर / एक लड़की खिड़की पर खड़ी [ब] खिड़की पर खडी लड़की और वह कोने वाला घर [स] लड़की खड़ी खिड़की पर कोने में खड़ा घर [द] खड़ी खिड़की लड़की खड़ी कोने में खड़ा घर .. कुछ भी .. जितना बेतरतीब कर सकेंगे आप उतना चमत्कृत कर सकेंगे ..

[२] विचार को पिरोना ... कैसी लड़की .. कैसी खिड़की ..कैसा घर .. अपनी कल्पना लाइए .. एक लड़की जो फिर नहीं सोई .. या एक लड़की जो तारे देखती रहती है .. एक लड़की जो इन्तजार में है .. [ प्रेमपरक कविता ] .. लड़की जो भाग जाना चाहती है .. लड़की जो कूद जाना चाहती है [स्त्री विमर्श ] .. खिड़की जो कभी बंद नहीं होती .. खिड़की जो आज पहली बार खुली .. खिड़की जो दरवाजा है उस लड़की के मन का .. कुछ भी ... ऐसे ही घर .. घर जिसमें दीवारें नहीं है .. घर जो गली में कोने पर है .. कैसे भी उसके होने को जस्टिफाय कीजिये बस ..

[3] बिम्ब .. यह सबसे पिटा हुआ फार्मूला है जो युग बदले पर जिसका उपयोग नहीं बदला .. बादल जो प्रेमदूत है .. लड़की जो नीर भरी दुःख की बदली है .. 'तुम्हारे माथे को चूमना तुम्हारी आत्मा को चूमना है' .. 'फफूंद हैं चुपचाप के पेड़' .. 'मैंने मेरी हथेली में लगा दी छलांग' .. कुछ भी कल्पना कीजिये .. लड़की खड़ी है खिड़की पर कोने वाले घर में जैसे गुलदाउदी का फूल कोई अभी सूरज की ओर मुड़ा है ..

[४] नकल करना कविता सीखने का खूब अच्छा तरीका है .. नरेश सक्सेना की नक़ल करना आसान है .. कुंवर नारायण की भी .. कुंवर नारायण लिखते हैं 'ट्यूनीसिया का कुआं ' .. आप उसे बना दीजिये 'साईकिल का पहिया' .. 'ट्यूनीसिया में एक कुआं है/ कहते हैं उसका पानी / धरती के अन्दर ही अन्दर / उस पवित्र कुएं से जुड़ा है / जो मक्का में है ' ... आप लिखिए - ' मेरे घर एक साईकिल का पुराना पहिया है / कहते हैं मेरे दादा के पिता के पास थी साईकिल / साईकिल घुमती पहुँच गई / बनिया साहूकार के घर / सूद मूल चुकाकर / पहिया शेष रह गया ' .. समीक्षक का बाप नहीं पकड़ेगा आपको और हाथ चूमेगा आपके ..

[५] पढ़ना बहुत जरुरी है .. बढ़िया लोगों को पढ़िए .. मैं एक साल पहले कुछ और लिखता था .. अब कुछ और लिखता हूँ .. क्यों .. क्योंकि मैं अपने हमउम्रों को भी पढता हूँ .. कई बार उनकी बेहतरीन कविता में जो जादू दस फीसद होता है उसी जादू की मात्रा पचास फीसद कर मैं मेरी कविता क्रियेट करता हूँ और आप कह पड़ते हैं वाह !

[६] एक बात हमेशा याद रखिये कि लिखे जाने तक हर कविता झूठ होती है .. रोते हुए कभी नहीं लिखता कोई कवि अपनी कविता .. अभिप्राय यह कि अपने लिखे जाने की प्रक्रिया में कविता संवेदना विचार आदि की मांग नहीं रखती .. कवि शब्दबाजी करता है बस लिखते समय .. तो फिर यह संवेदना विचार आते कहाँ से हैं .. ? ये आते हैं रोजमर्रा की जिंदगी में साक्षी बने रहने से .. महसूसना जगाये रखने से .. दामिनी मरती है तो मैं अभी उद्वेलित होऊंगा कविता नहीं लिख सकूँगा .. दामिनी के प्रति मेरी संवेदना मेरे दिमाग की नसों में जम जायेगी .. और जब बाद में कभी लिख रहा होऊंगा मैं तो नसों में जमी संवेदना खुद पिघल पिघल आएगी उस रचना में .. मुझे प्रयास नहीं करना होगा ..

[७] अब .. कैसे लिखें एक आधुनिक कविता इसे सीधे रचना प्रक्रिया से समझा देता हूँ आपको .. कविता के किसी एक किरदार की कल्पना कीजिये .. जैसे आजकल चींटी और ईश्वर बहुत हिट हैं .. कविता में कविता खुद भी एक किरदार या एक परिदृश्य के रूप में खूब छाई है आजकल बाजार में .. कैक्टस एक बढ़िया किरदार है .. प्रेयसी .. चिड़िया .. फफूंद .. ये सब भी .. तो मैं ले आता हूँ एक किरदार .. उम्म्म .. लीजिये मैंने चुना अमीबा को .. अब अमीबा के कुछ बेसिक फीचर लाइए जेहन में .. टेढ़ी मेढ़ी परिधि उसकी .. अमीबा को उसके न्यूक्लियस के साथ काट दो तो दो अमीबा ..दोनों जिंदा .. तो अब कविता लिखते हैं ..

