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Monday, October 21, 2013

मित्रो, मार्क्सवाद फिर से पढें: जगदीश्वर चतुर्वेदी

मार्क्सवाद को लेकर आभासी दुनिया में मचे घमासान और प्रोफ़ेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी द्वारा संघी विचारधारा के वेब पोर्टल द्वारा दिए गए सम्मान को लेकर मची वैचारिक मारामारी के बीच खुद जगदीश जी ने अपनी और अपने नजरिए से मार्क्सवाद के बारे में कुछ विचार रखे हैं।
प्रवक्ता.कॉम द्वारा दिए गए सम्मान को लेकर भी उन्होंने अपनी बात रखी है। चतुर्वेदी जी ने एक कमेंट में अपनी बात रखते हुए कहा, 'वहां पुरस्कार जैसा कुछ नहीं था वह एक युवा मीडियाकर्मियों का कार्यक्रम था ।मैं युवाओं में रहता हूँ, वे मुझे अपील करते है ऊर्जा के कारण वे पढते हैं मुझे। एक लेखक -पाठक के बीच संवाद-परिचय हो, इसलिए गया था। वे कोई इनाम बगैरह नहीं देते। वह इवेंट मात्र था।' 
इस बीच हार्डकोर वामपंथियों द्वारा मचाए गए उत्पात पर उन्होंने उन्हें जमकर झाड लगाने के साथ ही उनके लिए कई सारी सीखने वाली बाते भी रखी हैं, और यह भी बताया है कि किस प्रकार उनका मार्क्सवाद से मोहभंग हुआ। उन्होंने मार्क्सवाद के बारे/आधुनिक प्रासंगिकता को लेकर कई सारे स्टेटस लिखे हैं। इस दौरान उन्होंने 'आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें' शीर्षक के तहत 10 अलग अलग खंड में मार्क्सवाद का पाठ भी पढाया है, जिन्हें उनके फेसबुक वाल से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है। सभी स्टेट्स को अलग-अलग रंगों में प्रकाशित किया गया है, ताकि वह आसानी से एक-दूसरे से अलग पहचाने जा सकें।
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प्रवक्ता.कॉम के कार्यक्रम में
वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव द्वारा
प्रोफ़ेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी
'प्रवक्ता सम्मान' ग्रहण करते हुए। 
प्रवक्ता डॉट कॉम पर मेरे द्वारा दिए गए वक्तव्य पर जितनी व्यापक चर्चा मित्रलोग कर रहे हैं और विचारधारा की अवधारणा की मन माफिक व्याख्या कर रहे हैं वह हिंदी में मजे की चीज है। अभी मार्क्सवाद को नए सिरे से पढने की जरुरत लोग महसूस कर रहे हैं ? या बिना पढे ही लिख रहे हैं ? अभी तक तो यही लग रहा है कि मार्क्सवाद की संभावनाएं बाकी हैं लेकिन यदि मार्क्सवाद को विचारधारा और दर्शन बनाया गया तो मार्क्सवाद तो डूबा हुआ समझो। मार्क्सवाद न तो विचारधारा है और न दर्शन है। बल्कि विश्वदृष्टि है।दुनिया को देखने का वैज्ञानिक नजरिया है। हम चाहेंगे कि मित्रगण इसी बहाने मार्क्स-एंगेल्स आदि को नए सिरे से पढें और बताएं कि मार्क्सवाद को विचारधारा कहें या विज्ञान कहें?


