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Monday, March 25, 2013

अंग्रेजों का वहशीपन और 'शहादत में ही हमारी जीत है: भगत सिंह'


मुंबई। 23 मार्च 1931 को शाम 7.30 बजे भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई थी। भगत सिंह की उम्र वक्‍त महज 23 साल थी, लेकिन इतनी सी उम्र में उन्‍हें पता था कि बिखरे हुए भारत को कैसे एकसाथ खड़ा किया जा सकता है। वो हमेशा कहा करते थे,‘हमारी शहादत में ही हमारी जीत है।’ भारत की आजादी के लिए जो वह सोचते थे उस पर उन्‍हें पूरा भरोसा था और उन्‍होंने बिना हिचक अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी। ऐसा नहीं था कि उन्‍होंने जोश में ये कदम उठाया था बल्कि वह जानते थे कि उनकी शहादत से ही देश के लिए आजादी का रास्‍ता खुलेगा। भगत सिंह ने महात्‍मा गांधी का सम्‍मान किया, लेकिन कई मामलों पर उनके मतभेद थे ये बात सभी जानते हैं, लेकिन 23 साल के भगत सिंह उस समय अंग्रेजों के लिए महात्‍मा गांधी से भी बड़ी चुनौती बन गये थे। भगत सिंह ने बिना कोई पद यात्रा किए, बिना हजारों लोगों को जुटाए सिर्फ अपने और चंद साथियों के दम अंग्रेजों को लोहे के चने चबाने को मजबूर कर दिया था। शायद यही कारण रहा कि अंग्रेजों ने न केवल उन्‍हें फांसी पर चढ़ाया बल्कि उनके शवों को भी क्षत-विक्षत किया और टुकड़ों में शवों को काटकर अधजली हालत में सतलुज नदी में बहाया गया। आइये जानते हैं 23 मार्च 1931 के दिन आखिर क्‍या हुआ था?      

11 घंटे पहले लिया गया फांसी का फैसला

अंग्रेज सरकार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने का मतलब अच्‍छी तरह से जानती थी। उसे पता था कि इन तीनों नौजवानों को फांसी देने से पूरा देश उठ खड़ा होगा, लेकिन उसे ये भी पता था कि अगर ये तीनों जिंदा रहे तो जेल में बैठे-बैठे ही क क्रांति का बिगुल बजा देंगे, इसलिए भगत सिंह को फांसी देने के लिए पूरा सीक्रेट प्‍लान तैयार किया गया और 23 मार्च यानी फांसी के दिन से सिर्फ 11 घंटे पहले ये तय किया गया कि भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को कब फांसी देनी है। अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को उसी दिन फांसी की खबर दी, जिस दिन उन्‍हें फांसी पर चढ़ाया जाना था।

शाम 7.33 बजे दी गई फांसी 

23 मार्च 1931 को शाम में करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई। फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की नहीं बल्कि राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी पढ़ रहे थे। कहा जाता है कि जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनके फांसी का वक्‍त आ गया है तो उन्होंने कहा था- ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले। फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले -ठीक है अब चलो।

रात के अंधेरे में शवों के साथ वहशियाना सलूक 

अंग्रेजों ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी खबर को बहुत गुप्‍त रखा था, लेकिन फिर भी ये खबर फैल गई और लाहौर जेल के बाहर लोग जमा होने लगे। अंग्रेज सरकार को डर था कि इस समय अगर उनके शव परिवार को सौंपे गए तो क्रांति भड़क सकती है। ऐसे में उन्‍होंने रात के अंधेरे में शवों के टुकड़े किये और बोरियों में भरकर जेल से बाहर निकाला गया। शहीदों के शवों को फिरोजपुर की ओर ले जाया गया, जहां पर मिट्टी का तेल डालकर इन्‍हें जलाया गया, लेकिन शहीद के परिवार वालों और अन्‍य लोगों को इसकी भनक लगी तो वे उस तरफ दौड़े जहां आग लगी दिखाई दे रही थी। इससे घबराकर अंग्रेजों ने अधजली लाशों के टुकड़ों को उठाया और सतलुज नदी में फेंककर भाग गये। परिजन और अन्‍य लोग वहां आए और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के शवों को टुकड़ों को नदी से निकालाकर उनका विधिवत अंतिम संस्‍कार किया।

शहादत के बाद भड़की चिंगारी 

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की खबर को मीडिया ने काफी प्रमुखता से छापा। ये खबर पूरे देश में जंगल की आग तरह फैल गई। हजारों युवाओं ने महात्‍मा गांधी को काले झंडे दिखाए। सच पूछें तो देश की आजादी के लिए आंदोलन को यहीं से नई दिशा मिली, क्‍योंकि इससे पहले तक आजादी के कोई आंदोलन चल ही नहीं रहा था। उस वक्‍त तो महात्‍मा गांधी समेत अन्‍य नेता अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, लेकिन भगत सिंह पूर्ण स्‍वराज की बात करते थे, जिसे बाद में गांधी जी ने भी अपनाया और हमें आजादी मिल सकी।

साभार: हिंदी.इन.कॉम

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