'' जब तुम कर रही होती हो प्रेम की बातें
तब मैं एक अमीबा के बारे में सोच रहा होता हूँ

मैंने बचपन में अमीबा बनाना पहले सीखा
प्रेम किया बाद में
और जब किया प्रेम
पिछले पृष्ठों पर बनाए हर अमीबा के केंद्र में
प्रेयसी के नाम का पहला अक्षर लिख दिया

मेरे अतीत अनुभवों का अमीबापन
ब्लाह ब्लाह ब्लाह .. '' ...

[८] उस युवा महाकवि महासमीक्षक की तरह लिखना हो तो फिर ऊपर के सब पॉइंट्स भूल जाइए और सीधे निबंध लिख दीजिये .. '' मैं एक मोटा आदमी हूँ .. मैं धंस कर बैठा हूँ मेरे सोफे में .. मेरे हाथ में पित्ज़ा है और देख रहा हूँ टीवी .. एक हेलिकोप्टर अभी उड़ कर गया है आकाश में .. अभी आया था एलिट नवोदित कवयित्री का फोन .. उसकी कविता को साबित करना है सत्ता प्रतिरोध की कविता .. ओह मुझे कितना काम है .. चलो फ़ोन उस लकड़सूंघे कवि को .. उसे होना है खड़ा बेचने को किताब '' ..

अंट शंट कुछ भी .. उसे कविता साबित करने की जिम्मेवारी मुझपर छोड़ दीजिये ..

आज बस इतना ही .. बाकी का बाकी !
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शायक

Saturday, November 9, 2013

राजेंद्र यादव को बागी लेखिका का प्रणाम


राजेंद्र यादव के साथ तसलीमा नसरीन व अन्य

राजेंद्र यादव नहीं रहे. सोचकर हैरानी होती है कि वे अब नहीं हैं. दो-चार दिन पहले तक वह इंसान हमारे बीच था. कुछ ही दिन पहले वह मेरे घर पर चंद दोस्तों के साथ अड्डा जमाकर गए थे. एक मैरून रंग का कुर्ता और झीनी सफेद धोती पहनकर आए थे. उम्र बढऩे पर लोग अकसर रंगीन कपड़े पहनना छोड़ देते हैं, पर राजेंद्र जी ने ऐसे संस्कार कभी नहीं माने. वे हमेशा चटख हरे, लाल, नीले या बैंगनी रंग के कपड़े पहनते थे. उस दिन मेरे घर पर उन्होंने शराब पी, खाना खाया, गप्पें लड़ाईं.

लोग कहते थे कि वे बहुत बीमार चल रहे हैं पर मैंने उन्हें कभी बीमार नहीं देखा. उन्हें डायबिटीज था. हजारों लोगों को होता है पर उनकी शुगर अनियंत्रित नहीं थी. जैसे आम तौर पर लोग शराब या खाना देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, वे इस तरह कभी नहीं खाते-पीते थे. उनमें असाधारण संयम था. जहां भी रहें, बाहर या घर पर, कितना पीना है, कितना खाना है, कब इन्सुलिन लेना है, सिगरेट के कितने कश लगाने हैं, कब सोना है, सब बिल्कुल घड़ी के कांटे की तरह तय था.

देखकर बड़ी हैरानी होती थी. इतना नियम मानकर चलना बहुत कम लोगों से ही हो पाता है. एक सिगरेट के दो टुकड़े करने के बाद वे आधा टुकड़ा पीते थे. कई बार उनसे पूरी सिगरेट पीने के लिए कहा. ये कहकर कि कोई बड़ा नुकसान नहीं होगा, पर उन्होंने आधे टुकड़े से ज्यादा कभी नहीं पी. उनके फेफड़ों को लेकर सब जितनी दुश्चिंता करते थे, क्या उनके फेफड़े सचमुच उतने खराब हो चुके थे? जब भी उनसे पूछती थी, ‘‘तबीयत कैसी है?’’ वे कहते, ‘‘बहुत बढिय़ा.’’ तबीयत खराब है या फलां रोग से परेशान हैं, ऐसी बातें वे कभी अपने मुंह पर नहीं लाते थे.