फेसबुक पर मार्क्सवाद के पक्ष में गिनती के लोग हैं और वे भी देश विदेश की समस्याओं और समाचारों पर कभी कभार लिखते हैं । उनकी मार्क्सवाद सेवा तब फलीभूत होगी जब वे देश -विदेश की समस्याओं पर जमकर नियमित लिखें।
मार्क्सवाद को अनपढ मार्क्सवादियों से सबसे ज्यादा ख़तरा है । मार्क्सवाद को दूसरा बड़ा ख़तरा उन लोगों से है जो मार्क्सवाद के स्वयं भू संरक्षक बन गए हैं । मार्क्सवाद की स्वयंभू संरक्षकों ने सबसे ज्यादा क्षति की है । मार्क्स - एंगेल्स का चिन्तन अपनी रक्षा करने में पूर्ण समर्थ है । हिंदी के स्वयंभू मार्क्सवादियों से यही कहना है कि वे पहले हिंदी में मार्क्सवाद के नजरिए से काम करके उसे समृद्ध करें और पाठक खोजें । आज हालत इतनी बदतर है कि देश में मार्क्सवाद पर तमीज की एक पत्रिका तक नहीं है । हिंदी में मार्क्सवादियों की किताबें लोग कम से कम पढ़ते हैं । क्या फेसबुक पर हंगामा करने से मार्क्सवाद का विकास होगा ? फेसबुक पूरक हो सकता है कम्युनिकेशन का लेकिन मात्र इतने से काम बनने वाला नहीं है । फेसबुक मार्क्सवादियों से विनम्र अनुरोध है कि वे कम से कम मार्क्सवाद जिंदाबाद करके मार्क्सवाद की सेवा कम और कुसेवा ज्यादा कर रहे हैं । मार्क्सवाद नारेबाजी की चीज़ नहीं है । मार्क्सवाद का संरक्षण और नारेबाजीमात्र अंततः कठमुल्ला बनाते हैं और कठमुल्लेपन का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है ।

मैं जब जेएनयू में पढता था और जेएनयूएसयू का अध्यक्ष था तो 1984 के दंगों के बाद संत हरचंद सिंह लोंगोवाल, सुरजीत सिंह बरनाला और महीप सिंह ये तीनों अकालीदल की ओर से जेएनयू के छात्रों और खासकर जेएनयू छात्रसंघ की भूमिका के प्रति आभार व्यक्त करने आए थे और बरनाला साहब ने मैसेज दिया कि संत लोंगोवाल मुझसे मिलकर बातें करना चाहते हैं और आभार के रुप में अकालीदल की कार्यकारिणी का प्रस्ताव देना चाहते हैं। उस समय जेएनयू में बडा तबका था जो मानता था कि मुझे संतजी से नहीं मिलना चाहिए क्योंकि उन्होंने आतंकवाद का समर्थन किया है। लेकिन मैं बहुसंख्यकों की राय से असहमत था और मैंने झेलम लॉन में आमसभा रखी जिसमें संतजी ने खुलकर अपने विचार रखे और जेएनयू छात्रसंघ के प्रति आभार व्यक्त किया था । मैं यह वाकया इसलिए लिख रहा हूँ कि राजनीति और विचारधारात्मक कार्यों में कोई अछूत नहीं होता। लोकतंत्र में जो वामपंथी अछूतभाव की वकालत करते हैं ,मैं उनसे पहले भी असहमत था आज भी असहमत हूँ। मेरे लिए माओवादियों से लेकर माकपा-सपा-बसपा-भाजपा या कांग्रेस अछूत नहीं हैं । इनके नेताओं या कार्यकर्ताओं से मिलना या उनके द्वारा संचालित मंचों पर आना जाना स्वस्थ लोकतांत्रिक कर्म है और इसी नजरिए से हमें प्रवक्ता डॉट कॉम के पुरस्कार कार्यक्रम को भी देखना चाहिए।


हिंदी के अधिकांश फेसबुक मार्क्सवादी मार्क्सवाद को पूजा की चीज बनाकर बातें करते हैं। मार्क्सवाद पूजा की चीज नहीं है। ये लोग मार्क्सवाद को पूजा और अंधश्रद्धा की चीज बनाकरअंततःबुर्जुआजी की सेवा करते हैं। पूजाभाव से बुर्जुआजी को कोई शिकायत नहीं है। मार्क्सवादी कूपमंडूकता से भी बुर्जुआजी को कोई शिकायत नहीं है। कूपमंडूक और फंडामेंटलिस्ट मार्क्सवादियों को बुर्जुआजी बढ़-चढ़कर चंदा भी देता है। मार्क्सवाद जीवन को बदलने का विज्ञान है। यह दर्शन नहीं है और न विचारधारा है। यह बार बार यथार्थ की कसौटी पर कसने और खरा उतरने की मांग करता है। अब तक के सभी विचारों में सबसे ज्यादा पारदर्शी,सर्जनात्मक और परिवर्तनकामी विश्वदृष्टि है। इसका कूपमंडूकता,कठमुल्लेपन और पूजाभाव से बैर है और आलोचनात्मकता से प्रेम है।