एक बार उनके मयूर विहार के घर उन्हें देखने गई थी. पता चला हर्निया हुआ है, लेटे हुए हैं. वे लेटे-लेटे ही बातें करते रहे, जिंदगी के किस्से सुनाते रहे. बीमारी को लेकर हाय-हाय करना, अवसाद में घिरे रहना, यह सब राजेंद्र जी में बिल्कुल नहीं था. हमेशा हंसते रहते थे. जिंदा रहने में उन्होंने कोई कोताही नहीं की. उनकी उम्र 84 साल थी. अभी और जिंदा रह सकते थे पर मैसिव हार्ट अटैक होने पर और क्या किया जा सकता है! कोई भी चला जाता है. सबसे अच्छी बात जो हुई, वह यह कि राजेंद्र जी को ज्यादा भुगतना नहीं पड़ा. दिनोदिन, सालो-साल बिस्तर पर पड़े-पड़े कराहना नहीं पड़ा. शुक्र है, वैसा दुरूसह जीवन राजेंद्र जी को नहीं मिला.

जिस रात उनका देहांत हुआ, उस रात साढ़े तीन बजे मैं उनके घर पहुंची. मैंने देखा कि बाहर ड्राइंग रूम में जहां सोफा रखा रहता था, वहां एक अद्भुत से इस्पात के डिब्बे में वे लेटे हुए हैं. उनकी बेटी रचना पास ही कुर्सी पर बैठी रो रही थी. मैं बड़ी देर स्तब्ध खड़ी उनकी निस्पंद देह को देखती रही. राजेंद्र जी को कभी सोते हुए नहीं देखा था. लग रहा था कि वे सो रहे हैं. फिर लगा कि जैसे उनकी सांस चल रही हो. लगातार बहुत देर तक देखती रही. अगर जरा भी उनके सांस लेने का आभास मिल जाए तो!

इतनी यथार्थवादी होने के बावजूद भी मैं आज भी मौत को मान नहीं पाती हूं. मेरी मां मेरे सामने गुजरी थीं. पिताजी की मृत्यु के समय मैं वहां नहीं थी. मेरे देश की सरकार ने पिताजी के आखिरी समय में उन्हें एक बार देखने के लिए भी मुझे नहीं जाने दिया. राजेंद्र जी जिस तरह लेटे हुए थे, हो सकता है मेरे पिताजी भी वैसे ही लेटे हुए हों. लग रहा था कि शायद वे सो रहे हैं. जैसे अचानक शोर-शराबे से वे जाग जाएंगे.

लेकिन मेरे पिताजी नींद से नहीं जगे. राजेंद्र जी भी नींद से नहीं जगे. हम लोग जो जिंदा हैं, जो अभी राजेंद्र जी के लिए शोकग्रस्त हैं, एक दिन इसी तरह हम सब भी मर जाएंगे. पर हममें से कितने लोग जी पाएंगे, राजेंद्र जी जैसा विविध जीवन.

वे हमेशा अपने घर पर बौद्धिक लोगों की महफिल जमाते थे. उस महफिल में हर उम्र की महिला व पुरुष होते. वे प्रतिभावान नौजवान और नवयुवतियों के साथ समय गुजारते थे. जिनके साथ वे विचारों का आदान-प्रदान करते, उन्हें लिखने का उत्साह देते थे. वे औरतों के जीवन के अनुभवों को, उनके प्रतिवादों को, उनके नजरिए और उनकी भाषा को ज्यादा महत्व देते थे. वे अंधेरों को टटोलकर हीरों के छोटे-छोटे टुकड़े बीन लाते थे.

बंगाल से खदेड़ दिए जाने के बाद जबसे मैंने स्थायी तौर पर दिल्ली में रहना शुरू किया, जब बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं ने डर के मारे अपने आपको सिमटाकर संकुचित कर लिया. सिवा मेरे सबको छपने का अधिकार था, यहां तक कि जनसत्ता ने भी जब मेरे लेखों को बहुत पैना कहकर खारिज कर दिया, तब राजेंद्र जी ने मुझे अपनी पत्रिका हंस के लिए नियमित रूप से लिखने के लिए कहा. उन्होंने मुझे दूसरे संपादकों की तरह कभी नहीं कहा कि धर्म की निंदा करना, सरकार को बुरा-भला कहना, भारतीय परंपराओं को हेय बताना या धर्म व्यवसायी बाबाओं के बारे में कटु बातें कहना नहीं चलेगा. किसी भी विषय में, कुछ भी लिखने की स्वतंत्रता दी थी राजेंद्र जी ने मुझे. दूसरी पत्रिकाओं के संपादक अरे-रे-रे कहकर भाग जाते हैं. धर्म की किसी भी तरह की आलोचना कोई नहीं बर्दाश्त करता है. लेख काट देते हैं, नहीं तो सेंसर की कैंची चलाकर सत्यानाश कर देते हैं. राजेंद्र जी ने मेरे किसी भी लेख को अप्रिय सत्य रहने के अपराध में खारिज नहीं किया. उस पर कैंची नहीं चलाई. वे ठीक मेरी तरह बोलने की आजादी पर 100 फीसदी विश्वास करते थे. राजेंद्र जी की काफी उम्र हो चुकी थी. पर उससे क्या? वे बहुत ही आधुनिक इंसान थे. उनको घेरे रहने वाले जवान लड़के-लड़कियों से भी कहीं ज्यादा  मॉडर्न और सबसे ज्यादा  मुक्त मन के इंसान.