हिंदी में कठमुल्ले मार्क्सवादी वे हैं जो मार्क्सवाद को विकृत ढ़ंग से प्रचारित करते हैं। इनमें यह प्रवृत्ति होती है कि अपने विचार थोपते हैं। 
कठमुल्ले मार्क्सवादी कहते हैं आपने यह नहीं लिखा, आपने वह नहीं लिखा,आपने यह नहीं कहा, आपने वह नहीं कहा।वे जो बोला या लिखा जाता है उसमें सुविधावादी तरीके से चुनते हैं और फिर उपदेश झाडना आरंभ कर देते हैं। 
कठमुल्ले मार्क्सवादी भाषा के तेवर कहीं से भी मार्क्सवादी परंपरा के अनुरुप नहीं हैं। मार्क्सवाद में अवधारणाओं का महत्व है और अवधारणाओं की मार्क्सवादी विचारकों में बहुलतावादी परंपरा है। हिंदी के फेसबुकिए मार्क्सवादी और किताबी मार्क्सवादियों का एक बड़ा हिस्सा मार्क्सवाद में व्याप्त बहुलतावाद को नजरअंदाज करता है और यांत्रिक तौर पर मार्क्सवाद की रक्षा के नाम पर हमले करता रहता है ।मार्क्सवाद में विचारों की बहुलता है और अन्तर्विषयवर्ती पद्धतिशास्त्र को भी विकसित किया गया है जो द्वंद्वात्मक पद्धति से आगे की चीज है। हिंदी के कठमुल्लों की मुश्किल यह है कि वे ठीक से न तो मार्क्सवाद जानते हैं और न यह जानते हैं कि क्लासिकल मार्क्सवादी परंपराओं पर परवर्ती मार्क्सवादी किस तरह भिन्न मतों का प्रदर्शन करते रहे हैं। मार्क्सवाद में भिन्नताओं और बहुलताओं के लिए व्यापक स्पेस है। अन्य के विचारों को मानना या सीखना और फिर नए की खोज करना मार्क्सवाद की वैज्ञानिक खोजों का हिस्सा रहा है। हिंदी का कठमुल्ला मार्क्सवादी मार्क्सवाद के बहुलतावाद से नफरत करता है और मार्क्सवाद को इकसार बनाने में लगा है। मार्क्सवाद का इकसारता से बैर है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 1-

फेसबुक पर युवाओं की सक्रियता खुशी देती है और उनकी तेज प्रतिक्रिया ऊर्जा देती है लेकिन यदि वह प्रतिक्रिया मार्क्सवादी विभ्रमों और विकृतियों की शिकार हो या वामपंथी बचकानेपन की शिकार हो तो मार्क्स-एंगेल्स का पाठ फिर से पढने -पढाने को मजबूर करती है।मेरे प्रवक्ता सम्मान समारोह पर चंद वामपंथी दोस्तों की तेजतर्रार प्रतिक्रिया ने फेसबुक पर गर्मी पैदा की है। मेरा उनसे कोई निजी पंगा नहीं है और मैं उनमें से सभी से कभी मिला तक नहीं हूँ। मैं निजीतौर पर वस्तुगत बहस में विश्वास करता हूँ और मैं चाहता हूँ कि यह बहस हो। वे भी निजी तौर पर मुझे नहीं जानते जितना भी परिचय है वह वर्चुअल है। ये सभी वामपंथी मित्र हैं और जमे हुए लेखक भी हैं। मैंने उनका वही पढा है जो नेट पर है।मैं निजी तौर पर उनका सम्मान करता हूँ। इस बहस का बहाना हैं वे लेकिन निशाने पर प्रवृत्तियां हैं ।
हमारे नेटमार्क्स प्रेमियों की उत्तेजना यदि सच में सही है तो उनको मार्क्स को लेकर नए सिरे बहस चलानी चाहिए और देखना चाहिए कि वहां क्या सार्थक है और ग्रहणयोग्य है। मार्क्सवाद जिंदाबाद करने से काम नहीं चलने वाला।
मार्क्स के दामाद थे लांफार्ज वह मानते थे कि मार्क्स की रचनाओं से विचारों की व्यवस्था और थ्योरी निकल रही है और यह मार्क्सवाद है। मार्क्स को जब यह बताया गया कि लोग आपके लिखे को मार्क्सवाद कह रहे हैं तो इसके जबाव में मार्क्स ने एंगेल्स को कहा था कि "मैं मार्क्सवादी नहीं हूँ। "