कुछ समय पहले उन्होंने हंस पत्रिका के वार्षिक उत्सव में गालिब ऑडीटोरियम में ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’’ को लेकर एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया था. तय हुआ कि मैं वहां बोलूंगी पर सुरक्षा कारणों से मैं अंततः वहां जा नहीं पाई. कार्यक्रम के बीच से उन्होंने कई बार मुझे फोन किया. बहुत अनुरोध किया. इस बात पर वे बिल्कुल विश्वास नहीं करते थे कि मुझे मारने के लिए चारों तरफ मुसलमान कट्टरपंथी तैयार बैठे हैं. मैं भी नहीं करती हूं. अब अभी भी लोगों की भीड़ देखते ही, यादों का एक वीभत्स झुंड मुझे जकड़ लेता है. किसी भी समय, कोई भी कट्टरपंथी कुछ भी अनिष्ट कर देगा. और यह धक्का न संभाल पाने पर अगर सरकार बोल बैठे कि देश छोड़ो. मैंने बंगाल को खोया है. भारत को खोने का दर्द मैं नहीं सह पाऊंगी.

इधर सुरक्षाकर्मियों ने मुझे फिर से सावधान किया है कि भीड़ के बीच, किसी भी मंच पर मैं न जाऊं. राजेंद्र जी ने मुझे कार्यक्रम में जाने का आमंत्रण दिया था. मैंने वादा भी किया था कि मैं जाऊंगी. पर मैं उनकी बात रख न सकी. उन्हें बहुत दुख पहुंचा. कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र पर वे मेरा नाम देना चाहते थे. मैंने नाम न देने का अनुरोध किया था. कहा था कि अचानक ही आ जाऊंगी. उन्होंने मेरी बात रखी और निमंत्रण-पत्र पर मेरे नाम का उल्लेख नहीं किया. उन्हें विश्वास था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मेरा वक्तव्य मूल्यवान होगा. लिखने की वजह से ही पूर्व और पश्चिम बंगाल से मेरा निर्वासन हुआ. बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में मैं एक निषिद्ध नाम हूं. कई किताबें प्रतिबंधित हुई हैं. मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगाने और मुझे मृत्युदंड देने के लिए शहर में लाखों लोगों का जुलूस निकला था. उसी निषिद्ध इंसान को अपने जीवन के अंतिम कार्यक्रम में राजेंद्र जी सम्मान देना चाहते थे. निषिद्ध लेखक को देखकर, दूसरे लेखकों को, बुद्धिजीवियों को, डर से दूर जाते देखा है, पर राजेंद्र जी फूलों की माला हाथों में लेकर आगे आए थे. राजेंद्र जी निश्चित रूप से सबसे अलग थे.

राजेंद्र जी को लेकर आखिरी दिनों में मैंने तरह-तरह की बातें सुनी थीं. बिहार से आई ज्योति कुमारी नाम की लड़की को उन्होंने नौकरी दी, लिखने का अवसर और सुविधाएं दीं. उसकी किताब प्रकाशित करवाने में मदद की  और लाड-दुलार में उसे सिर पर चढ़ा लिया था. इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं हुईं कि तरह-तरह के विवाद खड़े होने लगे. ज्योति कुमारी और राजेंद्र जी को लेकर लोग तरह-तरह की अशोभनीय बातें कहने लगे.

उधर दूसरे दल के लोग कहते फिर रहे थे कि लड़की अच्छी नहीं है. इस पुरुषतांत्रिक देश में लड़कियों के बारे में बुरी बातें बोलने वाले लोगों की कमी नहीं है. राजेंद्र जी जैसे जिंदादिल इंसान को मैं बाहर के लोगों की बातें सुनकर दोष नहीं दे सकी, या फिर लोगों की बातें सुनकर उस लड़की को भी ‘‘वह अच्छी लड़की नहीं है,’’ नहीं कह सकी. राजेंद्र जी ने बहुत-सी लड़कियों से स्नेह किया है. बहुतों को प्यार भी किया है, पर किसी लड़की की अनुमति के बगैर उस पर कोई दबाव डाला हो या उसका स्पर्श भी किया हो, ऐसा उनके शत्रुओं ने भी नहीं कहा है.

जिस दिन मेरे घर पर उनसे मेरी आखिरी मुलाकात हुई थी, उस दिन अचानक उन्होंने मुझसे पूछा, ‘‘लेखक सुनील गंगोपाध्याय के विरुद्ध मेरे अभियोग की क्या वजह थी?’’ मैंने कहा, ‘‘सुनील का मैं बहुत सम्मान करती थी पर एक दिन अचानक उन्होंने मेरी अनुमति के बिना मेरे शरीर को छुआ था. विरोध करना उचित था, इसीलिए विरोध किया. दूसरी लड़कियों के जीवन में यौन शोषण होने पर विरोध करती हूं तो अपने जीवन में घटने पर मुंह बंद करके क्यों रहती?’’ राजेंद्र जी मुझसे सहमत थे. उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि सुनील के खिलाफ मेरा शिकायत करना उचित नहीं था.