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 2-

एंगेल्स ने फायरबाख को "शेखीबाज मिथ्या विज्ञान " का विशिष्ट प्रतिनिधि कहा था। उसके लेखन को आडम्बरपूर्ण बकबास कहा था। इसके बावजूद उन्होंने भद्रता को त्यागा नहीं था।एंगेल्स की भद्रता उनके लेखन में है और कर्म में भी है। जिस समय बर्लिन विश्वविद्यालय ने फायरबाख की अकादमिक स्वतंत्रता पर हमला किया था उस समय एंगेल्स ने उसका प्रतिवाद किया था और इसे अन्याय कहा था। मार्क्सवाद पर बहस करते समय भद्रता बेहद जरुरी है ।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 3-

वामपंथी दोस्त क्रांति का बिगुल बजा रहे हैं और यह उनका हक है और उनको यह काम करना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे देश में लोकतंत्र संकट में है क्रांति नहीं।
प्रवक्ता डॉट कॉम के कार्यक्रम में मैंने कहा था हमारे देश में लोकतांत्रिक संरचनाएं तो हैं लेकिन हम अभी लोकतांत्रिक मनुष्य का निर्माण नहीं कर पाए हैं ।जरुरत है लोकतंत्र की और लोकतांत्रिक मनुष्य की। यही मुख्य बात थी जो वहां जोर देकर कही गयी थी।
फेसबुकिए वामपंथी मित्रों को सोचना चाहिए कि भारत में फिलहाल क्रांति को पुख्ता बनाएं या लोकतंत्र को ? हमें लोकतांत्रिक वामपंथी चाहिए या सिर्फ वामपंथी मनुष्य चाहिए ? क्या देश में क्रांति की परिस्थितियां है ?या लोकतंत्र को पुख्ता करने की जरुरत है ? वामपंथी मित्र जिन बातों को उछालते रहते हैं उनका लोकतंत्र के साथ कोई रिश्ता भी है या नहीं इसे देखना चाहिए।
कम से कम सीपीआई - सीपीएम के कार्यक्रम में कोई भी ऐसी बात नजर में नहीं आती जिससे पता चले कि देश क्रांति के लिए तैयार खडा है बल्कि यही नजर आता है कि बुर्जुआजी बार- बार और विभिन्न तरीकों से लोकतंत्र पर हमले कर रहा है। साम्प्रदायिकता इन हमलों में से एक है और यह काम वोटबैंक राजनीति से लेकर हिन्दू-मुस्लिम सदभाव को नष्ट करने के नाम पर संघ परिवार कर रहा है। इसी बात को मद्देनजर रखकर मैंने प्रवक्ता के कार्यक्रम में कहा था कि देश को लोकतंत्र में डेमोक्रेसी ही चाहिए। लोकतंत्र में लोकतंत्र का विकास होना चाहिए।
यह बताने की जरुरत नहीं है कि लोकतंत्र की सुविधाओं और कानूनों का तो हमारे वामपंथी-दक्षिणपंथी इस्तेमाल करना चाहते हैं लेकिन लोकतांत्रिक नहीं होना चाहते और लोकतंत्र के साथ घुलना मिलना नहीं चाहते। लोकतंत्र सुविधावाद नहीं है। लोकतंत्र में एकमेक न हो पाने के कारण वामपंथियों को आज गहरे दबाव में रहना पड रहा है। लोकतंत्र में भाजपा -बसपा-सपा सबका विकास हो सकता है तो वामपंथी दलों का विकास क्यों नहीं हो सकता ? वे क्यों सही नीतियों के बावजूद देश में समानरुप से विकास नहीं कर पाए ? यह हम सभी की चिन्ता में है। इसका समाधान है कि वामपंथीदल और वामपंथी बुद्धिजीवी लोकतांत्रिक बनें, अन्य का सम्मान करना सीखें। अन्य के सम्मान का अभाव उनकी अनेक बडी बाधाओं में से एक है।
वामपंथी सिर्फ अपने हाथों अपनी पीठ थपथपाते हैं और यह सही वामपंथी नजरिया नहीं है। वामपंथ 'स्व ' के लिए नहीं 'अन्य' के लिए बना है। वामपंथी को भी अपने कैडर की बजाय अन्य के प्रति उदार और सहिष्णु होना पडेगा और उसकी सामाजिक अवस्था को स्वीकार करना पडेगा।
मैं जानता हूँ प्रवक्ता डॉट कॉम को संघ के सदस्य चलाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि किस तरह चलाते हैं ? वामपंथी दलों और संगठनों में सामान्य सा वैचारिक लोकतंत्र नहीं है वहां पर तो अपने ही सदस्यों को नेट या अखबार में स्वतंत्र रुप में खुलकर कहने की आजादी नहीं है। वामदलों और उनके समर्थकों की वेबसाइट पर कोई वैचारिक भिन्नता नजर नहीं आती। यह क्या है ?क्या यह लोकतंत्र है ? कम से कम बुर्जुआजी से उदारता और अन्य के विचारों के लिए स्थान देने वाली बात तो सीखी जा सकती है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 4-