जवान युवक-युवतियां राजेंद्र जी को हमेशा घेरे रहते. वे बहुत श्रद्धा से उन्हें याद करते थे. मैंने उन लोगों को कहते सुना है कि हमने पिता खो दिया है. राजेंद्र जी द्वारा स्नेहधन्य कवि और लेखक, राजेंद्र जी की तरह आजाद विचारों के विश्वासी हों. किसी भी अप्रिय सत्य को बोलने में उन्हें कोई हिचकिचाहट न हो. क्या बनेगा कोई ऐसा?

जैसे मैंने अपनी आत्मकथा लिखते समय कुछ भी नहीं छुपाया, हाल ही में उनकी लिखी हुई, स्वस्थ व्यक्ति के बीमार विचार किताब में राजेंद्र जी ने भी अपने बारे में कुछ भी नहीं छुपाया है. उन्होंने अपनी जिंदगी के बारे में लिखा, अपने सारे संबंधों के बारे में लिखा. उन्होंने, समाज की नजरों में जो वैध है, अवैध है, वह सबकुछ लिख डाला. लोग क्या कहेंगे इसके बारे में नहीं सोचा. क्या, कभी, कोई हो सकेगा उनके जैसा निष्कपट? क्या जिन्हें वे छोड़ गए हैं, वे सब उन्हीं की तरह अपने विचारों को खुलकर कहने की आजादी पर विश्वास करते हैं? :तसलीमा नसरीन
Tribute to Rajendra Yadaw by Taslima Nasrin
सौजन्य से: आजतक/इंडिया टुडे
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Wednesday, November 6, 2013