इंटरनेट और उस पर वेबसाइट एक तकनीकी कम्युनिकेशन है। इसे न तो आर्थिकश्रेणी बनाएं और न वैचारिक श्रेणी बनाएं। मार्क्स ने "दर्शन की दरिद्रता "में लिखा है - "पाउडर,पाउडर ही रहेगा,चाहे उसका इस्तेमाल किसी को घायल करने के लिए क्या जाय या जख्म को सुखाने के लिए किया जाय। " मोहन श्रोत्रिय और उनके समानधर्मा वामपंथी मार्क्स के इस कथन से कुछ तो सीखेंगे।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 5-

फेसबुक पर हंगामा करने वाले वामपंथी मित्र विलक्षणी मार्क्सवादी हैं वे हमेशा एक ही भाषा में बोलते हैं,एक जैसा सोचते हैं। उनके विचार समान हैं। वे नैतिकता के आधार पर बातें करते हैं ,द्वंद्वात्मकता के आधार बातें नहीं कर रहे। वे भले-बुरे के राजनीतिक सरलीकरणों के आधार पर तर्क दे रहे हैं कि मुझे वहां यह नहीं कहना चाहिए ,वह नहीं कहना चाहिए।
सवाल यह है कि द्वंद्वात्मकता के सहारे, विचारों के अन्तर्विरोधों के सहारे वे मार्क्सवाद को जनप्रिय क्यों नहीं बना पाते ? इस समाज में "वे अपवित्र और हम पवित्र " की धारणा के आधार पर वैचारिक संवाद और सामाजिक संपर्क-संबंध नहीं बनते। अंततःसंबंध सामाजिक प्राणियों में होता है और इसके लिए मिलना और करीब से जानना बेहद जरुरी है।




आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 6-

फेसबुकवामपंथी मित्र अशोक पाण्डेय ने लिखा है "आपने संघियो की महफिल में वाहवाही लूटने के लिए ख़ुद को कभी विचारधारा की कभी ज़रूरत न पड़ने की जो बात कही, और जिसका कोई अन्य विश्लेषण नहीं प्रस्तुत किया, उससे आप केवल ख़ुद को उस श्रेणी में सेट कर रहे थे जिसे थानवी के लिए आपने 'नो आइडियालजी' कहा था।"