आखिर टीवी में खबरों का टोटा क्यों है... Nadeem S. Akhter



आखिर टीवी में खबरों का टोटा क्यों है??---------------------------

नदीम अख्तर
प्रोफेसर, आईआईएमसी

खबर के लिए मैं कभी किसी एक माध्यम पर निर्भर नहीं होता. जब-जैसी जरूरत होती है, उस चीज का सहारा ले लेता हूं. इंटरनेट, टीवी, रेडियो, अखबार, सोशल मीडिया और मित्रगण. ऐसा भी नहीं है कि इनमें से कोई एक चीज किसी दिन ना देखूं-सुनूं तो खाना हजम नहीं होगा, बेचैनी बढ़ जाएगी, बीपी बढ़ जाएगा. 
मैं इस बात से भी इत्तफाक नहीं रखता कि अगर अखबार नहीं आए-मिले तो टीवी के लिए खबरों का टोटा पड़ जाएगा. अगर ये बात है तो क्या यह मान लिया जाए कि अखबार में सुपर रिपोर्टर्स रहते हैं और टीवी में कमतर रिपोर्टर. नहीं, ऐसा नहीं है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने अपने खबरों के संचयन का कैसा तरीका अपनाया हुआ है. अगर आपने निर्भरता अखबार पर बढ़ाई है तो ये आपकी समस्या है. वरना टीवी चैनल्स के पास रिपोर्टर्स और स्ट्रिंगर्स का जो लंबा चौड़ा देशव्यापी नेटवर्क होता है, वह तो अच्छे-अच्छे बड़े अखबारों के पास भी नहीं होता. हर प्रमुख राज्य में एक ब्यूरो चीफ और उसके साथ उस राज्य में ही रिपोर्टर्स-स्ट्रिंगर्स की एक पूरी सेना. तब अंदाजा लगा लीजिए कि भारत में कितने राज्य हैं और ये नेटवर्क कितना बड़ा होगा. और अखबार की तरह टीवी में भी स्ट्रिंगर्स को बंधा-बंधाया पैसा देने की परंपरा नहीं है. अगर भूले-भटके कभी स्टोरी चल गई तो उसका पैसा मिल जाता है. लेकिन स्ट्रिंगर अपने इलाके में उस चैनल (या यूं कहें कि कई चैनल्स) का संवाददाता बनकर सालभर घूमता है. खबरें शूट करके भेजता भी है. ये अलग बात है कि उचित मार्गदर्शन के आभाव में और टीआरपी की रेस के कारण उसकी भेजी ज्यादातर खबरें Assignment desk कूड़े के डिब्बे में डाल देता है. हर टीवी चैनल में यही होता है. हिन्दी का हो या अंग्रेजी का या किसी और भाषा का. और फिर कहा जाता है कि टीवी में खबरों के लाले पड़ गए हैं. आखिर कैसे भइया???
तो जरुरत अखबारों पर निर्भरता बनाने-बताने की बजाय अपना सिस्टम सुधारने की है. टीवी के अगर कुछ रिपोर्टर आरामतलब या यूं कहें कि -खबर उठाऊ- टाइप हो गए हैं, तो इसे कौन ठीक करेगा?? इसके लिए कौन जिम्मेदार है??? आप न्यूज मीटिंग में अखबार के रिपोर्टर से बात करिए और टीवी के रिपोर्टर से. अखबार का रिपोर्टर जहां आपको तीन-चार स्टोरी आइडिया बताएगा, वहीं टीवी का रिपोर्टर एक या ज्यादा से ज्यादा दो आइडियाज. ये ठीक है कि दोनों माध्यम अलग हैं और दोनों में खबरों के चयन-प्रकाशन-प्रसारण के अलग नियम-रूल्स होते हैं, तरीका होता है, पर ये तो हो ही सकता है कि जो पत्रकार जिस विधा में काम कर रहा है, वह उसकी जरूरतों के अनुसार स्टोरी आइडिया ढूंढे और बताए. और अगर विधा का बहाना बनाकर आप अपनी कमजोरी छुपाते हैं तो फिर अखबार से स्टोरी उठाकर उसे टीवी के लायक आप कैसे बना लेते हैं?? ये भी बताना होगा.
सच ये है कि टीवी में news gathering का वही पुराना चला-चलाया ढर्रा आज तक चल रहा है. कुछ एजेंसी से ले लो, कुछ अखबार देख के उठा लो और एकाध स्टोरी अपना टीवी वाला रिपोर्टर तो बता ही देगा. अगर ये भी कम पड़ गया तो इंटरनेट पर कोई तड़क-भड़क-सांप-बिच्छू-भूत-प्रेत-रहस्य-रोमांच वाली स्टोरी खोज लो. फिर youtube से उससे मिलते-जुलते विजुअल निकालो और पैकेजिंग करके स्टोरी या आधे घंटे का शो बना दो. मेरे ख्याल से ज्यादातर चैनलों में यही हो रहा है. सच तो ये है कि news gathering और content planning पर यहां नए सिरे से सोचने की जरूरत है. और ये तभी होगा जब आपकी priorities तय होंगी. खबरों को लेकर क्या दृष्टिकोण अपनाना है, कैसी खबरें लेनी है या चलानी है, ये guidelines क्लियर होंगे. फिलहाल तो ये दिखता है कि एक दफा hard news और सरोकारी खबर की बात टीम से कह दी जाती है और अगले ही पल चैनल का एजेंडा बदल जाता है. जब दूसरे चैनल हजार टन सोना ढूंढने निकलते हैं तो फिर क्या दूध और क्या पानी. सब बराबर. फिर सारे एजेंडे एक तरफ और टीआरपी वाली खबर सब पर भारी. यानी खजाना ही चलेगा, बाकी स्टोरीज गईं तेल लेने. Assignment और रिपोर्टर्स की सारी मेहनत बेकार. वो भी हाथ पर हाथ धरे बैठ जाते हैं कि जब स्टोरी चलनी ही नहीं है तो फिर काहे कोई सिर फोड़े. 
लेकिन अखबार में ऐसा नहीं है. अगर खबर मंगाई जाती है या भेजी जाती है तो यथासंभव उसे तवज्जो दी जाती है. अगर स्टोरी में -time value- है तो उसे story bank मे डाल दिया जाता है और जरूरत पड़ी तो नए सिरे से डिवेलप कराकर स्टोरी छापी जाती है. रिपोर्टर्स की मेहनत बेकार नहीं जाती वहां पर. उनका हौसला इतना नहीं तोड़ा जाता, जितना टीवी में तोड़ा जाता है. जब 1000 टन खजाना चलेगा तो फिर डिस्कशन भी उसी पर होगा, स्टोरी भी उसे से संबंधित जाएगी. तब आपके नैशनल-मेट्रो-स्टेट ब्यूरो sleeping mode में चले जाएंगे. हां, अगर कुछ Breaking हो गया तो थोड़ी देर के लिए उस खबर पर जाएंगे और फिर पुराने ढर्रे-आलाप पर लौट आएंगे. 
सो टीवी में जब खबरों के चयन-संचयन-प्रसारण और उसकी योजना का ये हाल होगा तो -खजाने वाली या उसके जैसी स्टोरी- नहीं होने पर आपके यहां खबरों का टोटा तो होगा ही. इसके लिए आप लोग ही जिम्मेदार हुए ना. वरना यदि रोज priority के अनुसार खबर मंगाने और उसे चलाने का ढर्रा बना दिया जाए तो टीवी माध्यम के हिसाब से ही (visual के साथ) खबरों का टोटा या कंगाली कैसे होगी???!!! इतना विशाल देश है और पल-पल यहां कई खबरें जन्म ले रही हैं. ऐसे में अखबार के बिना खबरों के आकाल की बात मेरे गले नहीं उतरती. हां, ये जरूर है कि टीवी वालों को यदि आरामतलबी की आदत हो गई है, दूसरों की मेहनत टीपने की लत पड़ गई है (अखबार से खबर उठाकर उसे लीपपोत के पेश कर दो) और ये उनके work culture में शामिल हो गया है, तो खबरों का टोटा उनको जरूर होगा. और ये work culture ऐसा है, जो हर सीनियर अपने जूनियर को सिखाता जा रहा है, पीढ़ी दर पीढ़ी. कि बेटा, ज्यादा दिमाग मत लड़ाओ. ऐसे प्लान करो और बॉस को खबरें परोस दो. चल गया चैनल.
तो अखबार की ही तरह टीवी में जरूरत है long term planning की. अरे खबरें इतनी है कि आप चला नहीं पाओगे. 24 घंटे कम पड़ जाएंगे आपको. बस जरूरत है मजबूत इच्छाशक्ति की और ढर्रा बदलने की हिम्मत की. जब टीवी इस देश में शुरु हुआ तो किसी ना किसी ने बैठकर इसके लिए news gather का तरीका बनाया होगा ना. तो इतना समय बदल गया, जरूरतें बदल गईं, दर्शकों के टेस्ट बदल गए, मार्केट का dynamics बदल गया, फिर खबरों के संकलन का तरीका लगभग पहले जैसा ही क्यों, क्यों वही पुराना ढर्रा?? लगभग सारे चैनलों में. अपनी जरूरत के हिसाब से अपना खुद का तरीका डिवेलप करिए ना. नया work culture बनाइए ना. अगर ये बन जाए तो शायद टीवी की खबरों में भी कुछ ताजगी आए. रिपोर्टर्स का हौसला बढ़े और फिर खबरों का टोटा ना रहे. कितना अच्छा हो हर चैनल पर हर तरह की खबर. सबके अपने-अपने exclusive. अखबार के भी अपने exclusive. फिर टीवी और अखबार एक-दूसरे से खबरें ले और डिवेलप करे. यानी News-खबरों का पूरा bombardment. जनता की जय-जय. सबका दुख सुना जाएगा, सबसे हिसाब लिया जाएगा. यही तो है लोकतंत्र का असली मतलब और मीडिया के चौथे खंभे होने की सार्थकता.