बंधुवर, यहां ओम थानवी को काहे घसीट लाए वे कोई विचारक नहीं हैं । आपने जो बात कही है उसकी गंभीरता से मीमांसा की जानी चाहिए ,आप गंभीर वामपंथी होने का दावा करते हैं। आपने मेरे विचारों को संघियों की महफिल में वाहवाही लूटने से जोड़कर मेरी धारणाओं को पुष्ट किया है कि आपने मार्क्सवाद को ठीक से पढा ही नहीं है।
क्या मनुष्य की तमाम धारणाएं ,कल्पनाएं और भावनाएं परिवेश के प्रभाव का परिणाम होती हैं ?यदि परिवेश से विचार निर्धारित होते हैं तो मार्क्स का क्रांतिकारी नजरिया बुर्जुआ समाज में क्यों पैदा हुआ ? हमें इस यांत्रिक धारणा से मुक्त होना होगा कि मनुष्य का आत्मिक संसार उसके परिवेश का फल है। या मनुष्य के परिवेश से उसके विचार निर्धारित होते हैं।रुसी मार्क्सवाद के दादागुरु जी .प्लेखानोव बहुत पहले इस तरह की मानसिकता की मरम्मत कर गए हैं। इस समझदारी का मार्क्सवाद से कोई संबंध नहीं है।



आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें- 7-

प्लेखानोव ने लिखा है- "किसी सुशिक्षित व्यक्ति की पहली विशेषता प्रश्नों को प्रस्तुत करने की क्षमता में तथा इस बात को जानने में निहित होती है कि आधुनिक विज्ञान से किन -किन उत्तरों की मांग की जा सकती है। "


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-8-
फेसबुकवामपंथी कहते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारधारा है।
मित्रवर ,प्लेखानोव की नजर में " यह विचारधारा नहीं द्वंद्वात्मक तरीका है। परिघटनाओं की उनके विकासक्रम की,उनकी उत्पत्ति और विनाश के क्रम में जांच-पड़ताल करने का तरीका है।"
मैं विनम्रता से कहना चाहता हूँ मार्क्सवाद को भ्रष्टरुप में पेश करना बंद कर दें।
एक अन्य बात वह यह कि आधुनिककाल में भाववाद के खिलाफ विद्रोह की पताका सबसे पहले लुडबिग फायरबाख ने उठायी थी न कि मार्क्स ने।

आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-9-

फेसबुकवामपंथी अशोक पाण्डेय ने कल सवाल किया था- " द्वंद्वात्मक भौतिकवाद विचारधारा है कि नहीं महात्मन? दर्शन है कि नहीं? "
एंगेल्स ने द्वंद्वात्मक चिंतन के बारे में लिखा है- " द्वंद्ववाद क्या है ,इसे जानने से बहुत पहले भी मनुष्य द्वंद्वात्मक ढ़ंग से सोचते थे। ठीक उसी तरह जिस तरह गद्य शब्द के पैदा होने से बहुत पहले भी वे गद्य में बोलते थे। " एंगेल्स ने इसे निषेध का निषेध माना है। मार्क्स-एंगेल्स की नजर में यह नियम है ,विचारधारा नहीं है। चाहें तो फेसबुकवामपंथी एंगेल्स की महान कृति "ड्यूहरिंग मत खण्डन" पढ लें तो चीजें खुलकर साफ हो जाएंगी। मित्रो ,जब नियम और विचारधारा का अंतर नहीं जानते हो तो फेसबुक पर वामपंथ की रक्षा कैसे करोगे ?यहां तो बटन के नीचे ही मार्क्स-एंगेल्स की सभी रचनाएं रखी हैं।


आओ फेसबुक मित्रो मार्क्सवाद फिर से पढें-10-

फेसबुक पर मार्क्सवाद की इस चर्चा का समापन करते हुए मुझे एक वाकया याद आ रहा है।
जार्ज बुखनर ने कहा था कि अकेला व्यक्ति लहर के ऊपर फेन है और मनुष्य एक ऐसे लौह नियम के अधीन है, जिसका पता तो लगाया जा सकता है,किन्तु जिसे मानवीय इच्छा शक्ति के मातहत नहीं किया जा सकता। मार्क्स उत्तर देते हैंः नहीं,इस लौह नियम का एकबार पता लगा लेने के बाद यह हम पर निर्भर करता हैकि उसके जूए को उतार फेंकें,यह हम पर निर्भर करता है कि आवश्यकता को बुद्धि की दासी बना दें।

भाववादी कहता है , मैं कीड़ा हूँ।द्वंद्वात्मक भौतिकवादी आपत्ति करता हैःमैं तभी तक कीड़ा हूं,जब तक मैं अज्ञानी हूं, किन्तु जब मैं जान जाता हूं ,तो भगवान हो जाता हूं!

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