Monday, November 4, 2013

मीडिया हाउसेज के स्वार्थ, तो ओपिनियन पोल्स पर बैन क्यों नहीं?



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Nadeem Akhtar,
Pro., IIMC
 

बहुत-बहुत अच्छा होगा, अगर बेसिर-पैर के टेढ़े-मेढ़े ओपिनियन पोल पर पाबंदी लग जाए. इस लोकतंत्र का भला होगा. हां, ऐसे सर्वे कराने वाले बहुत से संस्थानों की दुकानदारी बंद हो जाएगी, टीवी चैनलों पर एक high profile TRP मसाला कम हो जाएगा, उनकी 'Bargaining' की ताकत कम हो जाएगी, टीवी स्क्रीन पर चुनाव परिणाम का ज्ञान देने वाले विद्वतजनों की कमाई थोड़ी घट जाएगी और टीवी से लेकर प्रिंट मीडिया तक किसी पार्टी-व्यक्ति विशेष को चुनाव में आगे दिखाकर मतदाताओं को गुमराह करने की प्रवृत्ति पर रोक लगेगी. 
ये opinion poll भी टीवी के TRP Meter की तरह ही फ्रॉड होते हैं. महज कुछ हजार लोगों की 'राय' जानकर ये करोड़ों-लाखों लोगों द्वारा दिए जाने वाले वोट का रूझान बता देते हैं. यानी सैम्पल साइज इतना छोटा कि पूरा का पूरा सर्वे ही निरस्त किए जाने लायक है. यही हाल TRP बताने वाले method का भी है. लेकिन चालबाजी देखिए कि शुतुरमुर्ग की तरह मुंडी बालू में घुसाकर शान से TRP & Opinion Polls को ऐसे प्रोजेक्ट किया जाता है, जैसे भाई लोगों ने एक-एक घर जाकर पूछा हो. उनके दिमाग-टीवी सेट को स्कैन किया हो. हद होती है बेशर्मी की भी. 


लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. ये बहुत बड़े वाले बेशर्म हैं. गालथेथर हैं. गालबजाऊ हैं. इस अवैज्ञानिक सर्वे को वो ऐसे आपके सामने पेश करते हैं, जैसे बस चुनाव होने की देर है. सरकार उसी पार्टी की बनेगी, जिसकी वो बात कर रहे हैं. इनकी पोल तो उसी समय खुल गई थी, जब 2004 में सारे ओपिनियन पोल्स ने एनडीए की सत्ता में वापसी का बिगुल बजा दिया था. अटल बिहारी वाजपेयी के 'करिश्मे' और इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ बीजेपी को कॉरपोरेट्स-बाजार-ओपिनियन पोल्स ने दुबारा गद्दी मिलने की बात कही थी. लेकिन हुआ इसके ठीक उलट. कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए ने एनडीए को बुरी तरह पछाड़ दिया. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और Opinion Polls की ऐसी पोल-पट्टी खुली की पूछिए मत. फिर भी ये ऐसे छिछोरे हैं कि अब तक जमे हुए हैं. हर इलेक्शन से पहले इन्हें अपनी तिजोरी भरनी होती है. राजनीतिक पार्टियों और मीडिया हाउसेज के एजेंडे को implement करना होता है. और बहाना होता है opinion polls का.


सबसे गंभीर चर्चा का विषय ये है कि जिन media houses के मार्फत ये opinion polls दिखाए-छापे जाते हैं, ये देखना बहुत जरूरी है कि उन media houses का मालिकाना हक किनके पास है? कुछ चैनलों और अखबारों का मालिकाना हक तो सीधे-सीधे किसी पार्टी के नेताजी के पास है. तो क्या यह संभव है कि अपने चैनल या अखबार के माध्यम से नेताजी जो opinion polls दिखाएंगे या छापेंगे, उसमें वह अपनी पार्टी की हार दिखा दें और विरोधी की जात दिखा दें. ऐसा ना आज तक हुआ है और ना होगा. तो इसका मतलब है कि सीधे-सीधे वह अखबार या चैनल संबंधित पार्टी का मुखपत्र बन जाता है, जिसे -एक निष्पक्ष मीडिया हाउस का सर्वे- बताकर opinion polls बाजार में बेचे जाते हैं. इसके द्वारा जनता की राय को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है. यानी हींग लगे ना फिटकरी और रंग भी चोखा. संबंधित पार्टी के घोषित मुखपत्र के अलावा यह एक ऐसा -अघोषित मुखपत्र- होता है, जिसे निष्पक्ष मीडिया का लबादा ओढ़ाकर राजनीतिक पार्टीयां पर्दे के पीछे से खेल करती हैं.


अब बात उन मीडिया हाउसेज की, जिनके मालिक किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़े हैं. लेकिन यहां भी पूंजी निजी हाथों में केंद्रित है. कुछ मालिकों के मीडिया बिजनेस के अलावा भी कई तरह के लंबे-चौड़े बिजनेस होते हैं. साथ ही कुछ मीडिया हाउसेज के शेयरों को देश की नामी-गिरामी कंपनियों के मालिकों ने खरीद रखे हैं. सो खेल यहां भी होता है. कभी पेड न्यूज की शक्ल में तो कभी.... जब आपके business interests होंगे तो जाहिर है, सरकार आपको प्रभावित कर सकती है. करती भी है. साथ ही कुछ media houses के मालिक किसी खास पार्टी के प्रति वफादार देखे गए हैं. उनकी यह वफादारी अखबार में उनके संपादकीयों और टीवी में खबरों के सेलेक्शन-प्रसारण तथा कुछ खास खबरों को drop करके उन्हें ना दिखाने की policy के तहत देखने-जानने को मिलती रहती है. ऐसी स्थिति में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि ये तथाकथित ---स्वतंत्र और निष्पक्ष-- मीडिया संस्थान अगर opinion poll दिखाएंगे या छापेंगे तो किस पार्टी का पक्ष लेंगे?? वह भी तब, जब ऐसे opinion polls को दिखाने-छापने की कोई जवाबदेही नहीं होती. मतलब कि opinion poll गलत साबित होता है तो सर्वे करने वाली एजेंसी या छापने-प्रसारण करने वाले मीडिया हाउसेज पर किसी तरह को ना तो कोई जुर्माना लगता है और ना ही उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की जा सकती है. जिस पार्टी या व्यक्ति को opinion polls में हारता दिखाया जा रहा था, अगर वह जीत जाता है तो ऐसा नहीं देखा गया है कि उन्होंने सर्वे करने वाली एजेंसी या उसे दिखाने-छापने वाले मीडियाहाउस के खिलाफ कोई मानहानि का मुकदमा भी किया हो.

तो पूरा मैदान खुला है opinion polls के इस फर्जीवाड़े को करने के लिए. जो जिसे चाहता है, जिस पार्टी को चाहता है, अपने सर्वे के माध्यम से उसे जीतने वाला बता देता है. इस पर भी एक व्यपाक रिसर्च की जरूरत है कि इन opinion polls का वोटरों पर क्या असर पड़ता है? क्या इसे देखकर वह भी अपनी राय बनाते या बदलते हैं और उस कैंडिडेट-पार्टी को वोद दे देते हैं, जिसे opinion poll में जीतता हुआ बताया जा रहा है?. इन opinion polls में निष्पक्षता और पारदर्शिता का आभाव तो होता ही है, साथ ही जवाबदेही की पूर्णतः कमी होने के कारण लोकतंत्र के एक महत्वपूर्ण उत्सव यानी वोटिंग प्रक्रिया को हाईजैक करने की ये पूरी-पूरी कोशिश करते हैं. सबके अपने एजेंडे हैं और अपने निहित स्वार्थ. सो भारतीय लोकतंत्र पर कुठाराघात करने वाले इन अवैज्ञानिक opinion polls पर चुनाव आयोग को जल्द से जल्द पाबंदी-बैन लगाना चाहिए. हम वोटिंग से पहले छद्म रूप में आकर जनता-जनार्दन की राय को प्रभावित करने का मौका किसी को नहीं दे सकते. किसी को भी नहीं.
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